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Showing posts from 2018

किसानों का 'दिल्ली चलो!'

प्रेस-विज्ञप्ति:                           29-30 नवम्बर दिल्ली चलो! मोदी सरकार द्वारा किसानों के साथ की गयी धोखाधड़ी के खिलाफ देश भर से किसानों का “दिल्ली मार्च”: साथियों! 2014 के लोकसभा चुनाव में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने देश के किसानों से कर्ज माफी और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के अनुरूप फसलों का डेढ़ गुना दाम देने का वायदा किया था. यही नहीं उन्होंने देश के लोगों को अच्छे दिन लाने का वायदा भी किया था. पर अपने साढे चार साल के शासन में इस सरकार ने न सिर्फ देश के किसानों के साथ खुला धोखा किया बल्कि अपनी कारपोरेट परस्ती के कारण आज देश को आर्थिक कंगाली के कागार पर खड़ा कर दिया है. जो मोदी सरकार घाटे की खेती के कारण आत्महत्या को मजबूर देश के किसानों की कर्ज माफी को तैयार नहीं है, वही सरकार देश के सभी संशाधनों पर कब्जा जमा कर अति मुनाफ़ा लूट रहे देश के बड़े पूंजीपतियों का साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए का बैंक कर्ज इसी साल बट्टे खाते में डाल चुकी है. इस सरकार ने अपने एक चहेते पूंजीपति के लिए जहां रफाल सौदे में महाघोटाला कर देश को चूना लगाया है, वहीं इनका खु

Joint Forum for Movement on Education Convention:

हे राम! हाय राम!!...

  हे राम! हाय राम!!...                                                - अशोक प्रकाश हे राम! महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि तुम कब थे? या तुम नहीं थे! महत्त्वपूर्ण यह है कि तुम हो... कहाँ हो? 'रामायण' में, 'उत्तर राम चरितं' में, कबीर की साखियों और पदों में, 'राम चरित मानस' में, 'कम्बन रामायण' में, 'रामचंद्रिका' में, 'मेघनाथ वध काव्य' में, रवींद्र के 'काब्बेर उपेक्षिता' में, महावीर प्रसाद द्विवेदी के- 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता' में, मैथिली शरण गुप्त के 'साकेत' में, निराला की- 'राम की शक्तिपूजा' और 'तुलसीदास' में, ललई यादव की 'सच्ची रामायण' में, नरेन्द्र कोहली की 'रामकथा' में, भगवान सिंह के 'अपने-अपने राम' में, रामानन्द सागर के 'रामायण' में, चंदन एन सिंह लिखित- जी-टीवी के 'रावण' में, मणिरत्नम की फ़िल्म 'रावण' में... हे राम!... तुम कहाँ-कहाँ हो?.. कैसे-कैसे हो?... तुम हो तो रावण भी है रामराज है तो रावणराज भी है... न जाने कितने लोग दिहाड़ी न पाने पर

Higher Education:

             Corporatization of Higher Education                                                   System                                          - SECRETARY, AIFUCTO The government of India(MHRD) has brought out a draft bill to scrap the present University Grants Commission and to substitute it with a Higher Education Commission of India (HECI).The UGC was formed in 1956 in the back ground of the ideals enshrined in the Indian Constitution duly reflected in the observation of the first National Commission on Education headed by the erudite scholar Dr.Sarvapalli Radhakrishan.They formulated the foundation stone of our education system on the ideals of democracy,socialism,secularism and scientific thought. After wide & extesive discussion across the country for a considerable period, a consensus was reached and a legislation for UGC came into light in 1956.Thus The constitution of UGC was the reflection of the concept of a welfare state.Keeping in view the mandate of the

पुरानी पेंशन बहाली आंदोलन:

      पुरानी पेंशन बहाली तय करेगी कि केंद्र सरकार प्रजातांत्रिक है                                            या                      बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कब्जे में!...                                         प्रस्तुति: विजय कुमार बन्धु               90 के दशक में उदारीकरण का दौर भारत मे आरंभ हुआ। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में पैर पसारने के लिए लालायित होने लगी। वे देश में अपने हित साधने के लिए लिए केंद्र सरकार के ऊपर दबाव बनाने लगे और कामयाब भी हुए। उदारीकरण के दौर का पहला बड़ा शिकार केंद्र और राज्य के लगभग 50 लाख शासकीय कर्मचारी हुए।            बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने दबाव समुह के माध्यमो से केंद्र सरकार के कान भर दिए की शासकीय कर्मचारियों को दी जानेवाली पेंशन/पारिवारिक पेंशन से सरकार पर बोझ बढ़ा रहा है। इसे हमें सौंप दिया जाए साथ ही इससे होने वाले लाभ केन्द्र सरकार को अतिरंजित वर्णन कर बता भी दिये। इसके स्थान पर न्यू पेंशन स्कीम की अवधारणा को रखा एवम बढ़ा-चढ़ाकर बता दिया कि भावी कर्मचारियों इससे क्या-क्या लाभ होंगे।                   उदारीकरण के जनक प्रधानमंत्री

मन्त्र की शिक्षा:

                     विद्यालयों में अनिवार्य  गायत्री-मन्त्र                           अंधविश्वास का विनाश या विकास               क्या आप   'आइए, अंधविश्वास खत्म करें! ' के दिव्य उद्घोष के साथ अंधविश्वास फैलाने का 'श्रीगणेश' कर सकते हैं?...  उत्तर देने या हाँ-ना कहने के पहले कुछ देर  सोचिए जरूर!                 क्या उत्तर मिला?...              जी, मुझे तो इसका उत्तर 'हाँ!' मिला है। मिला ही नहीं, बाकायदे घोषणा की गई है, आदेश निकाला गया है कि अंधविश्वास से लोगों को बचाने के लिए लोगों को 'गायत्री मंत्र' का जाप करना होगा!...वह भी बच्चों को! ये कौन सी उलटबांसी है? कहते हैं कि किसी जमाने में लोग मन्त्र पढ़कर आग जला देते थे, पानी बरसा देते थे, तूफान ला देते थे!...क्या आप इस पर विश्वास करते हैं?...तब आप इस पर भी विश्वास कर सकते हैं कि गायत्री-मंत्र का जाप करने से 'अंधविश्वास' दूर होगा!             मुझे अन्य किसी की ही तरह ठीक से नहीं पता कि 'व्यास' का मतलब गप्पी भी हो सकता है, किन्तु इतना पता है कि 'व्यास' का व्युत्पत्तिगत अर्थ &

Higher Education Commission of India

                  Observations and Comments on                 Repealing of UGC and Creation of            Higher Education Commission of India  ● Rajebroy,  Presidentresident, Duta:   DUTA's preliminary response (Note: a more detailed and comprehensive response will follow after the DUTA Executive formally deliberates over the Draft Bill. A detailed response will be sent to the MHRD and shared with the Press.)  1.The MHRD envisages a systemic overhaul in Higher Education through repealing the UGC Act and creating in its place a new agency called Higher Education Commission of India. It is, however, not clear why this overhaul is necessary and how it will address the needs of higher education in a better way.  2. The present structure is being completely replaced without providing a detailed study of its founding goals, achievements, its shortcomings and their possible reasons and corrective measures taken or required to improve the health of the UGC. Even as the Go

अवधी-कविता: पाती लिखा...

                                स्वस्ती सिरी जोग उपमा...                                         पाती लिखा...                                            - आद्या प्रसाद 'उन्मत्त' श्री पत्री लिखा इहाँ से जेठू रामलाल ननघुट्टू कै, अब्दुल बेहना गंगा पासी, चनिका कहार झिरकुट्टू कै। सब जन कै पहुँचै राम राम, तोहरी माई कै असिरबाद, छोटकउना 'दादा' कहइ लाग, बड़कवा करै दिन भै इयाद। सब इहाँ कुसल मंगल बाटै, हम तोहरिन कुसल मनाई थै, तुलसी मइया के चउरा पै, सँझवाती रोज जराई थै। आगे कै मालूम होइ हाल, सब जने गाँव घर खुसी अहैं, घेर्राऊ छुट्टी आइ अहैं, तोहरिन खातिर सब दुखी अहैं। गइया धनाइ गै जगतू कै, बड़कई भैंसि तलियानि अहै। बछिया मरि गै खुरपका रहा, ओसर भुवरई बियानि अहै। कइसे पठई नाही तौ, नैनू से दुइ मेटी भरी अहै। तू कहे रह्या तोहरिन खातिर, राबिव एक गगरी धरी अहै। घिव दूध खूब उतिरान अहै, तोहरिन इयाद कै रोई थै। गंजी से दुपहरिया काटी, एक जूनी रोटी पोई थै। दस दिन भवा अइया के, रमबरना क कूकुर काटि लिहेस। जब ओरहन देय गये ओसी, ओकर महतारी डाँटि लिहेस। लौंगहवा

दास्ताने-तालीम:

                             एक शिक्षक की डायरी                                                             प्रोफे. दीपक भास्कर,                                                      दिल्ली विश्वविद्यालय.           ....आज दुखी हूँ! कॉलेज में काम खत्म होने के बाद भी स्टाफ रूम में बैठा रहा, कदम उठ ही नहीं रहे थे। दो बच्चों ने आज ही एड्मिसन लिया और जब उन्होंने फीस लगभग 16000 सुना और होस्टल फीस लगभग 120000 सुनकर एड्मिसन कैंसिल करने को कहा।  गार्डियन ने लगभग पैर पकड़ते हुए कहा कि सर! मजदूर है राजस्थान से, हमने सोचा कि सरकारी कॉलेज है तो फीस कम होगी, होस्टल की सुविधा होगी सस्ते मे, इसलिए आ गए थे।  मैंने रोकने की कोशिश भी की लेकिन अंत में एडमिशन कैंसिल ही करा लिया।  बैठकर! ये सोच रहा था कि एक तरफ जहां लोग सस्ती शिक्षा चाह रहे हैं वहीं दूसरी तरफ सरकार कह रही है कि 30 प्रतिशत खुद जेनेरेट कीजिये।  ऑटोनोमी के नाम पर निजिकरण हो रहा है। सोचिये दिल्ली विश्विद्यालय के चारो तरफ प्राइवेट यूनिवर्सिटी का जाल बिछ रहा है। जो लोग 15000 की फीस नही दे पा रहे वो लाखों की फीस प्राइवेट यूनिवर्सिटी को कह

पर्यावरण-संरक्षण: कथनी बनाम करनी:

                             पर्यावरण का संरक्षण या                         पर्यावरण-विनाश का वैश्वीकरण             यह सब पहले भी होता था!...            लोग झूठ बोलते थे, कहते कुछ और थे- करते कुछ और थे। नीति-नियम बनाए जाते थे-दूसरों के लिए। अपने लिए नियम अपनी सुविधा और फायदे के हिसाब से होते थे। 'अश्वत्थामा मरो....' सत्य के आगे 'नरो वा कुंजरो...' छुपा लिए जाने के पीछे की रणनीति निश्चित नई नहीं है। विकास के बहाने विनाश की गाथा शायद इसी तरह रची जाती है! अश्वत्थामा को मैने नहीं मारा, तुमने मारा है!...तुम्हें इसका हर्ज़ाना देना होगा, तिल-तिल कर मरना होगा। मैं वातानुकूलित महल में रहूँगा, क्योंकि मैंने ही अश्वत्थामा के मारे जाने का 'सत्य' तुम्हें बताया है। 'पर्यावरण' का विनाश हो रहा है, मेरे बताने के पहले तुम जानते थे क्या??...             पर्यावरण को लेकर कुछ इसी तरह के प्रपंच वैश्विक स्तर पर रचे जाते हैं। एक तरफ विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी कंपनियों को पर्यावरण के विनाश का न्यौता- हर प्रकार की छूट, दूसरी तरफ पर्यावरण बचाने के आम जनता को उपदेश!...क्या क

शिक्षा का माध्यम

                   'राष्ट्रभाषा', सार्वजनिक शिक्षा और 'राष्ट्रवादी'                           फ़ोटो-साभार फेसबुक                ऐसा लगता है जैसे  शासकवर्ग सार्वजनिक शिक्षा को मटियामेट कर निजी शिक्षण संस्थानों को खुली छूट देना चाहता है। इसके लिए प्राथमिक शिक्षा के मातृभाषा में चल रहे विद्यालयों को या तो बन्द किया जा रहा है या उन्हें Englsh Medium में रूपांतरित करने की कवायद चल रही है। मातृभाषा में कम से कम प्राथमिक शिक्षा देने की संवैधानिक प्रतिबध्दता को इस तरह अंगूठा दिखाया जा रहा है।              आखिर क्यों किया जा रहा है यह सब?...उत्तर बड़ा आसान और सीधा सा है। लगता है सरकार की प्राथमिकता में देश की सार्वजनिक शिक्षा न होकर कम्पनियों के लिए जरूरी शिक्षा रह गई है।...               आखिर क्यों अपने देशवासियों को उनकी भाषा में शिक्षा नहीं दी जा सकती, उनके लिए देश में रोज़ी-रोटी की व्यवस्था नहीं हो सकती? इससे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि प्रत्यक्षतः विदेशी कंपनियों को देश में मुनाफ़ा के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के साथ मानव-श्रम ('मानव-संसाधन' !) को लूटने के

हम देश, हमारा देश

                               ऐसा नहीं होना चाहिए!...                      कभी नहीं और कहीं नहीं होना चाहिए!...                                ?! ?! ?! ?! ?! ?! ?!   लगता है जैसे कोई ललकार रहा हो! हिम्मत है तो आ- हमारा लगता है जैसे कोई ललकार रहा हो!...हिम्मत है तो आ- हमारा सामना कर!...  महाभारत का यह उद्धत-आह्वान-'युद्धं देहि!...' उन सबको पसंद है जो शेरदिल हैं और तमाम प्राणियों के साथ इंसानों को भी जैसे खा जाने में विश्वास करते हैं! 'वीरभोग्या बसुंधरा' सिद्धांत के ये हिमायती 'राजा राज करने के लिए पैदा होता, प्रजा सेवा करने के लिए' -में भी विश्वास करते हैं और इसमें भी कि 'अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, अच्छे-बुरे सब ऊपर वाले के बनाए होते हैं... और इसमें भी कि अमीर, ऊंच, अच्छा होना उनका जन्मजात अधिकार है! तो मारे जाने वालों, तुम मारे जाने के लिए ही पैदा हुए थे!... ....और हे मृतकों के शवों पर रोने वालों और इनके मरने पर मातम मनाने वाले देशवासियों, तुम व्यर्थ चिंतित हो रहे हो!...देखो तो, इनकी तरह तुम भी मरे ही हुए हो! - कौन हैं वे लोग जो शांतिप्रिय मेरे दे

इतिहास बोलता है!...

                  ढिल्लिका से दिल्ली...                                       वाया गज़नी                                                           - संजीव सिंह …लोगों की पदचाप से इस विशाल परिसर की खामोशी टूट जाती है! बड़े-बड़े क्वार्टजाइट के प्रस्तर खंड सहम जाते हैं! अब उनमें कुछ भी नया देखने की ना तो चाह बची है और ना ही हिम्मत ... किसी अजनबी के आते ही प्राचीर के ऊपरी भाग में स्थित विशाल पत्थर एक दूसरे के साथ और दृढ़ता से मिल जाते हैं मानो इन नए आने वालों से घबरा रहे हो!...                  ...उन्हें नहीं पसंद कि कोई यहाँ आये! लेकिन लोग हैं कि आज भी इनको परेशान करते रहते हैं!... टूटी हुई शराब की बोतलें और उनके बिखरे हुए कांच के टुकड़े इसका प्रमाण हैं!... ये पत्थर तो अपनी बदनसीबी पर पहले से ही रो रहे हैं ... काल के बेरहम हाथों ने अगर सबसे ज्यादा किसी को छला है तो वो ये गूंगे और बहरे पत्थर हैं! ... जो भी आया उस ने इन को पददलित ही तो किया है!....इसीलिए ये पत्थर कुछ नया नहीं चाहते, ये खो जाना चाहते हैं- अपने उन खोये हुए खूबसूरत लम्हों में जब ये भी ज़िंदा थे! इन्होंने योगिनीपुरा को ढ

नरक की कहानियाँ:1

                                            दंपोली' से बचाओ!...                                                                    -अशोक प्रकाश                          उस दिन क्लास के सामने पहुंचते ही दो बच्चों को जूझते देख विनीता मैडम का दिमाग और खराब हो गया!...              दिमाग खराब करने के लिए विभाग ही क्या कम है!...जूते की क्लास-बालक-बालिका-नाप सहित फीती लगाकर बोरों में भरने के बाद एमडीएम का राशन लाने के लिए बुग्गी वाले से चिरौरी-विनती कर जैसे ही मैडम विनीता लौटीं, कक्षा चार के बच्चे धमचाचर मचाए थे। कोई कुछ कह रहा था, कोई कुछ। सब गड्डमड्ड। कक्षा दो की सकीना रोए जा रही थी। बबलू मैडम की कुर्ती पकड़कर कुछ बताने या शिकायत करने की जिद कर रहा था।  कक्षा तीन पूरा बाहर नल के पास एक-एक कर एक-दूसरे के कपड़े भिगो रहा था। दूसरे कमरे में देखा तो शिक्षामित्र बीना मैडम शायद अपने घर रोटी बनाने जा चुकी थीं।           तभी एमडीएम बनाने वाली शांती आकर खड़ी हो गई- 'मैडम, आज मैं एक हजार लिए बिना नहीं जाने वाली!...इतना तनख्वाह पाती हो एडवांस कैसे नहीं दे सकती।'... शांती को सम

एक क्रीमीलेयर का बयान:

                     ⚫      आरक्षण बनाम विरोध    ⚫                                                     - हर्ष बर्द्धन               मेरा बेटा इस बार बारहवीं में था और अब कम्पटीशन की तैयारी कर रहा है। क्योंकि अब हम क्रीमी लेयर में आते हैं, अतः वह अब आरक्षण का लाभ नहीं ले सकता। एक दिन मुझे उसने कटऑफ का अंतर दिखाया और वह भी आरक्षण-विरोधियों की ही भांति कुंठित हो गया। उसको मैने समझाया कि अगर वह ऊपर के 50 प्रतिशत में अपनी जगह नहीं बना सकता तो फिर कुछ और करने की जरूरत है और यह बात उसकी समझ में आ गयी और अब वह अच्छा कर रहा है।...                  मैने कुछ विश्लेषण किया है और पाया कि ज्यादातर लोग आरक्षण का विरोध तभी करते हैं जब उनके बच्चे बारहवीं में होते हैं और वह सारी सुविधाओं के बावजूद औसत ही होते हैं। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आरक्षण का लाभ लेने के बावजूद समाज में अपने को फारवर्ड दिखाने के चक्कर में अपनों का विरोध करने लगते हैं।            रही बात फारवर्ड क्लास की तो वह यूँ ही फारवर्ड नहीं है! इस वर्ग ने ऐसा चक्कर चलाया है कि लोगों को समझ ही नहीं आता की हो क्या रहा है! जितना

बन्द, बाज़ार और बेरोजगार

                        तुम लड़ो-मरो, हम मजा लेंगे!...             पिछले कुछ दिनों में हमने उच्चतम न्यायालय के एक फैसले के नाम पर दो 'भारत बंद' के आह्वान और उनके परिणाम देखे। दोनों तथाकथित भारत-बंद की एक सामान्य विशेषता देखने को मिली. दोनों में 'जातीय विद्वेष' को हवा दी गई. एक-दूसरे अर्थात् दलित और तथाकथित सवर्ण जाति के लोगों ने एक-दूसरे का मजाक उड़ाया और अपनी-अपनी जातियों को महान बताया. 'द ग्रेट....-जाति' को स्वाभिमान के नाम पर उछालने में ख़ास तौर पर दलित-उत्पीड़न और विषमता की त्रासदी के मसले दब गए. बेरोजगारी के स्थान पर सिर्फ आरक्षण पर बहस शासकों को बहुत सुकून दिलाती होगी!            इन प्रदर्शनों में एक ने यदि दलित-उत्पीड़न को ही झूठ सिद्ध करने की नाकाम कोशिश की तो दूसरे ने ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया जैसे हर मंत्री-सन्त्री-अधिकारी दलित जाति का होने के नाते रोज उत्पीड़न का शिकार हो रहा हो और उसे रोज 'अनुसूचित जाति-जनजाति उत्पीड़न क़ानून' के तहत किसी न किसी सवर्ण के नाम रिपोर्ट कराने की जरूरत हो. हकीकत यही है कि दलित जातियां अभी भी न केवल भीषण व

मर्म-कथा

                                           त्रिशंकु                                                   - नज़्म सुभाष             शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन ने अंततः  रौद्र रूप धारण कर लिया । बीस लोग मारे गये हैं।  ये मारे गये लोग सवर्ण थे या दलित अथवा मात्र मनुष्य.... इसको लेकर पक्ष -विपक्ष में अफवाहों का बाजार गर्म है। जैसा तर्क वैसी फोटो!...कौन असली कौन नकली?...कुछ नहीं सूझता...सबकुछ गड्मड्ड है!          सैकड़ों दुकानें फूंक दी गयी हैं....जनजीवन अस्त-व्यस्त है।... स्कूल, अस्पताल, रेल,  बस सब कुछ  अराजकता की भेंट चढ़ चुके हैं। टीवी पर भोंपू लगातार यही चीख रहा है।         सोशल मीडिया भी उबल रहा है ।सबके अपने - अपने पक्ष और तर्क हैं ।             सवर्ण चीखता है -"आरक्षण संविधान के माथे पर कलंक है!... उसने प्रतिभाओं का गला घोंट दिया।"             दलित उन्हीं के लहजे में जवाब देता है- " आरक्षण की जरूरत क्यों पड़ी? पहले इस पर बात कर!... सदियों से सवर्णों ने दलितों को दबाये रखा तब कितनी  प्रतिभाओं का गला घोंटा गया..... याद है?  मात्र 70 सालों में ही प्रतिभाओं का घों