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Showing posts with the label व्यंग्य

क्या आप मुर्गा नहीं हैं?

                मत बनिए मुर्गा-मुर्गी! एक आदमी एक मुर्गा खरीद कर लाया।.. एक दिन वह मुर्गे को मारना चाहता था, इसलिए उस ने मुर्गे को मारने का बहाना सोचा और मुर्गे से कहा, "तुम कल से बाँग नहीं दोगे, नहीं तो मै तुम्हें मार डालूँगा।"  मुर्गे ने कहा, "ठीक है, सर, जो भी आप चाहते हैं, वैसा ही होगा !" सुबह , जैसे ही मुर्गे के बाँग का समय हुआ, मालिक ने देखा कि मुर्गा बाँग नहीं दे रहा है, लेकिन हमेशा की तरह, अपने पंख फड़फड़ा रहा है।  मालिक ने अगला आदेश जारी किया कि कल से तुम अपने पंख भी नहीं फड़फड़ाओगे, नहीं तो मैं वध कर दूँगा।  अगली सुबह, बाँग के समय, मुर्गे ने आज्ञा का पालन करते हुए अपने पंख नहीं फड़फड़ाए, लेकिन आदत से, मजबूर था, अपनी गर्दन को लंबा किया और उसे उठाया।  मालिक ने परेशान होकर अगला आदेश जारी कर दिया कि कल से गर्दन भी नहीं हिलनी चाहिए। अगले दिन मुर्गा चुपचाप मुर्गी बनकर सहमा रहा और कुछ नहीं किया।  मालिक ने सोचा ये तो बात नहीं बनी, इस बार मालिक ने भी कुछ ऐसा सोचा जो वास्तव में मुर्गे के लिए नामुमकिन था। मालिक ने कहा कि कल से तुम्हें अंडे देने होंगे नहीं तो मै तेरा

जातिवाद दूर करने का एक अचूक नुस्खा

                 हे, हे लक्ष्मी के वाहन!  मुझे लगता है जातिवाद दूर करने का एक बढ़िया सूत्र अब तक लोगों को मालूम नहीं है। यह सूत्र मानने और अपनाने से कम से कम सभी जातियाँ एक ही संबोधन से जानी जाएँगी।...प्रायः हर धर्म-जाति के लोग कभी न कभी इसका इस्तेमाल कर खुश होते हैं। खासकर तब जब यह किसी और के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हो! फिर भी इस अखिल धरा पर किसी न किसी रूप में कभी न कभी सभी इस लोकप्रिय संबोधन से नवाज़े गए हैं।        सभी प्रकार के जातिवादी लोग (पब्लिक/राजनीति में सभी जाति के लोग खुद को जातिवादी न कहकर बाकी सबको जातिवादी कहते हैं!) अगर अपनी जाति -'उल्लू का पट्ठा' लगाने लगे तो लोगों को देश की 3000 से अधिक जातियों के नाम से जानने की एक ही जाति 'उल्लू का पट्ठा' नाम से जाना जाएगा। इससे जातिवाद के खात्मे में कुछ तो मदद मिलेगी! मतलब 2999 जातियाँ खत्म हो जाएंगी।               वैसे यह 'जाति' शब्द भी 'ज' क्रियाधातु से व्युत्पन्न हुआ है जिससे 'पैदा होना'..'इस तरह पैदा हुआ' आदि का बोध होता है। उदाहरणार्थ आदमी आदमी की ही तरह पैदा होता है, सुअर या उल्

नरक की कहानियाँ: 3~ महात्मा के कारनामें!

नरक की  कहानियाँ :  दो:                      महात्मा नहीं परमात्मा!. .                     (कॉमा अपने आप लगा लीजिए) 【 पिछले अंश में  आपने महात्माजी का संक्षिप्त परिचय पाया था। आपने जाना था कि महात्माजी कोई साधारण आदमी नहीं हैं। उनके बारे में तरह-तरह की धारणाएँ हैं~ कि वे पहुँचे हुए आदमी हैं, धूर्त हैं, सीआईए के एजेंट हैं...आदि-आदि। लेकिन तब सब चौकन्ने हो गए जब महात्माजी ने कहा कि  "सावधान कर रहा हूँ, बैंक में रखा अपना सारा पैसा निकाल लो! बैंक में रखा पैसा अब सुरक्षित नहीं रह गया है!. ." अब आगे.. 】 ~~~          "क्यों?..क्यों महात्माजी? हम तो बैंक में पैसा सुरक्षित रखने के लिए ही डालते हैं और आप कह रहे हैं कि वहाँ पैसा रखना सुरक्षित नहीं रह गया है!"..                                                                         मुझे दो दिन पहले रग्घूचचा की बात ध्यान हो आई। उन्होंने कहा था कि महात्मा पर कभी विश्वास न करना, पूरा रँगा सियार है। चोरों से मिला हुआ है और इसका असली काम ठगी है। महात्मई भेस धारन किए घूमता है लेकिन लोगों को लुटवाता हैं। लुटेरे इसे कमीसन देते हैं!.

तो महात्माजी से परिचित नहीं हैं आप?

स्वर्ग की कहानियाँ :   एक:                 महात्माजी : परिचय         मतलब, आप भी जान लीजिए! महात्माजी कभी झूठ नहीं बोलते!.... यह अलग बात है कि आम लोग उनकी भाषा नहीं समझते और अर्थ का अनर्थ करते हैं। महात्माजी के प्रवचनों को सुनने और समझने वाले प्रायः तीन प्रकार के लोग हैं। पहले नम्बर पर वे लोग हैं जो उनका मंतव्य समझ नहीं पाते और उनकी सत्यवादिता को मिथ्या-प्रलाप मान लेते हैं। ऐसे लोगों को आप उनका विरोधी या उनसे जलने वाला मान सकते हैं। दूसरी तरह के वे लोग हैं जो उनके मुखारविन्द से निकले वचनों का सही-सही अर्थ जानते हैं और इसे भविष्यवाणी मानकर सावधान हो जाते हैं। ऐसे लोग महात्माजी को कबीरदास के समकक्ष मानते हैं और कहते हैं- 'कबीरदासजी की उल्टी बानी, बरसै कम्बल भीजै पानी।' लेकिन सबसे समझदार तीसरी तरह के लोग हैं जो एक न एक दिन खुद भी महात्माजी जैसा बनने का सपना पालते हैं। उन्हें जन सामान्य भक्त कहता है लेकिन अपने करतबों से ऐसे लोगों ने दिखा दिया है कि वे भक्त नहीं बल्कि महात्माजी के सहभागी हैं। अक्सर ऐसे लोग फ़ायदे में ही रहते देखे जाते हैं। लेकिन इस तीसरे वर्ग में एक उपवर्ग भी ह

हम बैठोल हैं!...

                                  बैठोल-शास्त्र   जी, हम बैठोल हैं! लेकिन कोई कुछ काम करता दिखता है तो हमें उसमें हजार कमी दिख जाती है। जैसे कि यह बन्दा यह काम कर ही क्यों रहा है जब हम नहीं कर रहे? जरूर कोई बेईमानी का काम होगा! क्योंकि सबसे ईमानदारी का काम तो कुछ न करना है। उसे कोई बड़ा मुनाफ़ा हो रहा होगा...कोई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय गिरोह से जुड़ा होगा। क्या पता किसी पार्टी के इशारे पर यह सब काम कर रहा हो। आखिर, इसके पास पैसा कहाँ से आता है यह सब करने, दौड़ने-धूपने का जबकि हम घर में बैठे-बैठे भी कंगाली महसूस करते हैं?...           सोचो तो, हम एकदम सही सोचते हैं! पूरी दुनिया भी तो ऐसा ही सोचती है। बिना फायदे के, मुनाफ़े के कोई कहीं कुछ काम करता है? इसलिए जरूर कोई ऐसा काम कर रहा है, जनता का-किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों को एकजुट करने, उन्हें जोड़ने के लिए चप्पलें घसीट रहा है तो कोई बहुत बड़ा फायदा, बल्कि स्वार्थ होगा! देखिए न, हम निःस्वार्थ भाव से अपने घर में बैठे हैं। यहाँ तक कि जब तक मजबूरी न हो जाए, घर में झगड़े की नौबत न आ जाए, घर के बाहर पाँव रखना भी गवारा नहीं करते! आखिर दुनिया मायाजाल ह

हे प्रभु, हम सब रामभरोसे!..

                         रे मन, तू रह रामभरोसे !                                   साभार: अमर उजाला, 18 मई, 2021 सचमुच, मुझे कष्ट  है!..जब देखो तब रामभरोसे! कहने वालों को 'रामभरोस' पर कोई शंका है क्या? हमारे इलाक़े में तो लोग इस शब्द पर इतना भरोसा करते हैं कि कई तो अपने बाल-बच्चों का नाम ही रामभरोस या रामभरोसे रख देते हैं। फिर किसी असफलता के बाद 'सब कुछ रामभरोसे..' कहने का क्या मतलब? दरअसल, पूरा देश अपरंच पूरा विश्व किंवा अखिल ब्रह्माण्ड रामभरोसे है तो किसी असफलता पर रामभरोसे कहना भरोसा पर भरोसा न जताने जैसा है! लोग गरीब हैं तो रामभरोसे कह दिया, लोग बीमार हैं तो रामभरोसे कह दिया! लोगों की नौकरी नहीं लगी, तनख्वाह नहीं मिली, लोगों की पेंशन बंद हुई, कम्पनी ने छह महीने बाद छंटनी कर दी, नोटबन्दी हुई, नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद मजदूर ट्रेन-बस रोक दिए जाने के चलते  पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर सड़कों पर चले; लोगों ने कहना शुरू दिया- 'भइया, अब तो सब कुछ रामभरोसे ही है!' क्यों भाई, क्यों? तुमने पहले से ही रामभरोसे नहीं थे क्या? अब सरकार को कोस रहे हो! भरोसा तूने किया, तोह

नरक की कहानियाँ: 2~बनो दिन में तीन बार मुर्गा!..

व्यंग्य-कथा :                       दिन में तीन बार मुर्गा बनने का आदेश:                                 और उसके फ़ायदे                                                     - अशोक प्रकाश     मुर्गा बनो जैसे ही दिन में कम से कम तीन बार मुर्गा बनने का 'अति-आवश्यक' आदेश निकला, अखबारों के शीर्षक धड़ाधड़ बदलने लगे। चूंकि इस विशिष्ट और अनिवार्य आदेश को दोपहर तीन बजे तक वाया सर्कुलेशन पारित करा लिया गया था और पांच बजे तक प्रेस-विज्ञप्ति जारी कर दी गई थी, अखबारों के पास इस समाचार को प्रमुखता से छापने का अभी भी मौका था। एक प्रमुख समाचार-पत्र के प्रमुख ने शहर के एक प्रमुख बुद्धिजीवी से संपर्क साधकर जब उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही, उन्होंने टका-सा जवाब दे दिया। बोले- "वाह संपादक महोदय, वाह!...आप चाहते हैं कि इस अति महत्वपूर्ण खबर पर अपना साक्षात्कार मैं यूं ही मोबाइल पर दे दूँ!....यह नहीं होगा। आपको मेरे घर चाय पीनी पड़ेगी, यहीं बातचीत होगी और हाँ, मेरे पारिश्रमिक का चेक भी लेते आइएगा ताकि साक्षात्कार मधुर-वातावरण में स

हम #रोहिंग्या

                                हम देख्या जग सारा!..                                                  - अशोक प्रकाश हम सारी दुनिया देखते-देखते यहाँ पहुँचे हैं!..ईरान आर्यान है और क्राइस्ट कृष्णावतार!... हम सब जानते हैं। हमसे ज़्यादा जबान मत लड़ाना!...सो, जो बोलें सो सुनो! जब घुट्टी में पिलाए गए धार्मिक प्रपंचों को सौ फीसदी झूठ पाकर भी हम दिन-रात उन्हीं की पूजा-अर्चना में लगे रहते हैं, अपने सारे कष्टों का कारण अपने कर्मों में और निवारण ऊपर वाले में देखते हैं तो किसी तर्क-वितर्क का हम पर असर नहीं पड़ने वाला!..  हम भक्तप्राण लोग हैं और अपने आराध्य हनुमानजी की कृपा से ही हमने सारी पदप्रतिष्ठा पाई है, ऐसा मानते हैं। हम भाग्यशाली हैं और भाग्य ने ही हमें सब कुछ दिया है। तुम भी परमपिता परमेश्वर की शरण में जाओ और मुसलमान हो तो बेनागा पांचों वक़्त नमाज़ पढ़ो, जिस लायक होओगे,  ऊपर वाला देगा!...            जब उसकी मर्जी के बगैर पत्ता तक नहीं हिल सकता तो संविधान, अम्बेडकर, नेहरू, मोदीशाह सब उसी के बनाए हैं और उसी के इशारे पर अपना काम करते हैं!...हमें न तो किसी रोजी-रोज़गार की जरूरत है, न