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Showing posts from June, 2018

अवधी-कविता: पाती लिखा...

                                स्वस्ती सिरी जोग उपमा...                                         पाती लिखा...                                            - आद्या प्रसाद 'उन्मत्त' श्री पत्री लिखा इहाँ से जेठू रामलाल ननघुट्टू कै, अब्दुल बेहना गंगा पासी, चनिका कहार झिरकुट्टू कै। सब जन कै पहुँचै राम राम, तोहरी माई कै असिरबाद, छोटकउना 'दादा' कहइ लाग, बड़कवा करै दिन भै इयाद। सब इहाँ कुसल मंगल बाटै, हम तोहरिन कुसल मनाई थै, तुलसी मइया के चउरा पै, सँझवाती रोज जराई थै। आगे कै मालूम होइ हाल, सब जने गाँव घर खुसी अहैं, घेर्राऊ छुट्टी आइ अहैं, तोहरिन खातिर सब दुखी अहैं। गइया धनाइ गै जगतू कै, बड़कई भैंसि तलियानि अहै। बछिया मरि गै खुरपका रहा, ओसर भुवरई बियानि अहै। कइसे पठई नाही तौ, नैनू से दुइ मेटी भरी अहै। तू कहे रह्या तोहरिन खातिर, राबिव एक गगरी धरी अहै। घिव दूध खूब उतिरान अहै, तोहरिन इयाद कै रोई थै। गंजी से दुपहरिया काटी, एक जूनी रोटी पोई थै। दस दिन भवा अइया के, रमबरना क कूकुर काटि लिहेस। जब ओरहन देय गये ओसी, ओकर महतारी डाँटि लिहेस। लौंगहवा

दास्ताने-तालीम:

                             एक शिक्षक की डायरी                                                             प्रोफे. दीपक भास्कर,                                                      दिल्ली विश्वविद्यालय.           ....आज दुखी हूँ! कॉलेज में काम खत्म होने के बाद भी स्टाफ रूम में बैठा रहा, कदम उठ ही नहीं रहे थे। दो बच्चों ने आज ही एड्मिसन लिया और जब उन्होंने फीस लगभग 16000 सुना और होस्टल फीस लगभग 120000 सुनकर एड्मिसन कैंसिल करने को कहा।  गार्डियन ने लगभग पैर पकड़ते हुए कहा कि सर! मजदूर है राजस्थान से, हमने सोचा कि सरकारी कॉलेज है तो फीस कम होगी, होस्टल की सुविधा होगी सस्ते मे, इसलिए आ गए थे।  मैंने रोकने की कोशिश भी की लेकिन अंत में एडमिशन कैंसिल ही करा लिया।  बैठकर! ये सोच रहा था कि एक तरफ जहां लोग सस्ती शिक्षा चाह रहे हैं वहीं दूसरी तरफ सरकार कह रही है कि 30 प्रतिशत खुद जेनेरेट कीजिये।  ऑटोनोमी के नाम पर निजिकरण हो रहा है। सोचिये दिल्ली विश्विद्यालय के चारो तरफ प्राइवेट यूनिवर्सिटी का जाल बिछ रहा है। जो लोग 15000 की फीस नही दे पा रहे वो लाखों की फीस प्राइवेट यूनिवर्सिटी को कह

पर्यावरण-संरक्षण: कथनी बनाम करनी:

                             पर्यावरण का संरक्षण या                         पर्यावरण-विनाश का वैश्वीकरण             यह सब पहले भी होता था!...            लोग झूठ बोलते थे, कहते कुछ और थे- करते कुछ और थे। नीति-नियम बनाए जाते थे-दूसरों के लिए। अपने लिए नियम अपनी सुविधा और फायदे के हिसाब से होते थे। 'अश्वत्थामा मरो....' सत्य के आगे 'नरो वा कुंजरो...' छुपा लिए जाने के पीछे की रणनीति निश्चित नई नहीं है। विकास के बहाने विनाश की गाथा शायद इसी तरह रची जाती है! अश्वत्थामा को मैने नहीं मारा, तुमने मारा है!...तुम्हें इसका हर्ज़ाना देना होगा, तिल-तिल कर मरना होगा। मैं वातानुकूलित महल में रहूँगा, क्योंकि मैंने ही अश्वत्थामा के मारे जाने का 'सत्य' तुम्हें बताया है। 'पर्यावरण' का विनाश हो रहा है, मेरे बताने के पहले तुम जानते थे क्या??...             पर्यावरण को लेकर कुछ इसी तरह के प्रपंच वैश्विक स्तर पर रचे जाते हैं। एक तरफ विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी कंपनियों को पर्यावरण के विनाश का न्यौता- हर प्रकार की छूट, दूसरी तरफ पर्यावरण बचाने के आम जनता को उपदेश!...क्या क

शिक्षा का माध्यम

                   'राष्ट्रभाषा', सार्वजनिक शिक्षा और 'राष्ट्रवादी'                           फ़ोटो-साभार फेसबुक                ऐसा लगता है जैसे  शासकवर्ग सार्वजनिक शिक्षा को मटियामेट कर निजी शिक्षण संस्थानों को खुली छूट देना चाहता है। इसके लिए प्राथमिक शिक्षा के मातृभाषा में चल रहे विद्यालयों को या तो बन्द किया जा रहा है या उन्हें Englsh Medium में रूपांतरित करने की कवायद चल रही है। मातृभाषा में कम से कम प्राथमिक शिक्षा देने की संवैधानिक प्रतिबध्दता को इस तरह अंगूठा दिखाया जा रहा है।              आखिर क्यों किया जा रहा है यह सब?...उत्तर बड़ा आसान और सीधा सा है। लगता है सरकार की प्राथमिकता में देश की सार्वजनिक शिक्षा न होकर कम्पनियों के लिए जरूरी शिक्षा रह गई है।...               आखिर क्यों अपने देशवासियों को उनकी भाषा में शिक्षा नहीं दी जा सकती, उनके लिए देश में रोज़ी-रोटी की व्यवस्था नहीं हो सकती? इससे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि प्रत्यक्षतः विदेशी कंपनियों को देश में मुनाफ़ा के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के साथ मानव-श्रम ('मानव-संसाधन' !) को लूटने के