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राजनीति के मायने बदल रहा है किसान आंदोलन

                          राजनीतिक दल क्या              राजनीति की मर्यादाएं छोड़ चुके हैं?       भले ही संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चलाया जा रहा किसान आंदोलन संसदीय राजनीति से दूरी बनाए हुए है लेकिन सच यही है कि यह राजनीति की एक नई इबारत लिख रहा है। ज़्यादा सही कहना यह होगा कि किसान आंदोलन राजनीतिक दलों को राजनीति की मर्यादाएँ दिखा और सिखा रहा है। यही काम आज़ादी के पहले के विविध जनांदोलनों ने किया था। तब के राजनीतिज्ञों ने इसे समझा और अहमियत दी थी। आज राजनीति पैसा और ऐश्वर्य का महल खड़ा करने की एक चाल सिद्ध हो रही है। देखा यही जा रहा है कि इसी कोशिश में तमाम राजनीतिक दलों के नेता लगे हुए रहते हैं। आम जनता की ज़िंदगी की बेहतरी की उनकी बातें वास्तव में एक 'जुमला' ही सिद्ध होती हैं। चुनावों के बाद फिर चुनावों में नज़र आने वाले नेता मंदिरों, देवताओं, धर्म-मज़हब-जाति के सहारे इसीलिए रहते हैं क्योंकि असली मुद्दों से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता।        हाल में किसान आंदोलन ने जिस तरह किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों के मुद्दों को राजनीति के केंद्र में लाने की कोशिश की है उस पर गौर कर