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Showing posts from March, 2021

व्यापक हो रहा है किसान आंदोलन

काले कानून                       रोज़-रोज़ और तेज... और व्यापक हो रहा है  किसान आंदोलन                     दिल्ली बॉर्डर से शुरू हुआ किसान आंदोलन रोज़-रोज़ और तेज, और व्यापक होता जा रहा है। एक तरफ़ जहाँ केंद्र सरकार किसान आंदोलन के प्रति ऐसा व्यवहार प्रकट कर रही है जैसे इस आंदोलन से उस पर कोई फर्क़ नहीं पड़ने वाला, वहीं दूसरी तरफ़ किसान आंदोलन के चार महीने पूरे होने पर 26 मार्च को संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति से यह पता चलता है कि किसान आंदोलन अब और व्यापक होते हुए कस्बों-गाँवों तक फैलने तथा और सुदृढ़ होने लगा है। संयुक्त किसान मोर्चा के नेता/प्रवक्ता डॉ. दर्शनपाल द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति पूरी पढ़ने पर इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है: बढ़ता जा रहा किसान आंदोलन     "सयुंक्त किसान मोर्चा सभी किसानों-मजदूरों व आम जनता को आज के भारत बंद की सफलता की बधाई देता है। गुजरात के किसानों के साथ संघर्ष में पहुंचे किसान नेता युद्धवीर सिंह को गुजरात पुलिस ने गिरफ्तार किया जिसकी हम कड़ी निंदा व विरोध करते है। आज देश के अनेक भागों में भारत बंद का प्रभाव रहा। बिहार में 20 से ज्यादा जि

शहीदों की यादमें एक यात्रा

                                शहीदों के सपनों को        मंजिल तक पहुंचाने की एक जद्दोजहद गाँव-गाँव पहुँचने लगा किसान आंदोलन अब शहीदों की स्मृतियों को संजोते हुए आगे बढ़ने लगा है। इसी क्रम में संयुक्त किसान मोर्चा के राष्ट्रीय आह्वान पर 23 मार्च को एक 'शहीदी यादगार किसान यात्रा' अलीगढ़ से पलवल रवाना हुई। तय कार्यक्रम के अनुसार 12 बजे से किसान-मजदूर-बेरोजगार-नौजवान किसान आंदोलन के कार्यकर्ता अंबेडकर पार्क में जुटना शुरू हो गये। खबर पाते भारी संख्या में पुलिस बल ने अंबेडकर पार्क को घेर लिया। किसानों ने इसका विरोध करते हुए 'हिटलरशाही नहीं चलेगी', 'पुलिस के बल पर यह सरकार- नहीं चलेगी, नहीं चलेगी', 'भगतसिंह के सपनों को- मंजिल तक पहुँचाएंगे', 'लडेंगे, जीतेंगे' आदि नारे लगाए तथा किसान-यात्रा को तय कार्यक्रम के अनुसार जाने देने की मांग करने लगे।   https://youtu.be/C9P1nMfQb48   संयुक्त किसान मोर्चा संयोजक शशिकान्त, अखिल भारतीय किसान सभा के इदरीश मोहम्मद,  बेरोजगार मजदूर किसान यूनियन के सोरन सिंह बौद्ध, भाकियू अम्बावता के जिलाध्यक्ष विनोद सिंह, भाकियू महाश

किसान आंदोलन: मुज़ारा लहर

काले कानून                             मुज़ारा लहर और            सामयिक किसान आंदोलन आधुनिक काल के पंजाब के किसानी आंदोलनों का इतिहास लगभग सवा सौ साल पुराना है। यद्यपि किसान संघर्षों का सिलसिला तो मानव सभ्यता के विकास के साथ पूरी दुनिया में चलता ही रहा है किंतु आधुनिक राज्य व्यवस्था की यूरोपीय अवधारणा के साथ इसमें बदलाव आया। सामंतवाद से अपेक्षाकृत अंग्रेजी उपनिवेशवाद कहीं अधिक शातिराना तरीके अपनाकर राजाओं-महाराजाओं  से लेकर आम किसानों की जमीन-जायदाद हड़पता था। इसे न केवल कानून का जामा पहनाया जाता था बल्कि इसके पक्ष में बहुत सारे तर्क भी गढ़कर आम जनता में प्रचारित-प्रसारित होते थे। 'राजा का ऐसा आदेश है'- कहने की जगह आधुनिक तथाकथित संसदीय व्यवस्था के पैरोकार इसे 'जनता की भलाई के लिए ऐसा आवश्यक है' ही प्रचार करते थे। आज के हमारे शासक इस दृष्टि से उनके अच्छे अनुयायी हैं। अंग्रेजों के ऐसे ही कानूनों के खिलाफ़ औपनिवेशिक काल के पंजाब में 'पगड़ी संभाल जट्टा' तथा 'मुज़ाहरा लहर' आंदोलन चलाए और जीते गए। यही कहना सही होगा कि दिल्ली की सीमाओं सहित पूरे देश में विकसित हो रह

कविता में अलंकार

           काव्य की आत्मा और अलंकार                                                            -  रमेशराज https://youtu.be/pRkt2hryOYw        वैसे तो भामह, दण्डी, उद्भट आदि अलंकारवादियों ने यह बात बलपूर्वक या स्पष्टरूप से नहीं कही है कि अलंकार काव्य की आत्मा होते हैं लेकिन इन आचार्यों की कुछ मान्यताएं ऐसी आवश्य रही हैं, जिनके आधार पर अलंकार को काव्य का सर्वस्व एवं अनिवार्य तत्त्व स्वीकार किया गया है। इसी बात का सहारा लेकर कुछ अलंकारवादियों ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि अलंकार काव्य की आत्मा होता है।  भामह के अनुसार- ‘‘अलंकार काव्य का एक आभूषण तत्त्व होता है जिसके रूपकादि अलंकार काव्य में इस प्रकार आवश्यक हैं, जिस प्रकार किसी नारी का सुन्दर मुख भी आभूषणों के बिना शोभित नहीं होता है।’’  दण्डी कहते हैं-‘‘काव्य शोभा करान् धर्मान् अलंकारान प्रचक्षते’ अर्थात् काव्य-शोभा को धर्म के अलंकार द्वारा ही आलोकित किया जा सकता है। उद्भट ने रस को भी अलंकारों की सीमा में बांधते हुए कहा कि- ' जहां स्वशब्द स्थायी, संचारी, विभाव तथा अभिनय के सहारे   श्रृंगारादि  नाट्य रस स्पष्ट होते हैं वहां रसवद्अ

उन्होंने बदली है यह दुनिया...

  अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च):                 उन्होंने  बदली है यह दुनिया                      वे इसे और बदलेगी!..                                 - ममता शुक्ला                                                      वह ऐतिहासिक दिन था! लेकिन हर दिन की तरह एक दिन में नहीं आया था. इस दिन के लिए न जाने कितने दिन संघर्ष हुआ था. एक समय जिस स्त्री को खरीदने-बेचने की वस्तु उसी तरह समझा जाता था जैसे गुलामों को , जानवरों को...जिसके स्त्रीत्व  का  खरीदारों के लिए कोई  मायने नहीं था, जिसकी आहें, आंसू और असह्य पीड़ा मालिकों के लिए सिर्फ़ उपहास की वस्तु थी, उस स्त्री ने आज के दिन मनुष्य के रूप में जीने का अधिकार हासिल किया था. इसलिए रोज के दिनों की तरह निकलने वाला आज का सूरज कुछ ज़्यादा ही सुन्दर, कुछ ज़्यादा ही लाल था. यद्यपि अनेक संघर्षों के परिणाम-स्वरुप 19वीं सदी के अंत तक न्यूज़ीलैंड और आस्ट्रेलियाई उपनिवेशों के कुछ देशों में महिलाओं को मताधिकार मिल गया था, पर पूरी दुनिया की महिलाओं के लिए इसके कोई मायने नहीं थे. और संघर्ष हुए तो 1939 तक दुनिया के 28 देशों में महिलाओं को मताधिकार मिला. किन्तु