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हिंदी स्नातक पाठ्यक्रम: सेमेस्टर सिस्टम की विडम्बनाएँ

स्नातक हिंदी प्रथम वर्ष प्रथम सत्र                    हिन्दी साहित्य:         नए पाठ्यक्रम की विडम्बनाएँ पूरे देश में  नई शिक्षा नीति  लागू करने की घोषणा के साथ विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम तय करने में साहित्य सम्बन्धी पाठ्यक्रम तय करना सम्भवतः सबसे दुरूह रहा होगा। कारण, साहित्य का अध्ययन सामाजिक चेतना की माँग पर आधारित होना चाहिए, न कि मात्र नौकरी मिलने/पाने की सम्भावनाओं पर आधारित। साहित्य कोई तकनीकी ज्ञान नहीं है, न उसे ऐसा समझा और विद्यार्थियों को परोसा जाना चाहिए। परन्तु बढ़ती बेरोजगारी से निपटने की आकांक्षा ने साहित्य को भी इसमें घसीट लिया है। इसलिए  साहित्य का पाठ्यक्रम भी सामाजिक चेतना का विकास  पर आधारित न होकर  बाज़ार की माँग के अनुरूप बनाया गया। लगता है पाठ्यक्रम मनीषियों ने जैसे यह मान लिया है कि सामाजिक चेतना विकसित करने का काम राजनीतिक पार्टियों का है।           उदाहरण स्वरूप उत्तरप्रदेश के हिंदी विषय का स्नातक प्रथम वर्ष का पाठ्यक्रम देखें तो लगता है कि इसमें हिंदी साहित्य की अपेक्षा  हिंदी का तकनीकी ज्ञान ही महत्वपूर्ण माना गया है। विडम्बना यह है कि स्नातक स्तर पर ही

नाथ-सम्प्रदाय और गुरु गोरखनाथ का साहित्य

स्नातक हिंदी प्रथम वर्ष प्रथम सत्र परीक्षा की तैयारी नाथ सम्प्रदाय   गोरखनाथ         हिंदी साहित्य में नाथ सम्प्रदाय और             गोरखनाथ  का योगदान                                                     चित्र साभार: exoticindiaart.com 'ग्यान सरीखा गुरु न मिल्या...' (ज्ञान के समान कोई और गुरु नहीं मिलता...)                                  -- गोरखनाथ नाथ साहित्य को प्रायः आदिकालीन  हिन्दी साहित्य  की पूर्व-पीठिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।  रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को 'आदिकाल' की अपेक्षा 'वीरगाथा काल' कहना कदाचित इसीलिए उचित समझा क्योंकि वे सिद्धों-नाथों की रचनाओं को 'साम्प्रदायिक' रचनाएं समझते थे। अपने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में वे लिखते हैं कि "अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है।..." उन के अ नुसार- 'देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की काव्यभाषा' क