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पर्यावरण-संरक्षण: कथनी बनाम करनी:


                             पर्यावरण का संरक्षण या 
                       पर्यावरण-विनाश का वैश्वीकरण


           यह सब पहले भी होता था!...
           लोग झूठ बोलते थे, कहते कुछ और थे- करते कुछ और थे। नीति-नियम बनाए जाते थे-दूसरों के लिए। अपने लिए नियम अपनी सुविधा और फायदे के हिसाब से होते थे। 'अश्वत्थामा मरो....' सत्य के आगे 'नरो वा कुंजरो...' छुपा लिए जाने के पीछे की रणनीति निश्चित नई नहीं है। विकास के बहाने विनाश की गाथा शायद इसी तरह रची जाती है! अश्वत्थामा को मैने नहीं मारा, तुमने मारा है!...तुम्हें इसका हर्ज़ाना देना होगा, तिल-तिल कर मरना होगा। मैं वातानुकूलित महल में रहूँगा, क्योंकि मैंने ही अश्वत्थामा के मारे जाने का 'सत्य' तुम्हें बताया है। 'पर्यावरण' का विनाश हो रहा है, मेरे बताने के पहले तुम जानते थे क्या??...

            पर्यावरण को लेकर कुछ इसी तरह के प्रपंच वैश्विक स्तर पर रचे जाते हैं। एक तरफ विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी कंपनियों को पर्यावरण के विनाश का न्यौता- हर प्रकार की छूट, दूसरी तरफ पर्यावरण बचाने के आम जनता को उपदेश!...क्या कर लेगी जनता? अभावों से ग्रस्त ज़िन्दगी बचाने की जद्दोजहद में रोटी बनाने के लिए जलावन इकट्ठा करने में जिन्हें पर्यावरण-विनाश दिखता है उन्हें जानना चाहिए कि सदियों से आम जनता ही पेड़-पौधे लगाती और बचाती रही है। सड़क-हाईवे, विशालकाय परियोजनाएँ, तथाकथित मॉडर्न-सिटी आदि बनाने में पेड़-पौधों से लेकर जिस तरह जीव-जंतुओं का विनाश किया जाता है उसकी तुलना में जलावन की लकड़ी से पर्यावरण पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। साथ ही यह इस तथाकथित विकास की ही एक नंगी सच्चाई है कि जनता को आज भी अपना खाना बनाने के लिए प्रकृति पर ही निर्भर रहना पड़ता है।



            पिछले हफ्ते विश्व पर्यावरण दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में फ्लेक्स और प्लास्टिक के कृत्रिम वातानुकूलित स्थल से भाषण दिए गए। प्रधानमंत्री ही कार्यक्रम के मुख्य आकर्षण और वक्ता थे। पर्यावरण विनाश करके पर्यावरण बचाने का कार्यक्रम यही सिद्ध करता है कि अश्वत्थामा को मारा भी जाएगा और आरोप जनता पर ही मढ़ा जाता रहेगा! पत्रकार महेंद्र पांडेय इस सम्बंध में लिखते हैं- ...'जिस देश में साफ हवा और साफ पानी की मांग पर मौत मिलती हो, वह देश जब पर्यावरण दिवस का आयोजन करता है तब ऐसा ही होता है, जैसा इस बार हुआ। कचरे के ढेर सड़कों पर पड़े रहेंगे, नदियां प्रदूषित होती रहेंगी या पूरी तरह सूख जाएंगी, लोग वायु प्रदूषण से मर रहे होंगे, शोर लोगों को बहरा कर रहा होगा और इन सबके बीच सरकारें पर्यावरण संरक्षण का जश्न मनाती रहेंगी।'
              पर्यावरण-संरक्षण के नाम पर यह दोगलापन आम जनता के बीच प्रचारित नहीं होता। किन्तु जनता सब देखती-समझती है।...★★★

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