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नाथ-सम्प्रदाय और गुरु गोरखनाथ का साहित्य

स्नातक हिंदी प्रथम वर्ष प्रथम सत्र

परीक्षा की तैयारी

नाथ सम्प्रदाय गोरखनाथ

        हिंदी साहित्य में नाथ सम्प्रदाय और

           गोरखनाथ  का योगदान

                                                    चित्र साभार: exoticindiaart.com

'ग्यान सरीखा गुरु न मिल्या...'
(ज्ञान के समान कोई और गुरु नहीं मिलता...)
                                 -- गोरखनाथ

नाथ साहित्य को प्रायः आदिकालीन हिन्दी साहित्य की पूर्व-पीठिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।  रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को 'आदिकाल' की अपेक्षा 'वीरगाथा काल' कहना कदाचित इसीलिए उचित समझा क्योंकि वे सिद्धों-नाथों की रचनाओं को 'साम्प्रदायिक' रचनाएं समझते थे। अपने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में वे लिखते हैं कि "अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है।..." उनकेनुसार- 'देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की काव्यभाषा' का प्रयोग और 'साम्प्रदायिक प्रवृत्ति और उसके संस्कार की परंपरा' सिद्ध-नाथों की रचनाओं की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

         आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने गोरखनाथ की रचनाओं को 'अपभ्रंश काव्य' के अंतर्गत ही रखा है। उनके अनुसार सिद्धों और योगियों की रचनाएँ - "तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अन्तर्मुख साधना के महत्व इत्यादि की साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई सम्बन्ध नहीं। अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं।"
           सिद्धों-नाथों के साहित्य के बाद के समीक्षकों और शोधकर्ताओं ने आचार्य शुक्ल के इस मत का तर्कपूर्ण खण्डन किया। नवीन शोधों से यह विचार प्रबल सिद्ध हुआ कि सिद्धों-नाथों की रचनाएँ साम्प्रादायिक रचनाएँ मात्र नहीं हैं। परवर्ती भक्तिकालीन साहित्य पर उनका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। कबीर, दादू, रैदास, नानक आदि ने इनमें जीवन की विशिष्ट अनुभूतियों की पहचान कर इन्हें अपनी रचनाओं द्वारा जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया।
 
           नाथ-साहित्य शिरोमणि के रूप में गुरु गोरखनाथ की रचनाओं का हिंदी साहित्य के आदिकाल में विशेष स्थान है। वे  नाथ साहित्यधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने न केवल परवर्ती अपभ्रंश या पुरानी हिंदी में साहित्य को समृद्ध किया बल्कि संस्कृत भाषा की भी उनकी कई रचनाओं का उल्लेख किया जाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनकी 28 रचनाओं का उल्लेख किया है। इन संस्कृत ग्रंथों में अमनस्क-योग, अमरौघ-शासनाम्, अवधूत-गीता, गोरक्ष-पद्धति, गोरक्ष-संहिता, सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति, महार्थ-मंजरी आदि ग्रंथों का विशेष महत्व है। सिद्ध-सिद्धांत-पद्धति नाथ-योग का एक सैद्धांतिक ग्रंथ है जिसमें परमात्मा के स्वरूप, पिण्डोत्पत्ति, पिण्ड और ब्रह्माण्ड की एकता, जगत के मूल में अवस्थित आध्यात्मिक शक्ति, समरसता की योग द्वारा प्राप्ति, अवधूत योगियों के आचरण आदि विषयों पर उपदेश दिए गए हैं।

          पुरानी हिंदी या अवहट्ट इन उनकी लगभग 40 कृतियों की चर्चा होती है। यद्यपि इन सभी कृतियों के बारे में सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जाता कि ये गोरखनाथ की रचनाएं ही हैं। डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने जिन 14 रचनाओं को प्रामाणिक माना है, वे निम्नवत हैं:
1. सबदी
2. पद
3. सिष्या दरसन,
4. प्राण संकली
5. नरवै बोध
6. आत्मबोध
7. अभै मात्रा जोग
8. पन्द्रह तिथि
9. सप्तवार
10. मछीन्द्र गोरखबोध
11. रोमावली
12. ग्यान तिलक
13. पंच मात्रा
14. ग्यान चौंतीसा

इन ग्रंथों में सबदी, पद, प्राण संकली, नरवै बोध, आत्मबोध, मछीन्द्र गोरखबोध, ग्यान तिलक और ग्यान चौंतीसा ग्रंथों से गोरखनाथ के विचारों की विविधता का पता चलता है।

        'सबदी' में 275 सबदियाँ संकलित हैं। इनमें साधना, संयम, आडम्बरों का खंडन, आसक्ति का निषेध, आत्मचिंतन का आग्रह आदि विषय निरूपित हुए हैं। संसार में संयम के साथ रहने का उपदेश देते हुए वे कहते हैं कि संयम का तात्पर्य संसार से भागना नहीं बल्कि स्थिर-चित्त होना है, निश्चल होना है:
       " षाएँ भी मरिये अणषाएँ भी मरिये,
         गोरख कहे पूता संजमि ही तरिये।
          मधि निरन्तर कीजै बास,
          निहचल मनुवा थिर होइ सास।।"

काया को कष्ट देने, पावड़ी पहन कर चलने, श्रृंखलाओं से शरीर कोL बांधने आदि की क्रिया करने वाले नागा, मौनी आदि को गोरखनाथ ने साधक न मानकर पाखंडी माना है। इसीलिए वे निरपेक्ष मस्ती का संदेश देते हुए कहते हैं:
             "हसिबा षैलिबा रहिबा रंग,
                        काम क्रोध ना करिबा संग।
               हसिबा  षैलिबा गाइबा गीत,
                     दिढ़ करि राखि आपणा चीत।"

          डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल द्वारा संपादित 'गोरखबानी' में गोरखनाथ के 62 पद भी संकलित हैं। सबदी की तरह पदों में भी गोरखनाथ ने जीवन की स्वाभाविक स्थितियों का वर्णन किया है। लेकिन इनका विषय अपेक्षाकृत विशद है। पदों के माध्यम से गोरखनाथ ने गुरु के महत्त्व के साथ हठयोग, प्राणायाम, बाह्याडंबर का विरोध, माया का विरोध, अजपाजाप आदि का उपदेश दिया है। योग के लिए गुरु की महत्ता बताते हुए उन्होंने कहा है:
           "गुर कीजै गहिला निगुर न रहिला।
            गुर बिन ग्यान न पायला रे भाईला।।"

'प्राण संकली' मात्र 16 छंदों की एक छोटी सी रचना है।इसके बावजूद गोरखनाथ की रचनाओं में इसे महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसका प्रमुख कारण शरीर अथवा पिण्ड की इसमें की गई व्याख्या है। इसके अनुसार जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वही पिण्ड अर्थात शरीर में है। प्राण रूपी सांकल से इस पिण्ड को बांधने से जीवन को परिपक्व किया जा सकता है। इसे साधने के लिए इसमें षट्चक्रों का वर्णन, कुंडलिनी जागरण, नाद, बिंदु, सहस्रार कमल आदि का वर्णन किया गया है।
                चित्र साभारनाथ सम्प्रदाय: साधना, साहित्य एवं सिद्धांत- डॉ. वेद प्रकाश जुनेजा 

'नरवै बोध' गोरखनाथ के कुल 14 छंदों की रचना है।   'नरवै बोध' अर्थात नर-मनुष्य का ज्ञान। इस रचना में योग की चार अवस्थाओं- आरम्भ, घट, परिचय और निष्पत्ति का वर्णन करते हुए योगानुसार जीवन जीने का संदेश दिया गया है। सामान्य मनुष्य का जीवन द्वंद्वों से घिरा रहता है। योग-साधना द्वारा वह निर्द्वन्द्व जीवन व्यतीत कर सकता है:
          " छाड़ौ दंद रहौ निरदंद,
        तजौ अलयंगन रहौ अबन्ध।"

'आत्मबोध' कुल 22 छंदों की रचना है। इस रचना में गोरखनाथ ने योग-साधना के द्वारा आत्मा के असली स्वरूप को पहचानने का उपदेश दिया है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड का बोध कुण्डलिनी जागरण द्वारा किया जा सकता है, यह आत्मबोध का मूल स्वर है। काया-साधना को महत्व देते हुए इसमें बिना पुस्तक के भी पुराण-ज्ञान होने की बात कही गई है:
       "बिन पुस्तक बंचिबा पुराण,
                    सुर्स्वती उचरै ब्रह्म गियान।
        अझर सोखै बजर करै,
                      सर्व दोष काया लै हरै।।"
      
'मछीन्द्र गोरखबोध' में 127 छंद हैं। इस महत्वपूर्ण रचना को नाथ सम्प्रदाय के संक्षिप्त शब्दकोष के रूप में जाना जाता है। यह रचना गोरखनाथ और उनके गुरु मत्स्येंद्रनाथ के बीच संवाद प्रस्तुत करती है। योग-साधना के गूढ़ तत्त्वों पर गोरखनाथ के प्रश्नों का इसमें गुरु मत्स्येंद्रनाथ द्वारा उत्तर दिया गया है। अवधूत कहाँ रहे, क्या करे, क्या खाए, सहज, संयम, पवन, प्राण, वाणी आदि के प्रति क्या व्यवहार हो- इन सब विषयों पर इस गोरखनाथ की महत्वपूर्ण रचना में विचार-विमर्श प्रस्तुत किया गया है। गोरखनाथ ने इसे संक्षिप्त करके भी इस तरह बताया है:
        "ए षट्चक्र का जाणै भेव,
                         सो आपै करता आपै देव।
        मन पवन साधै ते जोगी,
                    जुरा पलटै काया होई निरोगी।।"

'ग्यान तिलक' में 45 छंद हैं। विषय के अनुसार इसमें शब्द-ज्ञान की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। सद्गुरु के सबद कितने महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक आनंद के कोष हैं, 'ग्यान तिलक' का मुख्य विषय है। मात्र मुड़ा लेने से कोई योगी नहीं हो जाता, साधना से ही योगी को सच्चा ज्ञान प्राप्त हो सकता है। ज्ञान का एक उदाहरण:
          "अंजन माहिं निरंजन मेट्या,
                                 तिल मुष मेट्या तेलं।
           मूरति माहिं अमृत रति परस्या,
                                   भया निरन्तर षेलं।।"

'ग्यान चौंतीसा' को पहले डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने 'गोरखबानी' में स्थान नहीं दिया था, किन्तु परिशिष्ट के रूप में उन्होंने जिन कुछ पदों का संग्रह किया था, उनमें 'ग्यान चौंतीसा' भी था। यह रचना ज्ञान की चौंतीसा विशिष्ट कलाओं का संदेश देती है। आचार्य रामचंद्र तिवारी और रामदेव शुक्ल द्वारा संपादित 'गोरखबानी-सार-संग्रह' में 'ग्यान चौंतीसा' के विषय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि " मानव-शरीर मूलाधार-बिंदु से उत्पन्न होता है। शरीर के नाभि-स्थान में सूर्य और सहस्रार में चन्द्रमा की स्थिति है। सूर्य की बारह और चन्द्रमा की सोलह कलाएँ होती हैं। चंद्रमा की चार कलाओं से अमृत झरता रहता है। सूर्य इसे सोख लेता है और मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।.." किन्तु सच्चा योगी कुण्डलिनी जागरण के द्वारा शक्ति को शिवस्थान अर्थात सहस्रार में ले जाकर अमृत का पान करता हुआ अमर हो जाता है। इस तरह 'ग्यान चौंतीसा'  में योग-साधना के रहस्य को प्रकट किया गया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ: 1. नाथ सम्प्रदाय- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी  2. ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी प्रकाशित 'हिंदी साहित्य कोश, भाग -1(पारिभाषिक शब्दावली) 3.नाथ सम्प्रदाय: साधना, साहित्य एवं सिद्धांत- डॉ. वेद प्रकाश जुनेजा 4. आचार्य रामचंद्र तिवारी और रामदेव शुक्ल द्वारा संपादित 'गोरखबानी-सार-संग्रह' 

परीक्षा की तैयारी

                                     ★★★★★★




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