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इतिहास बोलता है!...


                 ढिल्लिका से दिल्ली...
                                     वाया गज़नी

                                                         -संजीव सिंह



…लोगों की पदचाप से इस विशाल परिसर की खामोशी टूट जाती है! बड़े-बड़े क्वार्टजाइट के प्रस्तर खंड सहम जाते हैं! अब उनमें कुछ भी नया देखने की ना तो चाह बची है और ना ही हिम्मत ... किसी अजनबी के आते ही प्राचीर के ऊपरी भाग में स्थित विशाल पत्थर एक दूसरे के साथ और दृढ़ता से मिल जाते हैं मानो इन नए आने वालों से घबरा रहे हो!... 
               ...उन्हें नहीं पसंद कि कोई यहाँ आये! लेकिन लोग हैं कि आज भी इनको परेशान करते रहते हैं!... टूटी हुई शराब की बोतलें और उनके बिखरे हुए कांच के टुकड़े इसका प्रमाण हैं!... ये पत्थर तो अपनी बदनसीबी पर पहले से ही रो रहे हैं ... काल के बेरहम हाथों ने अगर सबसे ज्यादा किसी को छला है तो वो ये गूंगे और बहरे पत्थर हैं! ... जो भी आया उस ने इन को पददलित ही तो किया है!....इसीलिए ये पत्थर कुछ नया नहीं चाहते, ये खो जाना चाहते हैं- अपने उन खोये हुए खूबसूरत लम्हों में जब ये भी ज़िंदा थे! इन्होंने योगिनीपुरा को ढिल्लिका में बदलते हुए देखा तो वहीं ढिल्लिका को दिल्ली बनते हुए भी देखा! ....

उस समय प्रात:काल की बेला में नक्कारों की ध्वनि से मानो इन के कान फट जाते थे पर अब वोही कान उन आवाजों को सुनने को तरसते हैं .... स्थान स्थान पर भग्न इस प्राचीर के फौलादी दरवाजों से ही होकर सन 1191 में चाहड़ देव अपनी सेना के साथ तरायण गए थे और जब वो गोरी को हरा कर लौटे थे तो सारा नगर उत्सवों में डूब गया था ... इन पत्थरों को भी तब अपनी किस्मत पर गर्व हुआ था कि उनका पालक कितना साहसी है ... परन्तु , एक वर्ष बाद ही जब यही राजा सेना लेकर दोबारा तरायण गया और लौट कर नहीं आया तो पत्थरों ने मान लिया कि उनकी तकदीर फूटी हुई है ... दुर्ग में रोती बिलखती हुई रानियों के साथ इन पत्थरों ने भी आंसू बहाए हैं ... इन बातों को बहुत समय गुज़र चुका है .....अब तो इनका सिर्फ जिस्म ही बचा है ..आत्मा तो पता नहीं कब की मर चुकी है ...

सन् 1060 ईशवी-
दुर्ग को अनेकों प्रकार से सजाया गया है ... हर ओर चहल पहल है दुर्ग के द्वारों पर वन्दनवार बंधे हुए हैं , पुष्पों की सुगंध सम्पूर्ण वातावरण को सुगन्धित किये हुए है..... इस विशाल दुर्ग को उसके बुर्ज मंडित किये हुए हैं , पानी से भरी हुई विशाल खाई दुर्ग को घेरे हुए है. सबसे सुंदर ‘सोहन दरवाज़ा’ लग रहा है उस का दीप्तिमान उज्जवल शिखर मानो ऊंचाई और चमक में सूर्य से होड़ कर रहा है. मन और मस्तिष्क को जीतने वाले भवन लोगों की आँखों को ठंडक पहुंचा रहे हैं ...अलग अलग स्थानों पर बने सुंदर मंचों पर कुशल गायक और वाद्य वादक अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं , नर्तकियां भी सहज ही आकर्षित करनेवाले अपने हाव भाव और नृत्य कुशलता से हर विशिष्ट और सामान्य जन का मन मोह रही हैं... क्या, आज कोई विशेष अवसर है ? ... जी बिलकुल, आज तोमरों के प्रतापी राजा माधव श्री सामन्त देव श्री अनंगपाल देव द्वारा निर्मित एक नवीन दुर्ग का निर्माण कार्य संपन्न हुआ है . इस दुर्ग को लालकोट कहा जा रहा है ... यह दुर्ग उस प्रांगण के समीप है जहां महाराज ने आठ वर्ष पहले लौह स्तम्भ की स्थापना की थी और जिस के समीप सत्ताईस देव मंदिरों की भी स्थापना कराई थी ...

सन 1132 ईशवी- 
लालकोट दुर्ग को बने लगभग 82 वर्ष हो चुके हैं , ढिल्लिका पर शासन अब विजयपाल तोमर का है . इस दुर्ग के समीप, दूर तक फैला हुआ घना जंगल सम्पूर्ण क्षेत्र की सुन्दरता में वृद्धि कर रहा है , और यह ना केवल परिंदों बल्कि नगर वासियों के आनंद को भी कई गुना बढ़ा रहा है. तभी हाथियों की आपसी टकराहट का कोलाहल हवा को चीर देता है... तेज चलने वाले घोड़े हवा से बातें कर रहे हैं. विस्तृत अनंग ताल किसी सागर की तरह प्रतीत हो रहा है .... यहाँ तक कि मोर भी किसी युवती की पाजेब की खनक सुन कर चौंक जाते हैं और फिर खुश हो कर नाचना शुरू कर देते हैं . नगर का बाज़ार अपने आप में अनोखा है ..यहाँ क्या नहीं मिलता ! यहाँ के लोग मृदुभाषी हैं. कीमती कपडे , दूध से बने सामान , महंगे रत्न आदि सभी कुछ तो है .. पान तथा सुपारी का तो कहना ही क्या. सभी लोग प्रसन्न हैं सिवाय जैन मुनियों के क्यूँ कि यह राजा पूर्व राजाओं की भांति उनको प्रश्रय नहीं दे रहा ...

सन 1166 ईशवी– 
राजा मदनपाल अपने महल की छत पर है अचानक उसने देखा कि नगर के गणमान्य लोग सज धज कर , अपने प्रधान वाहनों पर सवार हो कर नगर के बाहर जा रहे हैं . राजा विस्मित हो गया उस ने इस का कारण जानना चाहा तो पता चला कि प्रसिद्ध जैनमुनि जिनचंद्र सूरि जी महाराज नगर के समीप पधारे हैं और नगर के सभी जैन मताबलम्बी मुनि के समीप जा रहे हैं . राजा मदनपाल ने आदेश दिया की वो स्वयम जैन मुनि के पास जाएगा . राजा अपने दरबारियों के साथ मुनि के पास पहुंचा और मुनि की अनेक प्रकार से आराधना करके भेंट आदि प्रदान की . राजा ने मुनि से आग्रह किया कि वो उस के नगर ढिल्लिका में पधारें। ... मुनि ने पहले तो इनकार कर दिया परन्तु राजा की बहुत अनुनयों के पश्चात वो नगर में चलने को तैयार हो गए।.... मुनि को राजा मदनपाल ने हाथ का सहारा दिया, चौबीस प्रकार के बाजे बजने लगे। ... नर्तकियां नृत्य करने लगीं, भाट लोगों ने प्रशस्तियां पढ़नी प्रारम्भ कर दीं। ..मंगलराग गाये बजाये जाने लगे।... कुछ समय नगर में रहने के पश्चात मुनि का देहांत हो गया और उन का अंतिम संस्कार नगर से दूर कर दिया गया . कुछ समय पश्चात सन 1167 में राजा मदनपाल का भी निधन हो गया ...

सन 1191 और तारायण की पहली लड़ाई – 
ढिल्लिका पर चाहड़ देव का शासन है उन को गद्दी पर बैठे मात्र दो वर्ष हुए हैं , उन से पहले पृथ्वीराज तोमर ने 1167 से 1189 तक लालकोट से ढिल्लिका पर राज किया . सम्पूर्ण क्षेत्र की हालत खराब है . मुइजुद्दीन शिहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी अपनी सेना के साथ तरायण तक आ चुका है दिल्ली का तोमर राजा चाहड़ देव और अजमेर का राजा राय पिथौरा भी अपनी सम्मिलित सेना के साथ तरायण आ चुके हैं ... युद्ध प्रारम्भ हो गया , दोनों सेनायें आमने सामने हैं .. दिल्ली का राजा चाहड़ देव अपने हाथी पर बैठा है .. अचानक मुहम्मद गोरी अपने घोड़े पर उस के सामने आता है और भाले से चाहड़ देव के मुंह पर प्रहार करता है . चाहड़ देव के कुछ दांत गिर जाते हैं चेहरा खून से सराबोर हो जाता है. लेकिन वो विचलित नहीं होता .. अपनी पूरी शक्ति से वो गोरी की बाजू पर प्रहार करता है गोरी बुरी तरह घायल हो जाता है और घोड़े को मोड़ कर दूसरी और चल देता है .. गोरी को उसका एक सैनिक सहारा दे कर युद्ध क्षेत्र से बाहर ले जाता है ... मुहम्मद गोरी सेना युद्ध में बुरी तरह से हार जाती है ..

सन 1192 और तरायण की दूसरी लडाई – 
गोरी अपनी हार से बेचैन हो जाता है, लौट कर वो उन सभी सैनिकों को दंड देता है जिन्होंने युद्ध ढंग से नहीं लड़ा. वोह खुद भी अपने हरम में नहीं जाता और लगभग एक साल अच्छे से तैयारियां करने के पश्चात फिर से एक बार वोह तरायण के मैंदान में उपस्थित होता है उस के साथ जम्मू का राजा विजयराज भी मिल जाता है .

इधर राय पिथौरा ( पृथ्वीराज चौहान) के बहुत से अनुभवी सेनानायक इस दौरान हुई दूसरी लड़ाइयों में मारे जा चुके थे उस की सेना अब पहले जितनी मजबूत नहीं थी ... लेकिन फिर भी, दिल्ली का चाहड़ देव और अजमेर का राय पिथौरा इस पूर्व परिचित दुश्मन से पुन: एक बार दो दो हाथ करने के लिए तरायण के मैदान पहुँच जाते हैं. गोरी के पास राजपूत सन्देश भेजते हैं कि वो वापिस लौट जाए! गोरी कहता है कि वो अपने भाई का सेवक मात्र है और उसी की आज्ञा से आया है ... तो बिना अपनी भाई की रजामंदी के वो कुछ भी नहीं कर सकता .. और कहता है कि आप मुझे वक़्त दीजिये ताकि अपने भाई से मैं इस संदर्भ में आज्ञा ले सकूं!... गोरी दिखावा करता है कि वो राजपूतों से युद्ध करने का इच्छुक नहीं है!...

होली का पर्व नज़दीक है , राजपूत गोरी की बातों में आ गए युद्ध की इच्छा का स्थान होली के उल्लास ने ले लिया ... कि होली की रात...चाँद पूरे यौवन पर था। मुहम्मद गोरी ने एक चाल चली। अपने कुछ सिपाहियों को कहा कि वो पूरी रात बैठ कर पड़ाव वाले स्थान पर आग जलाते रहें जिस से राजपूतों को लगे कि तुर्क फौजें निष्क्रिय पड़ी है . इस के बाद उस ने अपने ख़ास लोगों को बुलाया और सेना के साथ दूसरी जगह चला गया।... घुड़सवार सेना के उस ने चार हिस्से किये और आदेश दिया कि राजपूतों पर चारों और से हमला किया जाए और भागने का बहाना बना कर लौटते रहें! और.... सुबह सूरज निकलने से पहले गोरी की सेना ने राजपूतों पर हमला कर दिया ... अधिकाँश राजपूत सैनिक नित्य क्रिया के लिए गए हुए थे!... पृथ्वीराज चौहान अभी नींद में था! मोर्चा सिर्फ चाहड़ देव ने सम्भाला! ... दोपहर बाद तक भीषण लड़ाई होती रही! पृथ्वीराज भी हाथी पर बैठ कर लड़ने आया! ... लेकिन ... युद्ध में चाहड़ देव मारा जा चुका था , गोरी ने उसको उसके टूटे हुए दांतों से पहचान लिया! .. पृथ्वीराज समझ गया कि अब जीता नहीं जा सकता ... वो हाथी से उतरा और घोड़े पर बैठ कर भागा, परन्तु गोरी के सैनिकों ने उस का पीछ किया और उसे मार डाला ...

अब गोरी तरायण का युद्ध जीत चुका था! .. उत्तरी भारत की दो महत्वपूर्ण शक्तियों को वो हरा चुका था .. गोरी अब अजमेर की और चल दिया ... दिल्ली में उस वक़्त लालकोट की गद्दी पर चाहड़ देव का बेटा तेजपाल बैठा था। अजमेर से गोरी ढिल्लिका आता है। वोह लालकोट के रंजीत दरवाज़े पर हमला करता है। उसकी फ़ौजी टुकड़ियों और तोमर राजा की सेनाओं में लाल कोट की पश्चिमी प्राचीर के पास भयानक युद्ध होता है ... युद्ध भूमि में खून की नदियाँ बहने लगीं दिल्ली का राजा तेजपाल समझ जाता है कि जीता नहीं जा सकता तो वोह गोरी के साथ समझौता करता है कि वो गजनी को समय पड़ने पर सैनिक सहायता भी देगा और नियमित मालगुजारी भी देगा। इसको स्वीकार कर गोरी दिल्ली को अपने अधिकार में नहीं लेता है और क़ुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में एक सेना इन्दरपत पर छोड़ कर गज़नी वापिस चला जाता है।

क़ुतुबुद्दीन ऐबक कुछ दिन ढिल्लिका में रहा। वो दिल्ली के शासक तेजपाल तोमर पर तरह तरह के प्रतिबन्ध लगा देता है। यहाँ तक कि वो उसके लालकोट पर नगाड़ा बजाने पर भी प्रतिबन्ध लगा देता है। इसी बीच कुछ समय के लिए ऐबक गज़नी जाता है, लौट कर वोह हांसी में हुए विद्रोह को शांत करता है, मेरठ को जीतता है और आखिरकार एक बार फिर से उसकी सेनायें सन 1193 में लालकोट की पश्चिमी प्राचीर तक पहुँच जाती हैं। एक बार फिर से तेजपाल के साथ भयानक युद्ध होता है लालकोट की प्राचीर के उत्तरी बुर्ज़ के पास ऐबक की सेनाओं को निर्णायक जीत हासिल होती है ... बुर्ज का नाम फ़तेह बुर्ज हो जाता है। रंजीत दरवाज़े की सुरक्षा व्यवस्था भेद दी जाती है और तुर्क सेनायें लालकोट दुर्ग के अंदर प्रवेश कर जाती हैं।...

ढिल्लिका ने शिहाबुद्दीन गोरी के गुलामों का वरण कर लिया!... दिल्ली और आस पास सन 736 से राज करने वाले तोमर हमेशा के लिए इतिहास की कहानियों में खो गए! ... लालकोट की विशाल प्राचीरों ने लगभग 233 वर्ष तोमरों के वैभव को देखा तो साथ ही उन के पराभव को भी देखा! ..लेकिन शायद उसके बेजुबान पत्थरों के भाग्य में अभी भी बहुत कुछ देखना लिखा है!... दिल्ली पर तुर्कसत्ता स्थापित हो चुकी है! ... शायद हिन्दुस्तान की कहानी फिर से लिखी जाने वाली है! ... और इस कहानी को यही पत्थर फिर से अपनी आँखों से देखेंगे! ... ★★★
                               चित्र एवं प्रस्तुति: फेसबुक से साभार

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