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तो क्या दुनिया गुलामी के लिए तैयार की जा रही है?..

                 हम फ़िलिस्तीन के साथ खड़े हैं!

                                   चित्र साभार: फ़ेसबुक

पूँजीवाद अपरंच साम्राज्यवाद को दुनिया के लिए अपरिहार्य मानने वाले दिमाग की दुनिया में कमी नहीं है! 'वीरभोग्या वसुंधरा' और 'वैश्विक गाँव' जैसे विचार न केवल वैश्वीकरण के लिए समर्थन जुटाते हैं; बल्कि उदारीकरण और निजीकरण के नाम पर साम्राज्यवाद को भी दुनिया के लिए अपरिहार्य बताते हैं। ऐसे में मानवतावाद, मानव अधिकार, समाजवाद आदि विचार अपने आप ऐसे दिमाग के दुश्मन बन जाते हैं। साथ ही दुश्मन बन जाते हैं आज़ादी, मुक्ति जैसे शब्द भी जिनके लिए मानवता की छटपटाहट कभी ख़त्म नहीं होने वाली!...

             फिलिस्तीनी संघर्ष दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की  ऐसी प्रतीकात्मक त्रासदी है जिसने हार खाए पूंजीवादियों और फासिस्टों को हार न स्वीकार करने की निराशा की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। वे इसी बहाने दुनिया को जताना चाहते हैं कि दुनिया पर उनका ही सिक्का चलेगा। इज़राइल को उन्होंने आगे कर पूरी मानवतावादी चेतना पर गोले बरसाए हैं, फिलिस्तीन की तरह सबक सिखाने की धारणा बनाई है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मूकदर्शक जैसे बने रहकर फिलिस्तीनियों की मौतों का मातम मनाना भी दिखावा सिद्ध हुआ है। स्पष्टतः बिना पूँजीवाद-साम्राज्यवाद की सहमति के यह सब नहीं चलता रहता, इज़राइल की कोई औक़ात नहीं रहती, बिना किसी कारण अफगानिस्तान-इराक को तबाह करने वाले इस तरह चुप नहीं रहते, फिलिस्तीनियों के जनसंहारों का इस तरह समर्थन नहीं करते।...

पढ़ें, देश के कुछ प्रमुख बुद्धिजीवियों-कलाकारों की यह संवेदनात्मक अभिव्यक्ति:                   

17 May 2021:

1948 से इज़राइल ने फ़िलिस्तीनियों को उनकी ज़मीन से उखाड़ फेंकने और फ़िलिस्तीनी मातृभूमि की संभावना को मिटा डालने की कोशिश की है। तथ्यों की बुनियाद पर सीरियाई अकादमिक कॉन्सटेंटाइन ज़ुरयाक ने उस साल माना अल-नकबा (तबाही का मतलब) नाम से एक किताब प्रकाशित की थी। यह 'तबाही' फ़िलिस्तीनियों का उनके घरों से निष्कासन था, जो तब से इज़रायल के अंदर फ़िलिस्तीनियों को लेकर अपनायी जा रही रंगभेद की नीति से लेकर पूर्वी यरुशलम, गाज़ा और वेस्ट बैंक में रहने वाले फिलिस्तीनियों पर हो रहे हमलों, और निर्वासन में चले गये फ़िलिस्तीनियों की वापसी से इनकार करने की स्थिति तक फैली हुई है। अप्रैल 2021 के आख़िर में ह्यूमन राइट्स वॉच (न्यूयॉर्क) ने एक स्पष्ट शीर्षक वाली एक अहम रिपोर्ट प्रकाशित की। यह शीर्षक था-ए थ्रेशोल्ड क्रॉस्ड: इज़रायल ऑथरिटीज़ एंड द क्राइम्स ऑफ़ अपार्थीड एंड पर्सेक्यूशन।

मई की शुरुआत में इज़राइल ने शेख़ जर्राह (यरूशलेम) में रह रहे फ़िलिस्तीनी परिवारों को उनके घरों से अवैध रूप से बेदखल करने का प्रयास किया। लेबनानी उपन्यासकार, एलियास खुरी के शब्दों में यह निष्कासन 'निरंतर नकबा' का हिस्सा है। ये परिवार यरूशलेम के इसी हिस्से में बस गये थे, जब उन्हें इजराइलियों ने उनके घरों से निकाल दिया था, और अब उन्हें एक बार फिर यहां से भी निकाला जाना था।

इन परिवारों और उनके पड़ोसियों ने यहां से हिलने से इनकार कर दिया। उन्हें विरोध करने का हक़ इसलिए है, क्योंकि उनकी ज़मीन संयुक्त राष्ट्र की तरफ़ से अधिकृत फ़िलिस्तीनी क्षेत्र (OPT) के रूप में नामित भूमि का वह हिस्सा है जिस पर कब्ज़ा करने वाला, यानी इज़राइल इसका प्रबंधन करता है, लेकिन उसे रद्दोबदल का कोई हक़ हासिल नहीं है। जब फ़िलिस्तीनियों ने इसका विरोध किया तो उन्हें यहां रहने वाले यहूदीवादियों और उन इज़राइली सीमा पुलिस की तरफ़ से अख़्यितार की जाने वाली बेरहम हिंसा का सामना करना पड़ा जिन्होंने फ़िलिस्तीनियों को अपमानित करने की नीति के तहत अल-अक्सा मस्जिद में प्रवेश किया। गाज़ा,जो ख़ुद अधिकृत फ़िलिस्तीनी क्षेत्र (OPT) का हिस्सा है, वहां के फ़िलिस्तीनियों ने चेतावनी दी थी कि अगर इज़रायल और यहूदीवादियों ने इन ज़ुल्म-ओ-सितम को नहीं रोका, तो उन्हें रॉकेटों की बौछार का सामना करना पड़ेगा। चूंकि हमलों का कोई अंत नहीं दिख रहा था, इसलिए गाज़ा के फ़िलिस्तीनियों ने इज़रायल पर रॉकेट दाग दिये। रॉकेटों ने उस क्रूरता की शुरुआत की या उसे तय नहीं किया था, जो उसके बाद हुई। रॉकेट एक प्रतिरोध - अंतर्राष्ट्रीय क़ानून से समर्थित- एक अवैध कब्ज़े के हिस्से के रूप में दागा गया था।

इज़राइल ने इसकी प्रतिक्रिया में बेहद ताक़त के साथ जवाबी कार्रवाई की- बच्चों को मार डाला, नागरिक ठिकानों पर हमले किये और एक मीडिया भवन पर बमबारी की। 2006 से दुनिया के सबसे बड़े कंसन्ट्रेशन कैंपों में से एक गाज़ा की लगातार बमबारी ने इजरायल के अधिकृत फ़िलिस्तीनी क्षेत्र (OPT) के प्रबंधन को परिभाषित कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र इसलिए ख़ामोश है क्योंकि अमेरिकी सरकार ने संघर्ष विराम प्रस्ताव की अनुमति देने से इनकार कर दिया है। कोई भी अरब देश, फ़िलीस्तीनियों की हिफ़ाज़त के लिए अपने सैन्य बल का इस्तेमाल करने को तैयार नहीं है; मसलन, मिस्र की वायु सेना के लिए गाज़ा के ऊपर 'नो-फ़्लाई ज़ोन' मुहैया कराना बहुत ही आसान होगा। जॉर्डन और लेबनान में रह रहे निर्वासित फ़िलीस्तीनियों ने उन फाटकों पर चढ़ाई की जो उन्हें उनकी मातृभूमि से अलग करते हैं। उन्होंने लगाये गये बाड़ों पर धक्के दिये,अपने घर जाने के लिए बेताब दिखे।

रॉकेट की बौछार से इस ख़ौफ़नाक़ इज़राइली बमबारी की व्याख्या को शुरू करना असल में इस कहानी के पूरे संदर्भ को ग़ायब करना  होगा और फ़िलीस्तीनियों को उनकी गरिमा और विरोध करने के उनके अधिकार से मुंह चुराना होगा। हम फ़िलीस्तीनियों के साथ खड़े हैं, उनकी मातृभूमि के अधिकार, उनके घर लौटने के अधिकार और कब्ज़े का विरोध करने के उनके हक़ के साथ खड़े हैं। फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ इस भयानक हिंसा को लेकर हमारी प्रतिक्रिया संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 1514 (1960) के उस भाव में निहित है जिसमें कहा गया है, 'मुक्ति की प्रक्रिया अचल और अटल है और...गंभीर संकटों से बचने के लिए उपनिवेशवाद और उससे जुड़े अलगाव और भेदभाव के सभी तौर-तरीक़ों को ख़त्म किया जाना चाहिए।'


(ऐजाज़ अहमद, अरुंधति रॉय, गीता हरिहरन, मोहम्मद यूसुफ़ तारिगामी, नसीरुद्दीन शाह, नयनतारा सहगल, प्रभात पटनायक, रत्ना पाठक शाह, सुभाषिनी अली, सुधन्वा देशपांडे और विजय प्रसाद)

                                ★★★★★★★★




 

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