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Showing posts from 2020

रोज़गार की तलाश में...

                                        ऐसे बस गया                                     रसगुल्ला-नगर! रोज़गार की तलाश में लोग क्या-क्या नहीं कर जाते हैं?... जब से #पकौड़ा_रोजगार का जुमला उछला है, लोग मान गए हैं कि उनके सामने #आत्मनिर्भर होने के अलावा आजीविका का और कोई सहारा नहीं! अब इस हाई-वे के किनारे बसे रसगुल्ला नगर को ही देखिए! इसका इससे बेहतर नाम कुछ और नहीं सूझता। कोई और मिठाई नहीं, बस रसगुल्ले ही रसगुल्ले!..इन सभी दुकानों में! हाई-वे के दोनों तरफ। हाई-वे पर आते जाते लोगों/ ग्राहकों को बरबस अपनी ओर खींच लेती ये रसगुल्लों की दुकानें आजीविका चलाने का एक और नज़रिया हैं! सब के सब अपनी तरफ़ से बेहतर से बेहतर रसगुल्ले बनाने की कोशिश करते हैं ताकि आने-जाने वाले ग्राहक पक्के हो जाएं। इलाहाबाद के दक्षिण में चित्रकूट हाई-वे पर एक छोटे से कस्बे घूरपुर के पास बसे-बसते इस रसगुल्ला नगर की कहानी पुरानी नहीं है। पहले जब यहाँ हाई-वे नहीं एक साधारण सी सड़क हुआ करती थी। रेलवे क्रॉसिंग के पास एक छोटी सी गुमटी में एक सज्जन रसगुल्ले सजाते और आने जाने वालों को दोने में रखकर रसगुल्ले बेचते थे। क्रॉसिंग पर कोई

अस्सी पार पिता: तीन कविताएँ

                                                अस्सी पार पिता                     एक: पिता जब अस्सी साल के हुए लड़के से बोले- मैं अब ज़्यादा दिन नहीं रहूँगा... दो बातें गाँठ बाँध ले- पहली बात: घर में लाठी जरूर रखना जानवर जानवर ही होते हैं, उन्हें इंसान मत समझना... व्यर्थ मत मारना लेकिन वक़्त आ पड़े तो मत छोड़ना! दूसरी बात: बंदूक और लाठी में ज़्यादा फर्क़ मत समझना दोनों से जानवर ही नहीं इंसान की भी जान जा सकती है फर्क़ सिर्फ़ इस बात में है... कौन चला रहा है, कैसे चला रहा है, किसके लिए चला रहा है? किराये पर लाठी या बंदूक चलाने वाले हमेशा कमजोर होते हैं, उनकी ताक़त पर भरोसा मत करना! दो: पिता उस पेड़ जैसे ही हैं!... पेड़ अस्सी साल पुराना था उसे लगने लगा था कि किसी भी तेज अंधड़ में वह धराशायी हो जाएगा... टहनियाँ बोलीं ऐसे भी निराश मत होओ तुमने हजारों जीवनदान दिए हैं तुम्हारे बीज हजारों मील तक फैले हैं, उनमें भी तुम हो... पेड़ को लगा सचमुच, मैं और क्या कर सकता था! लोगों ने आश्चर्य से देखा- पेड़ के भीतर से निकल रहे हैं अनगिनत पेड़ हाथ हिलाती निकल रहीं हैं टहनियाँ फूट रही हैं मुस्कराती कोंपलें हरे होने लगे ह

कुछ अलग थी इस बार- गांधी जयंती, शास्त्री जयंती

गांधी-शास्त्री जयंती:                                                                    अलग थी इस बार              महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती! इस बार गाँधी जयंती कुछ अलग थी।... यूँ कहें तो ज़्यादा ठीक होगा कि इस बार गाँधी जयंती उत्सव मनाने वाली, औपचारिकता निभाने वाली न थी!...  लोगों ने इस बार महात्मा गांधी की प्रतिमाओं पर सिर्फ़ फूल और मालाएँ ही नहीं चढ़ाईं, अपने हृदय के आँसुओं से उन्हें धोया भी! इस बार पता नहीं क्या कुछ अलग था गाँधीजी की प्रतिमाओं में कि लोगों को लगा कि यह महात्मा उपाधिधारी प्रतिमा बोल पड़ती तो कितना अच्छा होता! शायद अब असहाय से होने लगे हैं लोग!...उन्हें अपने पर भी विश्वास नहीं रहा, न उन धरना-प्रदर्शनों पर...जिन्हें इस बार गाँधी जयंती पर लोगों ने ज़्यादा किए! इस बार गाँधी जयंती पर कुछ दलों/संगठनों ने मौनव्रत रखने में ही अपनी भलाई समझी!..शायद उनके मन में रहा होगा- किसे सुनाएँ?...कौन सुनेगा?? लेकिन कुछ अन्य संगठनों ने अपनी व्यथा सुनाई!...अपने दर्दे-ग़म का इज़हार किया!.. गाँधी जयंती पर उठीं आवाज़ों में इस बार बच्चियों/महिलाओं पर बलात्कार और हत

#बलात्कार क्यों होते हैं?

नज़रिया:                  बलात्कार और यौन-हिंसा क्यों बढ़ रही है?.. जी, कोई सरल उत्तर नहीं है इसका!...लेकिन वह उत्तर तो नहीं है जो आम तौर पर दिया जाता है और जिसके लिए रोज फाँसी से लेकर अंग-विच्छेदन तक की आदिमयुगीन सलाह से सोशल मीडिया मनोरंजन करता रहता है!.. यह एक सामान्य बात है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। अगर बलात्कार, यौन-हिंसा, बेरोजगारी, अपराध बढ़ रहे हैं और इनमें कोई तारतम्यता है तो इनके कारणों में तारतम्यता होगी।                 एक उदाहरण से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है। हम देखते हैं कि न केवल कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्गों के लोग इसके शिकार होते हैं बल्कि इनके अपराधी भी अधिकांश इन्हीं वर्गों से आते हैं!...क्यों? यही वह पेंच है जहाँ से न केवल इसके कारणों की पड़ताल की जा सकती है बल्कि इसकी रोकथाम के उपाय भी ढूँढे जा सकते हैं। हम देखते हैं कि शिकार अथवा शिकारी उच्च वर्ग के लोग अधिकांशतः इससे बचे होते हैं या इससे बच जाते हैं तो उसका कारण उनमें किसी ब्रह्मचर्य के तेज का होना न होकर अपनी ज़िंदगी के प्रति उनमें जागरुकता और चिंता है। किसी भी ऐसे अपराध में फँसने से होने वाले नफ़े-नुक़सान क

लोक संस्कृति : #मुखौटा #लोक_नृत्य

          लोक संस्कृति और लोक नृत्य: मुखौटा लोकनृत्य                     https://youtu.be/wXfDHjR00mM   देश के #लोकगीत और लोकनृत्य जनता की धरोहर हैं।  इन्हें बचाए रखना,  इन्हें प्रचारित-प्रसारित करना हम सबकी ज़िम्मेदारी है।  दरअसल, हमारे लोकजीवन और #लोक_संस्कृति को विकृत करने  ध्वस्त करने या फिर remix के नाम पर नष्ट कर देने की प्रक्रिया उदारीकरण-वैश्वीकरण की शुरुआत के साथ ही  पिछली शताब्दी में ही तेज हो गई थी...  ताकि विकसित होती उपभोक्ता-संस्कृति को आसानी से लोग स्वीकार कर लें।  हम देखते हैं कि यह कोशिश काफी हद तक सफल भी हो गई/रही हैं।... कैसे बचेगा हमारा #लोकजीवन, हमारी लोक-संस्कृति?  यह सवाल हम सबके सामने है। ... हमारी कोशिश होनी चाहिए कि जिस तरह भी हो, इसे बचाया जाए,  लोगों तक पहुँचाया जाए!...                                 ★★★★★

मैं चींटी हूँ

कविता:                                                      मैं चींटी हूँ...                                     - अशोक प्रकाश मैं चींटी हूँ मैंने कभी नहीं सोचा हाथी बन जाऊँ बड़े होने के घमंड से  फूलूँ, इतराऊँ! मैं छोटी हूँ घमंड आलस्य में कभी नहीं बैठी हूँ मैंने कभी नहीं चाहा मेरा काम कोई दूसरा करे मैं रानी बनी रहूँ दुनिया पर रौब जमाऊँ! तुम तो मनुष्य हो धरती के सर्वश्रेष्ठ प्राणी विकास से कम विनाश नहीं किया तुमने... कैसे मनुष्य हो? कुछ मनुष्यों को धरती रौंदने देते हो, चुप रहते हो क्यों सहते हो?... मैं तुम्हें क्या समझाऊँ! ★★★★★★★

पण्डित जसराज: ख़्याल गायकी के सरताज़

                                      पण्डित जसराज:                   स्वामी हरिदास और तानसेन की परंपरा के                                      आधुनिक साधक अंग्रेज़ों का जमाना था। पूरे देश पर उनका क़ब्ज़ा था। सब जगह उन्हीं की तूती बोलती थी, लेकिन एक जगह ऐसी थी जहां अंग्रेजों की एक न चलती थी। वह जगह थी शास्त्रीय संगीत!...संस्कृत भाषा और साहित्य पर भी यूरोपीय उपनिवेशवादियों के समय में उनके कुछ विद्वानों ने अपनी धाक जमाने की कोशिश की, उसे मनोयोग से सीखा और उसमें निहित ज्ञान-विज्ञान का सदुपयोग किया किन्तु भारतीयों में उसके मिथकों, अंधविश्वासों और पाखण्डों को स्थापित किया। किन्तु शास्त्रीय संगीत पर उनका जोर ज़्यादा न चल सका, खासतौर पर गायकी पर!  पण्डित जसराज उस दौर की उपज थे जो राजनीतिक और सामाजिक तौर पर देश में आंदोलनों और विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं का दौर था। उनकी उम्र केवल तीन-चार साल की थी जब उनके पिता पण्डित मोतीराम का निधन ही गया। 28 जनवरी 1930 को जन्मे पण्डित जसराज को यद्यपि अपने पिता के मेवाती संगीत घराने का वरदहस्त प्राप्त था, किन्तु एक पितृहीन बालक को वास्तव में तो अपना भविष्

आप ईमानदार हैं...

एक कविता और:                             आप ईमानदार हैं.. अच्छी बात है  आप ईमानदार हैं... इसीलिए आपके ज़ुकाम में अस्पताल में आपके इक्कीस तीमारदार हैं!... आपका धर्म ईमानदार है आपकी जाति ईमानदार है आपका गोत्र ईमानदार है आपकी पाँति ईमानदार है! ईमानदारी आपकी रगों में दौड़ती है जैसे खून के साथ दौड़ता है हीमोग्लोबिन- आपकी ईमानदारी कभी भ्रष्ट नहीं होती है!... हुज़ूर! आप हत्याएँ भी ईमानदारी से करवाते हैं, हत्याओं को विरोधियों का वध बताते हैं!...                             ★★■★★

प्राकृतिक देव: मूल खोजो, सत्य मिलेगा!

प्रकृति के देवता:                     महामृत्युञ्जय मंत्र   वैदिक मंत्र प्रायः प्राकृतिक देवताओं की स्तुतियों के मंत्र हैं। ऋषि जगत से प्राप्त ज्ञानार्जन द्वारा प्राकृतिक तत्त्वों से अपनी रक्षा की कामना करते हैं। इन प्राकृतिक तत्त्वों या देवताओं में वे अलौकिकता यानी दिव्यत्व का भी आभास करते हैं। वे इन भौतिक से आधिभौतिक, अलौकिक अपरंच आध्यात्मिक तत्त्वों को आत्मसात कर उनसे प्रेरणा लेने की कामना करते हैं। ऋषियों की इसी विशेषता के चलते उन्हें 'ऋषयः मन्त्र दृष्टारः' अर्थात् मन्त्रों की केवल रचना करने वाले नहीं, उन्हें देखने वाले, समझने या अनुभव करने वाले कहा गया है। ऋषियों द्वारा रचे गए ऐसे मन्त्रों में 'महामृत्युंजय' मन्त्र का बड़ा आदर है। इतना कि उनका 'जाप' करने से मृत्युभय से जीत जाने की कामना की गई है। मृत्युभय से इसी मुक्ति की कामना, जो कि एक प्राकृतिक कामना या इच्छा है, इस मंत्र को हिंदुओं का एक प्रमुख मंत्र माना गया है। ऐसा माना जाता है कि इसके जाप से मृत्युभय नहीं सताता, नहीं रह जाता! इसे 'त्रयम्बक मंत्र' (तीसरी आंख  अर्थात दिमाग खोलने वाला मंत्र)

विकास_की_कहानी

                                                     'विकास' की कहानी हमारे आसपास कितना कुछ ऐसा घटित हो रहा जो नाक़ाबिले-बर्दाश्त है!...लेकिन इससे भी ज़्यादा बुरा है, किसी पीड़ित की बात न सुना जाना। कभी-कभी लगता है कि यह दुनिया बड़ी तेजी से पीछे लौट रही है। कितना पीछे, कहा नहीं जा सकता। एक भौतिकी के पीएचडी वगैरह डिग्री धारक प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि वो डार्विन के विकास के सिद्धांत को नहीं मानते। नहीं मानते कि दुनिया क्रमशः विकसित हो रही है और पीछे नहीं लौटेगी!...वे मानते हैं कि 5000 साल पहले की दुनिया ज़्यादा विकसित थी। आप क्या कर लेंगे?...आप क्या कर सकते है जब यह मानने वाले करोड़ों में हों पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है? और भी मुश्किल तब है जब प्रोफेसर साहब सहित तमाम सारे लोग पृथ्वी और शेषनाग कथा पर विश्वास के साथ-साथ सभ्यता के विकास का आनंद उन लोगों से हजारों गुना ज़्यादा लेते हों जो यह मानते हैं कि मिथक-कथाएँ और कुछ भी हों, सभ्यता के विकास की कहानियां नहीं हैं!.. लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। सभ्यता के विकास की पूँजीवादी अवधारणा। इस अवधारणा में शासक पूँजी यह चाहती

#Corona_Class: हिंदी निबन्ध-1

                              निबन्ध शब्द की व्याख्या और                        प्रारम्भिक (भारतेंदु युगीन) हिंदी निबन्ध 'निबन्ध' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की मूल धातु 'बन्ध' में 'नि' उपसर्ग लगाकर दो प्रकार से मानी जाती है- 1. नि+बन्ध+ल्युट् - 'निबध्यते अस्मिन् इति अधिकरणे निबन्धम्' अर्थात् जिसमें विचार बांधा या गूंथा गया हो ऐसी रचना, 2. नि+बन्ध+घञ् - निश्चितार्थेन विषयम् अधिकृत बन्धनम् - अर्थात निश्चित तात्पर्य से विषय को विचारों की श्रृंखला में बांधना। यद्यपि 'निबन्ध' शब्द का प्रयोग बहुत पहले से होता रहा है, किन्तु वर्तमान काल में यह मुख्यतः अंग्रेजी के 'Essay' के अर्थों में प्रयुक्त होता है। आज हिंदी निबन्ध शब्द से तात्पर्य है- 'वह विचारपूर्ण लेख जिसमें किसी विषय का सम्यक विवेचन किया गया हो'(- 'बृहत् हिन्दी कोश' )। 'शब्द कल्पद्रुम' के अनुसार 'बद्धनातीति निबन्धनम्' अर्थात जिससे बन्ध जाएं वही निबन्ध है। ★'कुतार्किका ज्ञाननिवृत्तिहेतुः करिष्यते तस्यमया निबन्धः..' अर्थात कुतर्कों से ज्ञान की मुक्ति

डिज़िटल हिंदी: समस्याएँ और निदान

हिंदी का तकनीकी ज्ञान हिन्दी भाषा और साहित्य के विद्यार्थियों के लिए आवश्यक जानकारी: हिंदी में काम करने में तकनीकी सुविधाएं                                               -  क्षेत्रपाल शर्मा                                          19/17,  शांतिपुरम, सासनी गेट, आगरा रोड,                                                                             अलीगढ़, उत्तर प्रदेश   सबसे पहले हम एक भ्राति   का निवारण जरूरी समझते हैं ,  लोगों का यह कहना है देवनागरी भाषा को कंप्यूटर की भाषा के रूप में    स्वीकार किया गया है। पहले तो हम यह जान ले  कि मानवीय  भाषा और मशीन की भाषा में कोई  तादात्म्य  नहीं होता।  दूसरे यह भी समझ  लें    कि   कंप्यूटर की भाषा में  क्या  है,  केवल  देवनागरी के फार्मूला  को ही लिया गया है।  हलंत,  स्वर और व्यंजन का कॉन्बिनेशन है। संस्कृत भाषा जैसी अन्य भाषा नहीं है जिसका हर शब्द अर्थवाही है। जैसे- ग: ग से- गमन, च: च से- और आदि!  संस्कृत के फॉन्ट  devnagarifonts.net  से मिल सकते हैं ।   कंप्यूटर पर हिन्दी सक्रिय करने के लिए  राजभाषा विभाग की साइट पर हिन्दी टूल्स पर जाकर विंडोज

नरक की कहानियाँ: 2~बनो दिन में तीन बार मुर्गा!..

व्यंग्य-कथा :                       दिन में तीन बार मुर्गा बनने का आदेश:                                 और उसके फ़ायदे                                                     - अशोक प्रकाश     मुर्गा बनो जैसे ही दिन में कम से कम तीन बार मुर्गा बनने का 'अति-आवश्यक' आदेश निकला, अखबारों के शीर्षक धड़ाधड़ बदलने लगे। चूंकि इस विशिष्ट और अनिवार्य आदेश को दोपहर तीन बजे तक वाया सर्कुलेशन पारित करा लिया गया था और पांच बजे तक प्रेस-विज्ञप्ति जारी कर दी गई थी, अखबारों के पास इस समाचार को प्रमुखता से छापने का अभी भी मौका था। एक प्रमुख समाचार-पत्र के प्रमुख ने शहर के एक प्रमुख बुद्धिजीवी से संपर्क साधकर जब उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही, उन्होंने टका-सा जवाब दे दिया। बोले- "वाह संपादक महोदय, वाह!...आप चाहते हैं कि इस अति महत्वपूर्ण खबर पर अपना साक्षात्कार मैं यूं ही मोबाइल पर दे दूँ!....यह नहीं होगा। आपको मेरे घर चाय पीनी पड़ेगी, यहीं बातचीत होगी और हाँ, मेरे पारिश्रमिक का चेक भी लेते आइएगा ताकि साक्षात्कार मधुर-वातावरण में स

मधुशाला के मधुमिलिंद हे!

कटूक्ति:                              हे हे अति-माननीयों!... अर्थात् - हे मधुशाला के मधु-मिलिंद यानि शराब की तलाश में इस लॉकडाउन में भी निर्भय विचरण करते रहने वाले भ्रमर-बंधुओं,   शराब जिसे तुम सोमरस कहकर अलौकिक आनन्द की अनुभूति करते हो, तुम्हें मुबारक़ हो! तुम्हारी हर जगह जय है, मैं जय हो कहकर लज्जित हूँ!... आखिर ये तो बताओ, इतना दिन धीरज कैसे धारण किए रहे?...आप यत्र-तत्र-सर्वत्र हैं, हर जगह हैं। आपने पहले ही क्यों अपने दिव्य प्रभाव का इस्तेमाल कर मधुशालाएँ नहीं खुलवा लीं?...जबकि दवा की दुकानें खोलने जाते हुए भी रास्ता डंडा लेकर भयभीत करता है, आपके लिए सब कुछ सुलभ है।... हे शराब के शौकीन अति-माननीयों! पत्नियों, लड़कियों, ठेले वालों, सब्ज़ी वालों, नाली-नालों को बचाए रखना! हे संप्रभुओं, आपकी जय-जयकार हो रही है, और भी हो!...किसी गाड़ी को न चकनाचूर कर देना प्रभु! हम जानते हैं कि आप न होते तो अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी होती। इसीलिए आपके कुछ अति-प्रेमी लोग कहने लगे हैं- 'शराब बेचने पर भी अगर  अर्थव्यवस्था नहीं सुधरे तो,  चरस, गांजा, अफीम, हेरोइन आदि पर भी विचार करन

मई-दिवस: इससे पहले कि...

●●●● मई दिवस पर:                                 इससे पहले कि...                                                   - अशोक प्रकाश    इससे पहले कि वे जानवर जैसी ज़िंदगी के लिए मजबूर कर दें दुनिया को समझो और देखो कि इंसान कीड़ा-मकोड़ा, जानवर नहीं ज्ञान-विज्ञान के सहारे  इन पर विजय पाने वाला धरती का सबसे ताकतवर प्राणी है... इससे पहले कि उनके बनाए, बताए, समझाए भूत-प्रेत, ओझा-सोखा, भगवान विषाणु-कीटाणु-शैतान  तुम्हें निगल जाएँ सत्य का हथौड़ा उठाओ और  प्रहार करो उस अपराधी दिमाग पर जो पूँजी के हथियार से  खत्म कर देना चाहता है सारी दुनिया जिसमें इंसान भी है और विज्ञान भी  सिर्फ़ अपने लालच और मुनाफ़े की हवस के लिए.... इससे पहले कि वे तहस-नहस कर दें धरती और उसकी सारी खूबसूरती इनकार कर दो उनकी सारी शर्तें  उघाड़ दो उनके अपराध उसकी सारी परतें जान और मान लो कि बढ़ती मुसीबतों का कारण तुम खुद नहीं, तुम्हारी मेहनत नहीं उनके मन का विकार- तुम्हारे ज्ञान पर छाया अंधकार है.... इससे पहले कि वे तुम्हें फिर जाति-धर्म-क्षेत्र-देश के नाम पर बहकाएँ तुम्हारी मेहनत-मजू