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सरकारी नहीं, दिहाड़ी नौकर चाहिए!..

पालतू तीतर          सरकारी नौकर नहीं चाहिए!   जी हुज़ूर, सरकार बहादुर को सिर्फ़ दिहाड़ी नौकर चाहिए! ताकि हुज़ूरे-आला जब तक और जैसे चाहें उसका खून-पसीना पिएं और जब चाहें लात मारकर निकाल दें। बुरा लगता है ऐसा सुन-सोचकर? पर क्या यह सही नहीं है कि सामंतों की तरह पूँजीपति और उनकी कम्पनियाँ ऐसा ही करती हैं? और जब कोई सरकार ऐसा ही चाहे तब उसको क्या कहें? नाम से क्या फर्क़ पड़ता है- दिहाड़ी कहिए या ठेका मजदूर अथवा संविदा कर्मचारी! सोचने पर विश्वास करने का मन नहीं करता!... आख़िर हम संविधान के आधार पर चलने वाले देश के लोग हैं! पर असलियत हमारे हर मुगालते पर मुक्का मारती है। उसी तरह जैसे घूस या भ्रष्टाचार कहीं लिखित नहीं है लेकिन छोटे-बड़े हर ऑफिस में सर्वशक्तिमान की तरह विराजमान है। नेता, मंत्री, अधिकारी और हाँ, कर्मचारी भी किसी भी नियम से 'दो नम्बरी' काम के लिए नहीं हैं पर जिस भी आदमी को काम कराना हो, असलियत पता लग जाएगी। और अब यह सब इतना आम हो गया है कि 'ईमानदार' शब्द ही मजाक लगने लगा है। वैसे ही जैसे किसी को कहा कि वह सीधा है, गऊ है तो इसका मतलब यही माना जाता है कि यह किसी काम का नहीं!.