'विकास' की कहानी
हमारे आसपास कितना कुछ ऐसा घटित हो रहा जो नाक़ाबिले-बर्दाश्त है!...लेकिन इससे भी ज़्यादा बुरा है, किसी पीड़ित की बात न सुना जाना। कभी-कभी लगता है कि यह दुनिया बड़ी तेजी से पीछे लौट रही है। कितना पीछे, कहा नहीं जा सकता। एक भौतिकी के पीएचडी वगैरह डिग्री धारक प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि वो डार्विन के विकास के सिद्धांत को नहीं मानते। नहीं मानते कि दुनिया क्रमशः विकसित हो रही है और पीछे नहीं लौटेगी!...वे मानते हैं कि 5000 साल पहले की दुनिया ज़्यादा विकसित थी। आप क्या कर लेंगे?...आप क्या कर सकते है जब यह मानने वाले करोड़ों में हों पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है? और भी मुश्किल तब है जब प्रोफेसर साहब सहित तमाम सारे लोग पृथ्वी और शेषनाग कथा पर विश्वास के साथ-साथ सभ्यता के विकास का आनंद उन लोगों से हजारों गुना ज़्यादा लेते हों जो यह मानते हैं कि मिथक-कथाएँ और कुछ भी हों, सभ्यता के विकास की कहानियां नहीं हैं!..
लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। सभ्यता के विकास की पूँजीवादी अवधारणा। इस अवधारणा में शासक पूँजी यह चाहती है कि जो भी विकास हुआ है या हो सिर्फ़ उसके लिए, उसके मुनाफ़े के लिए हो। बाक़ी तुम कलावा या रक्षा-सूत्र पहनकर अपनी रक्षा की चिंता करते-करते 12 घण्टे कम्प्यूटर पर बैठे इस पूँजी का विकास करो या बिना पहने, यह तुम जानो। यह विकास पूंजीपतियों के विकास के साथ प्रकृति, मनुष्य, जीवजंतु किसी के भी विनाश को विकास ही कहता है!...
पता नहीं कब क्या हो जाएगा या हो पाएगा, पर इतना जरूर है कि अगर मानव-सभ्यता के संघर्षों और जीतों से सबक लेकर लोग सक्रिय नहीं हुए तो अफगानिस्तान-इराक़-सीरिया जैसी हालातों में भी हम पहुँच सकते हैं। काश, यह झूठ सिद्ध हो!
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