और जानिए
शहीद ऊधमसिंह को!
आज आप एक ऐसी सोच-समझ के अधीन जी रहे हैं जो साम्राज्यवाद को नहीं स्वीकार करती। यह समझ साम्प्रदायिक, जातिवादी, मौकापरस्त व्यक्ति तैयार करती है। ऐसी समझ के लोग साम्राज्यवाद को या तो कुछ 'विदेशी' तत्त्वों की मनगढ़ंत विचारधारा मानते हैं या ऐसी कहानी जब उनके जैसे 'वीर' तलवार भांजते हुए प्राण न्यौछावर कर देते थे। यह कोई अनोखी या आज की समझ नहीं है। ऐसी समझ वाले समझदार अंग्रेजों के तलवाचाटू भी थे और 'प्रजा' के सिर उठाने के घोर विरोधी भी। ऐसे तलवाचाटुओं और उपनिवेशी-साम्राज्यवादियों के खिलाफ़ जिस अनूठे योद्धा ने अपनी दिलेरी से अंग्रेजों को हतप्रभ कर दिया, उसे हम शहीद ऊधमसिंह के नाम से जानते हैं।
31 जुलाई अनूठे बलिदानी ऊधमसिंह का शहादत दिवस है। इसी दिन सन् 1940 की सुबह 9 बजे ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने उन्हें फाँसी दे दी। या शहीद ऊधम सिंह के प्रिय आदर्श भगतसिंह के शब्दों में कहें तो शहीद ऊधम सिंह ने उस दिन 'मृत्यु का वरण' किया ('married death')। अंग्रेज़ साम्राज्यवादियों को शहीद ऊधम सिंह उनके प्रति अपनी तीव्र घृणा प्रकट करते हुए बार-बार 'कुत्ते' शब्द का प्रयोग करते थे, आज साम्राज्यवाद के पिट्ठुओं के लिए इस शब्द का ज़्यादा प्रयोग होता है। शहीद ऊधमसिंह के शब्दों में- "मुझे मौत का डर नहीं है। मुझे अपनी मृत्यु पर गर्व है। मैं अपनी मातृभूमि से इन गंदे कुत्तों को बाहर फेंक देना चाहता हूँ और मुझे उम्मीद है कि जब मैं चला गया होऊँगा, मेरे वतन के और लोग मेरे स्थान पर आ जाएँगे!" लेकिन क्या कहा जाए?.. उनके वतन से साम्राज्यवादियों को उखाड़ फेंकने की कोशिश करने वाले आज ज़्यादा हैं या साम्राज्यवादियों के 'कुत्ते' बनने की चाहत रखने वाले?..
शहीद ऊधमसिंह की जिंदगी की दास्तां किसी अजूबे करिश्माई की दास्तां जैसी है। अगर मानव सभ्यता के विकास के प्रति किसी का पक्का विश्वास हो तो उसे उनकी जिंदगी एक असीम प्रेरणा का स्रोत लगेगी। 26 दिसम्बर, 1899 को पटियाला रियासत के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में पिता टहल सिंह और माता हरनाम कौर के यहां पैदा हुए ऊधम सिंह जब केवल चार साल के थे, माँ चल बसीं। पिता चौकीदार थे और बकरियाँ पालकर बमुश्किल गुजारा होता था। इन स्थितियों में ही अपने दो बच्चों साधू सिंह ( ऊधम सिंह का वास्तविक नाम) और शेर सिंह को बीमारी हालत में एक रिश्तेदार को सुपुर्द कर सन् 1907 में पिता भी चल बसे। कुछ साल बाद वह रिश्तेदार भी इन दोनों बच्चों को अमृतसर के अनाथालय में छोड़ बर्मा चला गया। ऊधम सिंह ने इसी अनाथालय के माध्यम से पढ़ाई-लिखाई, बढ़ईगीरी, पेंटिंग और अन्य हस्तकलाओं की शिक्षा पाई। किन्तु इसी बीच सन् 1917 में उनके भाई भी उन्हें अकेला छोड़ निमोनिया के शिकार हो गए। ...
13 मार्च, 1940 को अपराह्न 4.30 पर लंदन के कॉक्सटन हाल में जलियांवाला बाग कांड के समय पंजाब के गवर्नर रहे माइकल ओ डायर का खात्मा और उसके मित्रों- ज़ेटलैंड, लॉर्ड लेमिंगटन और सर लुइस डेन्स को घायल करने के बाद शहीद ऊधम सिंह ने जलियांवाला बाग कांड का ही बदला नहीं लिया, यह सिद्ध भी किया कि ज़िंदा कौमें अन्याय और अत्याचार को ज़्यादा दिन बर्दाश्त नहीं करतीं।
क्या आज भी हमारे देश में लोग ऐसा ही सोचते हैं?...आपको क्या लगता है?
अपनी टिप्पणी में बताइएगा!
(आलेख के कुछ तथ्य एवं चित्र Trade Union Solidarity Committee, Mumbai द्वारा प्रकाशित पुस्तिका 'The Story They Wanted to Hide' से लिए गए हैं!)
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