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आदिवासी विद्रोह की कथा

                    हूल आदिवासी विद्रोह                                 30 जून 1855 आदिवासी जनता भारत के स्वतंत्रता संग्राम की अग्रिम कतारों में रही है। भारत के मुख्य भूभाग में संघर्ष "शुरू होने से पहले ही आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में अपना हथियारबंद प्रतिरोध शुरू कर दिया था। ऐसा ही एक संघर्ष ऐतिहासिक हूल विद्रोह था जो संथाल आदिवासियों के नायक, सिद्धू और कानो ने शुरू किया था। सिद्धू कानू चांद और भैरव संथाल परगना के बाघनदी गांव के नारायण माजी के 4 पुत्र थे। कानों का जन्म सन 1820 में हुआ था। संथाल परगना की राज महल पहाड़ियों को दमानी कोह, यानी, उड़ती पहाड़ियों के नाम से भी जाना जाता है। सिद्धू और कानों का बचपन बेहद गरीबी में गुजरा था। शुरू से ही उन्होंने स्थानीय जमींदारों और सूदखोरों को अंग्रेजों के समर्थन से क्षेत्र के संथाली को लूटते वह उनका शोषण करते हुए देखा था। स्थानीय जमींदार इन आदिवासी लोगों को दादान के रुप में रखकर इनसे मुफ्त श्रम कराते थे। वे विभिन्न बहानों के आधार पर इनकी जमीनों को छीन लेते थे। वे इनकी महिलाओं का भी यौन शोषण करते थे। उस सम

हूल दिवस पर एक कविता: तब और अब

एक कविता:                                हुल दिवस, 30 जून उनके पास ज़्यादा कुछ नहीं था दुश्मनों के पास बहुत कुछ था... जब युद्ध शुरू हुआ वे जानते थे कि हार जाएँगे किन्तु इससे क्या होता है?... कोई आपकी माँ की बेइज़्ज़ती करे आपके मुँह का कौर छीन ले बहू-बेटियों को निर्वस्त्र करे तो आप हार-जीत देखेंगे?... नहीं ना! वे भी भिड़ जाते हैं प्राणप्रण से लड़ते हैं   बचाते हैं  अपनी अस्मिता! ठीक यही हुआ था ठीक यही हो रहा है... फर्क़ सिर्फ़ इतना आया है कि उस घर के जो बाशिन्दे थे उनमें कुछ अब दलाल बन गए हैं... उनके लिए माँ-बेटी-बहू की जगह अपनी ज़िंदगी के अलग तर्क हैं दुश्मनों का साथ देने की अलग दलीलें हैं इसीलिए वे कुर्सियों पर हैं! उन्हें नहीं फ़िक्र कि उनकी कुर्सी के पाये दुश्मन की जंजीरों से बंधे हैं बंधी तो हैं उनकी दलीलें भी... किन्तु उन्हें फर्क़ नहीं पड़ता! उनके पुरखों को पड़ता था यही फर्क़ है- तब में, अब में!..                         ~ अशोक प्रकाश                        ★★★★★★★★