समानांतर 'किसान संसद' के निहितार्थ
सवाल है कि संसद वर्षाकालीन अधिवेशन के दौरान समानांतर #किसान_संसद केवल प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन ही रह जाएगा या इसका कोई दूरगामी निहितार्थ भी है?...हमेशा की तरह सरकार इसे एक और प्रदर्शन से ज़्यादा और कुछ मानती है, ऐसा नहीं लगता। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि इससे किसान नेताओं की क्या उम्मीद है।...
हम जानते हैं कि जंतर मंतर और संसद मार्ग कई बड़े-बड़े प्रदर्शनों का साक्षी रहा है और इसने संसद और सरकार तक अपनी बात पहुंचाने की सफल कोशिशें भी है। क्या भाजपा सरकार इसको कोई अहमियत देगी? नहीं तो इस प्रतीकात्मक किसान प्रदर्शन का क्या मतलब रह जाएगा? ये ऐसे सवाल हैं जो किसान आंदोलन में रुचि रखने वाले हर आम आदमी के मन में स्वाभाविक रूप से उठते हैं।
संयुक्त किसान मोर्चा ने इसे 'भारत में नागरिकों की आवाज को मजबूत करने के लिए किसान आंदोलन द्वारा खोले जा रहे विचारशील लोकतंत्र के नए मोर्चे' की संज्ञा दी है। साथ ही इस किसान संसद से मीडिया को दूर रखने के दिल्ली पुलिस के प्रयास को 'शर्मनाक' कहते हुए निंदा की है। इस किसान संसद को समर्थन देने पहुंचे सांसदों का धन्यवाद भी किया है।
किसान संसद में किसानों ने भारत सरकार के मंत्रियों के खोखले दावों का खंडन किया कि किसानों ने यह नहीं स्पष्ट किया है कि तीन कानूनों के साथ उनकी चिंता क्या है, और वे केवल अपनी निरसन की मांग पर डटे हैं। एपीएमसी बाइपास अधिनियम पर चर्चा करते हुए, किसान संसद में भाग लेने वालों ने कानून की असंवैधानिक प्रकृति, भारत सरकार की अलोकतांत्रिक प्रक्रियाओं, और कृषि आजीविका पर कानून के गंभीर प्रभावों के संबंध में कई बिंदु उठाए। उन्होंने इस काले कानून के बारे में अपनी आपत्तियों को रखते हुए जोर दिया कि क्यों तीनों किसान विरोधी कानूनों को निरस्त ही किया जाना क्यों जरूरी है।
किसान संसद एक तरह से संसद की कार्यवाही के ठीक विपरीत थी। किसान आंदोलन के समर्थन में सांसदों ने सुबह से ही गांधी प्रतिमा पर पार्टी लाइन से हटकर विरोध प्रदर्शन किया। वे किसानों द्वारा जारी पीपुल्स व्हिप का पालन कर रहे थे। कई सांसदों ने किसान संसद का दौरा भी किया। लेकिन अपनी नीतियों के अनुरूप सांसदों को मंच या माइक पर बोलने का समय नहीं दिया गया। इसके बजाय उनसे संसद के अंदर किसानों की आवाज बनने का अनुरोध किया गया।
इस तमाम कवायद से एक बात तो स्पष्ट है कि संयुक्त किसान मोर्चा जनता को यह बताना चाहता है कि यह संसद/सरकार किसानों को महत्त्व नहीं दे रही इसीलिए उन्हें किसानों की अपनी संसद लगाने के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। दूसरी तरफ यह किसान संसद लोकतांत्रिक संसद को पूरा महत्त्व देते हुए उससे किसानों की बात सुनने के लिए गुहार लगा रही है। यह जनता के बीच सरकार को बेनकाब करने की कोशिश भी लगती है। एक अन्य बात महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सरकार की एक मंत्री महोदया ने जहाँ 'मवाली' जैसे किसानों को खेतों के काम से फुर्सत न पाने वाला कहकर किसानों की चेतना पर हमला किया, वहीं दूसरी तरफ सरकार ने ही 'किसान संसद' के प्रदर्शन को अनुमति देकर किसानों के आंदोलन की अहमियत मानी।
दरअसल, सरकार जानती है कि किसान आंदोलन को पूरी तरह ख़ारिज करना उसके बस की बात नहीं है और किसान नेता भी जानते हैं कि सरकार को हर सम्भव तरीके से घेरे बिना किसान आंदोलन को आगे बढ़ा पाना मुश्किल है!
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