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गोदान का 'मेहता' आज भी जिंदा है!..

  हिन्दी साहित्य                                     प्रेमचन्द और            गोदान का 'मेहता' प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान' किसानी जीवन की जीवन्त और सच्ची गाथा के लिए ही नहीं विश्व-प्रसिद्ध है, बल्कि अपने पात्रों की जीवंतता के लिए भी यह इतना विख्यात हुआ है। प्रेमचन्द के इस उपन्यास में पचास से अधिक पात्रों की उपस्थिति अखरती नहीं, बल्कि बहुत जरूरी लगती है। पात्र चाहे ग्रामीण और किसानी जीवन से सम्बंधित हों या शहरी और धनाढ्य वर्ग से, वे सभी वास्तविक और आज भी हमारे आसपास के जीते-जागते चरित्र लगते हैं। इन्हीं चरित्रों में एक चरित्र मेहता का है जो अगर न होता तो जैसे यह उपन्यास अधूरा होता।   गोदान का मेहता एक ऐसा मध्यवर्गीय चरित्र है जिसमें प्रेमचन्द ने वे सारी विशेषताएँ पिरोई हैं जिन्हें हम आज भी अपने आसपास के इस वर्ग के चरित्रों में देख सकते हैं। मेहता मध्यवर्ग का एक सुविधाभोगी व्यक्ति है किंतु कष्टमय जीवन, गरीबों के जीवन के बारे में एक आदर्शवादी सोच रखता है। उसकी दृष्टि में- " छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही नहीं होता। मैंने धन-कुबेरों को भिक्षुओं के सामने घुटने टेकते

क्या है छायावाद और उसकी कविता?

                छायावाद, प्रमुख कवि           और काव्य-रचनाएँ ★ 'छायावाद' शब्द का पहली बार प्रयोग सन 1920 में मुकुटधर पांडेय द्वारा जबलपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'श्री शारदा' में प्रकाशित उनके लेख 'हिन्दी में छायावाद' में किया गया। ★ रामचन्द्र शुक्ल छायावाद का प्रवर्तक कवि मुकुटधर पांडेय और मैथिलीशरण गुप्त को मानते हैं। ★ आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने  छायावाद का प्रवर्तन सुमित्रानंदन पंत की कृति 'उच्छ्वास' (1920) से माना है। ★ इलाचंद्र जोशी ने जयशंकर प्रसाद को छायावाद का प्रवर्तक माना है। ★ प्रभाकर माचवे व विनय मोहन शर्मा माखनलाल चतुर्वेदी को छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं। ★ रामचन्द्र शुक्ल: " छायावाद का चलन द्विवेदी-काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।.." ★ सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद को 'अलंकृत संगीत' कहा है। ★ महादेवी वर्मा छायावाद को 'केवल सूक्ष्मगत सौंदर्य सत्ता का राग' कहा है। ★ डॉ. राम कुमार वर्मा के अनुसार- 'परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है और आत्मा की परमात्मा म

नाथ-सम्प्रदाय और गुरु गोरखनाथ का साहित्य

स्नातक हिंदी प्रथम वर्ष प्रथम सत्र परीक्षा की तैयारी नाथ सम्प्रदाय   गोरखनाथ         हिंदी साहित्य में नाथ सम्प्रदाय और             गोरखनाथ  का योगदान                                                     चित्र साभार: exoticindiaart.com 'ग्यान सरीखा गुरु न मिल्या...' (ज्ञान के समान कोई और गुरु नहीं मिलता...)                                  -- गोरखनाथ नाथ साहित्य को प्रायः आदिकालीन  हिन्दी साहित्य  की पूर्व-पीठिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।  रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को 'आदिकाल' की अपेक्षा 'वीरगाथा काल' कहना कदाचित इसीलिए उचित समझा क्योंकि वे सिद्धों-नाथों की रचनाओं को 'साम्प्रदायिक' रचनाएं समझते थे। अपने 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में वे लिखते हैं कि "अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों की साम्प्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है।..." उन के अ नुसार- 'देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की काव्यभाषा' क

'नोटबन्दी' सा दुःस्वप्न फिर न देखना पड़े!

  ★ नोटबंदी कौ आल्हा ★                                          -- अशोक प्रकाश                               चित्र साभार: aajtak.in शीश नवाय के जनगनमन कौ धरिकै सब जनता कौ ध्यान, आल्हा गावहुँ उन बीरन कौं जोे लाइन महं तज दियौ प्रान।। आठ नवम्बर सन् सोलह कौ देस कौ पी एम गयौ पगलाय, भासन घातन ऐसो करि गयौ जनगनमन सब गयौ कुम्हलाय।। चारों तरफ तहलका मचि गयौ ऊ जापान महं रह्यौ मुस्काय, लाइन महं यां प्रान जाय रहे वा नीरो बाँसुरी बजाय।। इक-इक रुपिया मुश्किल ह्वै गयौ बड़ा नोट सब भयौ बेकार, खेती-बारी नष्ट ह्वै गई मज़दूरन घर हाहाकार।। काम-धाम सब छोड़ि-छाँड़ि के बैंकन चक्कर रह्यौ लगाय, उहां खेल सेठन कौ होइ रह्यौ भारी घात सह्यौ ना जाय।। अस्पताल का कहौं मुसीबत लोग मरैं बस भए बुखार, लगन सगाई शादी छोड़हुँ मरन काज ना मिलै उधार।। ऐसो राज न देखा कबहूँ ऐसो डाकौ सुन्यौ न भाय, अपनौ पैसो उनकौ होइ गयौ कम्पनियन रह्यौ मज़ा उड़ाय।। ●●●●