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Showing posts with the label संयुक्त किसान मोर्चा

किसान आंदोलन के आइने में चौधरी चरणसिंह

चौधरी चरण सिंह जन्म-दिवस             उन्हें याद करने का मतलब!..                              - अशोक प्रकाश   28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक मात्र कुछ महीने भारत के पाँचवें प्रधानमंत्री के रूप में देश की संसदीय व्यवस्था की कमान संभालने वाले चौधरी चरण सिंह को 'किसानों का मसीहा' के रूप में याद किया जाता है। सर छोटूराम के बाद किसानों के प्रबल हितैषी के रूप में पहचान बनाने वाले वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण नेता माने जाते हैं। किसान समर्थक कानूनी सुधारकों में उन्हें विशेष स्थान प्राप्त है। पिछले साल जब से संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा चलाए गए जुझारू किसान संघर्षों के फलस्वरूप मोदी सरकार को कॉरपोरेट हितैषी तीन कृषि संबन्धी कानूनों को वापस लेना पड़ा है, चौधरी चरण सिंह को याद करना विशेष महत्त्व रखता है। चौधरी चरण सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत में आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जनपद के नूरपुर गाँव में 23 दिसम्बर, 1902 को हुआ था। किसानी संघर्षों में अग्रणी जाटों के वंश में पैदा हुए चौधरी चरण सिंह को किसानों की दशा-दुर्दशा की समझ विरासत में मिली थी। उनका जन्म जिस तरह 'काली मिट्टी के अनगढ़

किसान आंदोलन भी राजनीति है क्या?

  किसान आंदोलन भी राजनीति का शिकार                      हो रहा है क्या?..      सवाल लाज़िमी है!..सवाल उठ रहा है, सवाल उठेगा भी! जब जीवन के हर पहलू को राजनीति संचालित कर रही है तो किसान आंदोलन राजनीति से अछूता कैसे रह सकता है? तो क्या किसान आंदोलन राजनीति का शिकार होगा? या यूँ कहें क्या किसान आंदोलन भी अन्ततः एक राजनीतिक स्वरूप लेगा? ऐसे सवाल आमजनता के मन में उठना स्वाभाविक है। न तो अपने किसान संगठन के आगे 'अराजनीतिक' लगाने वाले इस सवाल से बच सकते हैं और न ही किसान आंदोलन के सहारे राजनीति करने वाले ही। वे भी इससे नहीं बच सकते जो 'किसान राजनीति' कहकर किसान आंदोलन को संसदीय राजनीति से अलग कहते हैं। तो यह विचार करना जरूरी है कि आख़िर 'राजनीति' है क्या? क्या विधायक-सांसद बनना-बनाना ही राजनीति है या जनता से उगाहे जाते पैसों को वारा-न्यारा करने की नीति है 'राजनीति'?... पंजाब का चुनावी सबक:         वैसे तो किसान आंदोलन से जुड़े कई नेता पहले चुनाव लड़ चुके हैं। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा या एसकेएम ने पंजाब चुनाव से पहले तक संसदीय राजनीति से दूर रहने के ही संकेत द

संयुक्त किसान मोर्चा (पंजाब) नहीं लड़ेगा चुनाव!

                        चुनावों से नहीं, आंदोलन से ही                     बदलेगी किसानों की तक़दीर ★ संयुक्त किसान मोर्चा नहीं लड़ेगा पंजाब विधानसभा चुनाव, एक दर्जन के लगभग बड़े संगठनों ने जनसंघर्ष जारी रखने का किया ऐलान। ★ चुनावो के लिए कोई भी व्यक्ति या संगठन SKM या 32 संगठनों का नाम प्रयोग न करें।       संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने स्पष्ट किया है कि वे पंजाब विधानसभा चुनाव नहीं लड़ रहे है।  यह जानकारी मोर्चा की 9 सदस्यीय समन्वय समिति के नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल व डॉ.दर्शनपाल ने दी। उन्होंने कहा कि संयुक्त किसान मोर्चा जो देश भर में 400 से अधिक विभिन्न वैचारिक संगठनों का एक मंच है जो केवल किसानों के मुद्दों पर बना है। न तो चुनाव के बहिष्कार का कोई आह्वान नहीं है और न ही चुनाव लड़ने की कोई समझ बनी है।  उन्होंने कहा कि इसे लोगों ने सरकार से अपना अधिकार दिलाने के लिए बनाया है और तीन कृषि कानूनों को निरस्त करने के बाद संघर्ष को स्थगित कर दिया गया है, शेष मांगों पर 15 जनवरी को होने वाली बैठक में निर्णय लिया जाएगा.          पंजाब में 32 संगठनों के बारे में उन्होंने कहा कि इस विधानसभा चु

खत्म नहीं हो रहा किसान आंदोलन: बड़े बदलाव के लिए तैयार हो रहा है!

            समझौता, स्थगन और                 आगे की रणनीति फ़िलहाल, संयुक्त किसान मोर्चा ने दिल्ली सीमाओं पर एक साल से अधिक समय से चल रहा धरना समाप्त कर घर वापसी का निर्णय ले लिया है। लेकिन इसे किसान आंदोलन की समाप्ति के रूप में न कहकर 'वर्तमान आंदोलन को फिलहाल स्थगित कर दिया गया' रूप में विज्ञापित किया गया है। वैसे भी संयुक्त किसान मोर्चा नाम से न सही, किसान आंदोलन तो चलते ही रहेंगे! ज़्यादा सम्भावना है कि स्थानीय स्तर पर लोगों को इस साल भर चले सफल धरने से मिली ऊर्जा से किसान आन्दोलनों को और गतिशील बनाने में मदद  मिलेगी। ऐतिहासिक   और सफल आंदोलन की गूंज भविष्य में भी सुनाई देती रहेगी तथा इससे जनांदोलनों और जनतंत्र को मजबूती मिलती रहेगी। संयुक्त किसान मोर्चा की प्रेस-विज्ञप्ति पढ़ें: भारत सरकार ने, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के सचिव के माध्यम से, संयुक्त किसान मोर्चा को एक औपचारिक पत्र भेजा, जिसमें विरोध कर रहे किसानों की कई लंबित मांगों पर सहमति व्यक्त की गई - इसके जवाब में संयुक्त किसान मोर्चा दिल्ली सीमाओं पर राष्ट्रीय राजमार्गों और अन्य स्थानों पर चल रहे विभिन्न मोर्चों को

सावधान, किसान फिर धोखा खा सकता है!

                                  सावधान!            शासकवर्ग बड़ा चालाक है!   किसान आंदोलन ने एक बार और जनता की अपराजेयता की तरफ इशारा किया है। हमारे देश के लोग जितना जल्दी इस इशारे का महत्त्व समझ जाएं, उतना ही हितकर! देश के शासकों को, बड़े शूर-वीर बनने और खुद को भगवान समझने वाले शासकों को भी यह बात समझ लेना चाहिए। ' जो हिटलर की चाल चलेगा, वो हिटलर की मौत मरेगा!' - के नारे की सच्चाई को भी उन्हें समझना और उस पर समझदारी दिखाना चाहिए। यह कोई जुमला नहीं। ऐसा इतिहास हमें बताता-सिखाता है। यह राजाओं-महाराजाओं, बादशाहों की गुलामी का दौर नहीं है, इसका भी शासकों के साथ-साथ शासितों को भी अहसास करना चाहिए। जनता अगर सचमुच  किसी निज़ाम के खिलाफ  उठ खड़ी होगी  तो शासकों की हार तय है। फौजें भले न जीत सकें, जनता देर-सबेर जीतती ही है।                 वर्तमान किसान आंदोलन का मतलब तीन किसान विरोधी कानूनों की वापसी और किसानों और समर्थक आम जनता की विजय तो है ही, कॉरपोरेट और उसकी पक्षधर सरकारों के लिए सीख भी है। इतिहास जानता है कि कम्पनीराज के नुमाइंदों ने कहने और लिखने से ज़्यादा अपने मुनाफ़े के व्यापार

क्या घिर गई है सरकार?..

  तुम नहीं,    जनता ही अपराजेय है!                   इलाहाबाद संयुक्त किसान मोर्चा पंचायत जी हाँ, किसान आंदोलन के प्रति दिनो-दिन बढ़ता समर्थन यही कह रहा।कोई भी सत्ता कभी अपराजेय नहीं रही, चाहे खुद को जितना भी ताकतवर समझती रही हो। मंत्रीपुत्र ने तो यही सोचा रहा होगा कि सब कुछ दुर्घटना बनाकर साफ बच निकलेगा। मंत्रीजी तो अभी भी यही जुगत भिड़ा रहे होंगे। लेकिन आज नहीं तो कल 'सत्यमेव जयते!' होगा ही। पढ़ें, संयुक्त किसान मोर्चा का नया बयान-  ★ एसकेएम ने भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को चेतावनी दी कि 11 अक्टूबर की समय सीमा समाप्त हो रही है - लखीमपुर खीरी किसान हत्याकांड में सभी दोषियों की गिरफ्तारी के अलावा अजय मिश्रा टेनी की गिरफ्तारी और बर्खास्तगी अभी भी लंबित है - अजय मिश्रा टेनी के केंद्र सरकार में मंत्री पद पर बने रहने के कारण न्याय के साथ स्पष्ट रूप से समझौता हो रहा है: एसकेएम ★ हरियाणा और चंडीगढ़ पुलिस किसानों के खिलाफ मामले दर्ज करने के लिए तत्पर है - हालांकि, जहां किसान न्याय मांग रहे हैं, विभिन्न राज्यों में पुलिस विभाग धीमी गति से चल रही है - ऐसे दोहरे मानदंड स्वीकार्य नहीं

तीखे होते जा रहे हैं किसान आंदोलन और शासकों के अंतर्विरोध

                    सत्ता और किसान:             समय बलवान!                 जैसे-जैसे किसान आंदोलन लम्बा खिंचता जा रहा है, शासकों और किसान आंदोलन के बीच अंतर्विरोध भी तीखे होते जा रहे हैं। सत्ता समर्थक शक्तियाँ पहले से कहीं ज़्यादा सक्रिय होकर किसानों की न केवल बदनाम करने की कोशिश कर रही हैं बल्कि उनके नेताओं पर हमले करने की कोशिशें भी कर रही हैं। संयुक्त किसान मोर्चा की प्रेस विज्ञप्ति से यह बात स्पष्ट होती है कि किसान आंदोलन को कुचलने की कोशिशें अब हिंसक रूप अख्तियार कर रही हैं। टिकरी बॉर्डर में किसानों के शिविर पर कुछ बदमाशों द्वारा किए गए हमले, जिसमें एक युवक गुरविंदर सिंह गंभीर रूप से घायल हो गया, इसका एक उदाहरण है। इसकी निंदा करते हुए एसकेएम ने कहा है कि हमलावरों का संभावित निशाना किसान नेता रुलदू सिंह मनसा थे जो उस कैंप में रहते थे। मोर्चा ने मांग की है कि पुलिस हत्या की मंशा व प्रयास का मामला दर्ज कर हमलावरों को तत्काल गिरफ्तार करे। दूसरी तरफ पंजाब के विभिन्न स्थानों पर दर्जनों स्थायी मोर्चों के लगातार विरोध प्रदर्शन के 300 दिन पूरे होने पर पंजाब के होशियारपुर के मुकेरियां में बड

बढ़ती बेरोजगारी क्या किसान आंदोलन को और बढ़ाएगी?

                       रोजगार का संकट:               किसानी  पर दबाव बेरोजगारी अब पढ़े-लिखे नौजवानों और मजदूरों की ही समस्या नहीं रही। बड़ी संख्या में किसान भी साल में कम से कम छह महीने हाथ पर हाथ धरे बैठने के लिए मजबूर हैं। विशेषकर पहले लाकडाउन के बाद शहरों से हुए मजदूरों के पलायन ने हालात और बिगाड़ दिए। वे भी गाँवों में इसीलिए लौटे कि वहीं कुछ काम-धाम करके गुजारा कर लेंगे। पर किसानी की पहले से ही खस्ताहाल दशा ने उन्हें राहत से ज़्यादा मुसीबत दी है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट बताती है कि कोरोना की दूसरी लहर के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में 28.4 लाख रोजगार ख़त्म हो गए। शहरी क्षेत्रों में भी लगभग 5.6 लाख रोजगार खत्म  हुए। इसका भी असर ग्रामीण क्षेत्र के रोजगार पर पड़ा। किन्तु सरकारें कोरोड़ों बेरोजगार लोगों को सपने दिखाकर इससे निपटना चाहती हैं। अखबारों और टीवी चैनलों पर गरीब लोगों के मुस्कराते चेहरे दिखाने से रोजगार की स्थिति नहीं बेहतर हो जाती। कई-कई साल बाद होनी वाली नियुक्तियों का इस तरह प्रचार किया जाता है कि लोगों को लगे अब सारी बेरोजगारी दूर हो गई है। लेकिन खेती पर कम्पन

#यूपी में किसान आंदोलन की नई पहल

                उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड किसान आंदोलन की                                  एक नई शुरुआत                         ★ संयुक्त किसान मोर्चा ने किया मिशन  उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का ऐलान ★  5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में महारैली से धमाकेदार शुरुआत होगी ★ सभी मंडल मुख्यालयों पर महापंचायत का आयोजन होगा ★ तीन किसान विरोधी कानूनों को रद्द करने और एमएसपी की गारंटी के साथ प्रदेश के मुद्दे भी उठेंगे ★ आंकड़े दिखाते हैं कि योगी सरकार का दाना-दाना खरीद का वादा महज एक जुमला था लखनऊ | तीन किसान विरोधी कानूनों को रद्द करने तथा एमएसपी की कानूनी गारंटी की मांग को लेकर चल रहा ऐतिहासिक किसान आंदोलन आज आठ माह पूरे कर चुका है। इन आठ महीनों में किसानों के आत्मसम्मान और एकता का प्रतीक बना यह आंदोलन अब किसान ही नहीं देश के सभी संघर्षशील वर्गों का लोकतंत्र बचाने और देश बचाने का आंदोलन बन चुका है। इस अवसर पर आंदोलन को और तीव्र, सघन तथा असरदार बनाने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने इस राष्ट्रीय आंदोलन के अगले पड़ाव के रूप में मिशन उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड शुरू करने का फैसला किया है। इस मिशन के तहत संयुक्त

इस संसद में सिर्फ़ महिलाएँ ही क्यों रहेंगी?

                            सिर्फ़ महिलाओं की                किसान संसद   लगातार चल रहे शांतिपूर्ण किसान आंदोलन के अब आठ  महीने पूरे हो रहे हैं। इस  ऐतिहासिक आंदोलन में लाखों किसान शामिल हुए हैं और इस किसान आंदोलन ने देश में ही नहीं बल्कि पूरी  दुनिया में किसानों की प्रतिष्ठा को बढ़ाया है। यही नहीं  किसानों के संघर्ष ने भारतीय लोकतंत्र को भी मजबूत किया है। इसी लोकतांत्रिक दृष्टि की प्रतीक बनने वाली है केेेवल महिला किसानों द्वारा संचालित होने  महिला किसान संसद!       इन आठ महीनों में भारत के लगभग सभी राज्यों के लाखों किसान विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए। विरोध शांतिपूर्ण रहा है और हमारे अन्नदाताओं ने सदियों पुराने लोकाचार को दर्शाया है। कठिनाइयों का सामना करने के लिए किसानों की दृढ़ता और अटलता, भविष्य प्रति उनकी आशा, उनके संकल्प को दर्शाता है। इस अवधि के दौरान किसानों ने खराब मौसम और दमनकारी सरकार का बहादुरी से सामना किया। एक चुनी हुई सरकार ने - जो मुख्य रूप से किसानों के वोटों पर सत्ता में आई थी - उनके साथ विश्वासघात किया, और किसानों को अपनी आवाज और मांगों को सच्चे, धैर्यपूर्वक और शांतिपूर

किसान संसद ने पारित किए ये प्रस्ताव

                              22 और 23 जुलाई को                             किसान संसद द्वारा              पारित संकल्प एवं प्रस्ताव हिन्दी: 1. यह स्पष्ट करने के बाद कि एपीएमसी बाईपास अधिनियम के प्रावधानों को किसानों के हितों की कीमत पर कृषि व्यवसाय कंपनियों और व्यापारियों के पक्ष में तैयार किया गया है, मौजूदा विनियमन (रेगुलेशन) और निगरानी तंत्र को खत्म करके, और बड़े कॉर्पोरेट द्वारा कृषि बाजारों के प्रभुत्व को बढ़ावा देगा; 2. जून 2020 से जनवरी 2021 तक एपीएमसी बाईपास अधिनियम के संचालन के प्रतिकूल अनुभव को संज्ञान में लेने के बाद, जहां अपंजीकृत व्यापारियों द्वारा भुगतान न करने और धोखाधड़ी के कारण किसानों को करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ, जहां अधिकांश एपीएमसी मंडियों में व्यापारियों और कंपनियों द्वारा खरीद में आधी हो गई है, और जहां बड़ी संख्या में एपीएमसी मंडियों को भारी नुकसान हुआ है जिससे वे बंद होने के कगार पर पहुंच गई हैं; 3. यह निष्कर्ष पर आने के बाद कि एपीएमसी बाईपास अधिनियम के कारण, अधिकांश मंडियां धीरे धीरे समाप्त हो जाएंगी, क्योंकि कॉरपोरेट और व्यापारी अधिनियम द्वारा बनाए गए अनियम

किसान संसद

                  समानांतर 'किसान संसद' के                                    निहितार्थ सवाल है कि संसद वर्षाकालीन अधिवेशन के दौरान समानांतर #किसान_संसद केवल प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन ही रह जाएगा या इसका कोई दूरगामी निहितार्थ भी है?...हमेशा की तरह सरकार इसे एक और प्रदर्शन से ज़्यादा और कुछ मानती है, ऐसा नहीं लगता। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि इससे किसान नेताओं की क्या उम्मीद है।. .. हम जानते हैं कि जंतर मंतर और संसद मार्ग कई बड़े-बड़े प्रदर्शनों का साक्षी रहा है और इसने संसद और सरकार तक अपनी बात पहुंचाने की सफल कोशिशें भी है। क्या भाजपा सरकार इसको कोई अहमियत देगी? नहीं तो इस प्रतीकात्मक किसान प्रदर्शन का क्या मतलब रह जाएगा? ये ऐसे सवाल हैं जो किसान आंदोलन में रुचि रखने वाले हर आम आदमी के मन में स्वाभाविक रूप से उठते हैं।      संयुक्त किसान मोर्चा ने इसे 'भारत में नागरिकों की आवाज को मजबूत करने के लिए किसान आंदोलन द्वारा खोले जा रहे विचारशील लोकतंत्र के नए मोर्चे' की संज्ञा दी है। साथ ही इस किसान संसद से मीडिया को दूर रखने के दिल्ली पुलिस के प्रयास को 'शर्मनाक' कहत

बेरोजगार किसान आंदोलन से क्यों जुड़ रहे हैं?

बेरोजगारी और किसान आंदोलन                       ख़त्म होते रोजगार के अवसर और            किसान आंदोलन की उम्मीदें आजादी के बाद डॉ. भीमराव अम्बेडकर के प्रयासों और असली आज़ादी के लिए शहीद भगत सिंह जैसे नौजवानों की कुर्बानियों के चलते जो कुछ रोटी-रोजगार के साधन हमें हासिल भी हुए थे, आज एक-एक कर छीन लिए जा रहे हैं। देशी-विदेशी कम्पनियों के मुनाफों की चिंता करने वाली सरकारें निजीकरण के नाम पर न केवल पहले से हासिल नौकरियां और रोजगार खत्म कर रही हैं जिससे आरक्षित वर्गों के आरक्षण अपने आप खत्म हो रहे हैं, बल्कि व्यापक जनता की आजीविका के साधन खेती योग्य जमीनों, पहले से स्थापित सार्वजनिक उद्यमों, सरकारी संस्थानों को भी खत्म कर पूँजीपतियों और विदेशी कंपनियों के हवाले कर रही हैं। बैंक, बीमा, परिवहन, रेलवे, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय सहित तमाम सार्वजनिक उपक्रम पूरी बेशर्मी के साथ प्राइवेट हाथों में सौंपने का ही नतीजा है कि शिक्षित-अशिक्षित सभी प्रकार के नौजवान-मजदूर-किसान बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं।             बेरोजगारी आज समाज के सभी मेहनतकश वर्गों की एक मुख्य और विकराल समस्या है। पढ़े-लिखे लोगों

खेती पर कम्पनियों के नियंत्रण के खिलाफ संसद मार्च

                                नये दौर में पहुँचा                     किसान आंदोलन संयुक्त राष्ट्र खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन कॉर्पोरेट अधिग्रहण की चपेट में जाने की संभावनाएं दिख रही है - हम भारत में इसी के खिलाफ संघर्ष कर रहे है:                                -- संयुक्त किसान मोर्चा जैसा कि पहले ही घोषित किया जा चुका है, संयुक्त किसान मोर्चा मानसून सत्र के सभी कार्य दिवसों पर संसद के पास विरोध प्रदर्शन की अपनी योजना पर आगे बढ़ रहा है। हर दिन 200 प्रदर्शनकारियों द्वारा इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान जंतर-मंतर पर किसान संसद का आयोजन किया जाएगा और किसान यह प्रदर्शित करेंगे कि भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को किस तरह से चलाया जाना चाहिए। एसकेएम की 9 सदस्यीय समन्वय समिति ने दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक की। योजनाओं को व्यवस्थित, अनुशासित और शांतिपूर्ण तरीके से क्रियान्वित किया जाएगा। 200 चयनित प्रदर्शनकारी सिंघू बॉर्डर से प्रतिदिन पहचान पत्र लेकर रवाना होंगे। एसकेएम ने यह भी कहा कि अनुशासन का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। वर्तमान किसान आं

किसानों-बेरोजगारों का धरना-योग बनाम सरकारी-चमत्कारी योग-दिवस!!

Yog माने पेट भरने का जोग!                               किसान-बेरोजगार का हठयोग योग से किसी को न तो वैर है, न किसी को इस पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानना चाहिए। वह बाबा रामदेव हों या गली मोहल्ले में आजकल योग की दुकान खोले अन्य बाबा और उनके चेले-चपाटे! योग जीवन की एक सामान्य शारीरिक क्रिया है, कार्य करने के क्रम में होने या किया जाने वाला व्यायाम है। इसकी किसी मेहनतकश को नहीं, खाए-अघाए लोगों को ही विशेष जरूरत पड़ती है। तो क्या योग का अति प्रचार भी जनता के अन्य जरूरी मसलों से ध्यान हटाने का माध्यम है?...या स्वास्थ्य/लोक कल्याण कार्यक्रमों से पूरी तरह पल्ला झाड़कर वही तथाकथित 'आत्मनिर्भर बनो' योजना?...ताकि लोग व्यवस्था पर सवाल न उठा योग न कर सकने की अपनी नियति पर ही अफ़सोस कर चुप रह जाएं?... शायद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग का ढोल पीटने के पीछे भी उस 'नई विश्व व्यवस्था' का आदेश है जिसमें पूरी दुनिया को एक डंडे से हाँकने की व्यवस्था की जा रही है!..        योगदिवस पूरे धूमधाम से मनाया गया। कितना सरकारी (जनता का) पैसा इसके प्रचार-प्रसार पर लगा, इसका हिसाब शायद ही कभी कोई दे। किसानों

संशोधित बिजली कानून जन-विरोधी क्यों है?..

                        संशोधित बिजली कानून                    लागू करने की निंदा  संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा दिल्ली की सीमाओं पर चलाए जा रहे किसान आंदोलन के 200 पूरे होने पर मोर्चा ने किसानों को मिलने वाली बिजली सब्सिडी के संबंध में भारत सरकार के द्वारा किए गए नीतिगत बदलावों की कड़ी निंदा की है। मोर्चा का कहना है कि यह कदम न केवल किसान विरोधी है, बल्कि आम जन विरोधी भी है। जैसा कि हम जानते है हाल ही मे वित्त मंत्रालय ने उन राज्यों को हताश किया है जो कृषि और किसानों को बिजली सब्सिडी प्रदान करते हैं। मंत्रालय ने कृषि संबंधी कुछ शर्तों के आधार पर राज्य सरकारों को अतिरिक्त ऋण देने का फैसला किया है यह शर्तें कुछ इस प्रकार है: इसमें उन राज्यों को अधिक अंक देने का प्रावधान है, जिनके पास कृषि कनेक्शन के लिए बिजली सब्सिडी नहीं है या कृषि मीटर खपत पर सब्सिडी नहीं है या इससे संबंधित खाता ट्रांसफर प्रणाली नहीं है।  किसान आंदोलन की प्रमुख मांगों में से एक, केंद्र सरकार द्वारा विद्युत संशोधन विधेयक 2020 के कानूनी रास्तों के द्वारा प्रयास करने के संदर्भ में किया गया है जिसमें कृषि में बिजली सब्सिडी

क्या मुख्यतः कम्पनीराज के खिलाफ़ है किसान आंदोलन?

                           किसान आंदोलन का                   कॉरपोरेट विरोध     संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में जैसे तीन किसान विरोधी कानूनों की वापसी के लिए संघर्ष लम्बा खिंचता जा रहा है, उसके स्वरूप में भी बदलाव आता जा रहा है। पिछले कुछ दिनों से मजदूर संगठन भी उसके समर्थन में दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचने लगे हैं। साथ ही इसे कानून वापसी की माँग से अधिक व्यापक बनाये जाने की भी कोशिश हो रही है। किसान आंदोलन इसे कॉरपोरेट या कम्पनीराज विरोधी आंदोलन के रूप में विकसित करने की कोशिश कर रहा है!... ★ कॉर्पोरेटों के खिलाफ धरना जारी रहेगा: यह काले कानूनों के खिलाफ एकजुट लड़ाई का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लगातार चल रहा किसान आंदोलन भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की ओर जाने वाले मुख्य राजमार्गों पर पिछले आठ महीनों से जमा हुआ है।।  26 नवंबर 2020 को दिल्ली की सीमाओं पर लाखों आंदोलकारियों के पहुंचने से पहले कई राज्यों में महीनों तक कई विरोध प्रदर्शन हुए। इस लिहाज से यह आंदोलन और भी ज्यादा समय से चल रहा है।  हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार अपने जोखिम पर आंदोलनकारियों द्वारा उठाए जा रहे बुनियादी मुद्दो

मंदसौर की शहादतों ने कैसे लगाई किसानों के दिल में आग?

मंदसौर की शहादत      मंदसौर की शहादत के मायने   कर्ज में डूबे मध्यप्रदेश के किसान लंबे समय से किसानों की आत्म हत्याओं और  कर्जमाफी के लिए आन्दोलित थे। इस पर  किसानों का मजाक उड़ाते हुए मुख्यमंत्री द्वारा यह कहना कि आत्महत्याओं का कारण कर्ज नहीं, कुछ और है; जले पर नमक छिड़कने जैसा था। नोटबन्दी के कारण किसानों की हालत पहले से ही खराब थी।  चुनाव में भाजपा द्वारा स्वामीनाथन आयोग के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीद से यह कहकर पीछे हट गई कि यह संभव नहीं है। सरकार की ही प्रचारित-प्रसारित प्रेरणाओं पर विश्वास कर किसानों  द्वारा किए गए प्याज के भारी उत्पादन के बाद किसानों को लागत से भी काफी कम मूल्य पर ( चार रुपये किलो) प्याज बेचने के लिए विवश कर दिया गया। फलतः सड़क पर ही किसानों द्वारा प्याज फेंकने के लिए मजबूर होना पड़ा।  इन्हीं परिस्थितियों में आंदोलनरत किसानों पर 6 जून 2017 को गोलियाँ चलाकर छह किसानों की हत्या कर दी गई। ये ऐसे जख्म हैं जिन्हें मंदसौर, मालवा या मध्यप्रदेश के किसान ही नहीं, पूरे देश के किसान कभी न भूल पाएंगे। समाचारों के अनुसार गुस्साए किसानों ने कुछ स्थानों पर रेल पटरियो