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हूल दिवस पर एक कविता: तब और अब

एक कविता:                                हुल दिवस, 30 जून उनके पास ज़्यादा कुछ नहीं था दुश्मनों के पास बहुत कुछ था... जब युद्ध शुरू हुआ वे जानते थे कि हार जाएँगे किन्तु इससे क्या होता है?... कोई आपकी माँ की बेइज़्ज़ती करे आपके मुँह का कौर छीन ले बहू-बेटियों को निर्वस्त्र करे तो आप हार-जीत देखेंगे?... नहीं ना! वे भी भिड़ जाते हैं प्राणप्रण से लड़ते हैं   बचाते हैं  अपनी अस्मिता! ठीक यही हुआ था ठीक यही हो रहा है... फर्क़ सिर्फ़ इतना आया है कि उस घर के जो बाशिन्दे थे उनमें कुछ अब दलाल बन गए हैं... उनके लिए माँ-बेटी-बहू की जगह अपनी ज़िंदगी के अलग तर्क हैं दुश्मनों का साथ देने की अलग दलीलें हैं इसीलिए वे कुर्सियों पर हैं! उन्हें नहीं फ़िक्र कि उनकी कुर्सी के पाये दुश्मन की जंजीरों से बंधे हैं बंधी तो हैं उनकी दलीलें भी... किन्तु उन्हें फर्क़ नहीं पड़ता! उनके पुरखों को पड़ता था यही फर्क़ है- तब में, अब में!..                         ~ अशोक प्रकाश                        ★★★★★★★★