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ऐय्याशियों का महल खड़ा करने वाले किस नेता को जिताएंगे आप?

                        किसको लड़ाना, हराना,                     जिताना चाहते हैं?    जहाँ देखो, जिधर देखो...जय,जय,जय! इस बाबा की जय, उस बाबा की जय! इस भगवान की जय, उस भगवान की जय! तो तुम भगवान को जिताने के लिए 'जयकारे' लगाते हो? जयकारे नहीं लगाए तुमने तो हार जाएंगे क्या भगवानजी?... और अब भगवान का जयकारा लगाते-लगाते चुनावों में जय-जय होने लगी? ये नेतालोग भगवान हैं क्या? जरा इन नेताओं के आचरण देखो भाइयों-बहनों, किन्हें भगवान बना रहे हो??...लोकतंत्र का बेड़ा ग़र्क़ करके अपनी ऐय्याशी के महल खड़े करने वाले नेताओं का जयकारा लगाते आप लोगों को जरा भी शर्म नहीं आती?... फिर क्या मतलब है इस जय का? यही तो न कि कोई जीते, कोई हारे?.. तो इसके लिए तो संघर्ष या युद्ध भी होगा ही न?.. किसको लड़ाना, हराना या जिताना चाह रहे हैं...युद्ध में झोंकना चाह रहे हैं? वो कौन है जिसके हारने से तुम डर रहे हो और जीतने की कामना कर रहे हो? वो कौन है जो युद्ध कर रहा है, लड़ाई के मैदान में है और तुम्हें उसका उत्साहवर्धन करना है? क्या किसी मैदान में कोई खेल हो रहा है, तुम वहाँ हो और सोच रहे हो कि तुम्हारे उत्साहवर्धन से

नरक की कहानियाँ: 2~बनो दिन में तीन बार मुर्गा!..

व्यंग्य-कथा :                       दिन में तीन बार मुर्गा बनने का आदेश:                                 और उसके फ़ायदे                                                     - अशोक प्रकाश     मुर्गा बनो जैसे ही दिन में कम से कम तीन बार मुर्गा बनने का 'अति-आवश्यक' आदेश निकला, अखबारों के शीर्षक धड़ाधड़ बदलने लगे। चूंकि इस विशिष्ट और अनिवार्य आदेश को दोपहर तीन बजे तक वाया सर्कुलेशन पारित करा लिया गया था और पांच बजे तक प्रेस-विज्ञप्ति जारी कर दी गई थी, अखबारों के पास इस समाचार को प्रमुखता से छापने का अभी भी मौका था। एक प्रमुख समाचार-पत्र के प्रमुख ने शहर के एक प्रमुख बुद्धिजीवी से संपर्क साधकर जब उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही, उन्होंने टका-सा जवाब दे दिया। बोले- "वाह संपादक महोदय, वाह!...आप चाहते हैं कि इस अति महत्वपूर्ण खबर पर अपना साक्षात्कार मैं यूं ही मोबाइल पर दे दूँ!....यह नहीं होगा। आपको मेरे घर चाय पीनी पड़ेगी, यहीं बातचीत होगी और हाँ, मेरे पारिश्रमिक का चेक भी लेते आइएगा ताकि साक्षात्कार मधुर-वातावरण में स

सोई हुई जातियाँ पहले जागेंगी

                      https://youtu.be/kzwBYuHjR1Y                      सोयी हुई जातियां पहले जागेंगी !                                                   प्रस्तुति : गुरचरन सिंह मुंशी प्रेमचंद के नाम का जिक्र तो काफी होता है प्रगतिशील लेखक मंच से दलित समस्याओं को उठाने के लिए, लेकिन महाप्राण निराला जैसे 'कान्यकुब्ज ब्राह्मण' ने भी ऐसा कुछ कहा या लिखा होगा, यह तो मेरे लिए भी एक सुखद आश्चर्य से कम नहीं था। यह दूसरी बात है कि लगभग एक सदी बाद भी कुछ अपवादों को छोड़ कर हालात न केवल जस के तस बने हुए हैं बल्कि और भी बिगड़े हैं ! लेकिन सिर्फ बाबा साहेब ही नहीं कुछ और भी संवेदनशील व जिम्मेदार लोग इस दिशा में सोच रहे थे, सक्रिय थे, सबूत है इस बात का कि कोई भी सामाजिक आंदोलन किसी एक खास तबके की बपौती नहीं हो सकता ! पांच अंगुलियां जब आपस में मिलती हैं, मुट्ठी तभी बनती है ! इसलिए #महाप्राण_सूर्यकांत_त्रिपाठी_निराला जैसा कद्दावर भविष्यद्रष्टा कवि जब 1930 में भी जब कुछ ऐसा कह जाता है जिसे कहने में हम आज भी डर जाते हैं संविधान की अनेक गारंटियों के बावजूद तो हैरानी तो होगी ही !  पेश