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Showing posts from 2022

किसान आंदोलन के आइने में चौधरी चरणसिंह

चौधरी चरण सिंह जन्म-दिवस             उन्हें याद करने का मतलब!..                              - अशोक प्रकाश   28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक मात्र कुछ महीने भारत के पाँचवें प्रधानमंत्री के रूप में देश की संसदीय व्यवस्था की कमान संभालने वाले चौधरी चरण सिंह को 'किसानों का मसीहा' के रूप में याद किया जाता है। सर छोटूराम के बाद किसानों के प्रबल हितैषी के रूप में पहचान बनाने वाले वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण नेता माने जाते हैं। किसान समर्थक कानूनी सुधारकों में उन्हें विशेष स्थान प्राप्त है। पिछले साल जब से संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा चलाए गए जुझारू किसान संघर्षों के फलस्वरूप मोदी सरकार को कॉरपोरेट हितैषी तीन कृषि संबन्धी कानूनों को वापस लेना पड़ा है, चौधरी चरण सिंह को याद करना विशेष महत्त्व रखता है। चौधरी चरण सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत में आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जनपद के नूरपुर गाँव में 23 दिसम्बर, 1902 को हुआ था। किसानी संघर्षों में अग्रणी जाटों के वंश में पैदा हुए चौधरी चरण सिंह को किसानों की दशा-दुर्दशा की समझ विरासत में मिली थी। उनका जन्म जिस तरह 'काली मिट्टी के अनगढ़

अशांत मन की भड़ास

             एक सन्तमन के शांति-शांति उपदेश पर                           अशांत मन की भड़ास                                  -- अशोक प्रकाश यदि अन्यायी अत्याचारी किसी कमजोर पर अत्याचार करे आप शांत रहें क्योंकि वह आप पर अत्याचार नहीं कर रहा और जब वह आप पर अत्याचार करे तो दूसरे को शांत रहने का उपदेश दें क्योंकि वह उस पर अत्याचार नहीं कर रहा... झूठ और गलत है 'अन्याय और अत्याचार से  कम दोषी  नहीं होते अन्याय -अत्याचार सहने वाले...' सही और मान्य है अन्याय और अत्याचार की  आध्यात्मिक परिभाषा!.. सब ऊपर वाले की मर्ज़ी से होता है... उसी की मर्ज़ी से तो ही आखिर तोता भी बोलता है! तोताराम रहिए शांति-शांति कहिए!                             ☺️☺️☺️☺️☺️☺️

ऋषि सुनक अलग काम क्या करेंगे?..

              आर्थिक मंदी  यूक्रेन-रूस युद्ध और            ब्रिटिश पीएम लिज ट्रस का पद छोड़ना                                          -- जयप्रकाश नारायण वित्तीय पूंजी का असाध्य संकट शुरू हो चुका है । 2008 से शुरू हुई आर्थिक मंदी ने स्थायित्व ग्रहण कर लिया है । जिसका असर आर्थिक और राजनीतिक संकट के‌ रूप में दिखने लगा है।   ब्रिटेन की 46 दिनी प्रधानमंत्री का इस्तीफा इस बात की स्वीकारोक्ति है कि संकट का समाधान पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के दायरे में संभव नहीं है। स्वयं प्रधानमंत्री लिज ट्रस ने त्यागपत्र देते हुए कहा की वर्तमान स्थितियों में जिन वादों के लिए मैं चुनी गई थी उनके समाधान का रास्ता दिखाई न देने कारण मैं इस्तीफा दे रही हूं।  कम से कम ब्रितानी लोकतंत्र के प्रधानमंत्री में इतनी नैतिक शक्ति शेष है कि वह व्यवस्था जन्म कमजोरियों को स्वीकार कर सकें।  ब्रिटिश संसद में विपक्ष के नेता जेरेमी कोरबिन ने कहा कि अगर हम (पूंजीवाद) नीतिगत प्राथमिकता नहीं बदलते तो समय-समय पर आर्थिक संकट आते रहेगें । आगे उन्होंने कहा कि हमें अपनी" नीतियां कुछ लोगों के लिए नहीं बहुमत के लिए" बनानी चाहिए

जातिवाद दूर करने का एक अचूक नुस्खा

                 हे, हे लक्ष्मी के वाहन!  मुझे लगता है जातिवाद दूर करने का एक बढ़िया सूत्र अब तक लोगों को मालूम नहीं है। यह सूत्र मानने और अपनाने से कम से कम सभी जातियाँ एक ही संबोधन से जानी जाएँगी।...प्रायः हर धर्म-जाति के लोग कभी न कभी इसका इस्तेमाल कर खुश होते हैं। खासकर तब जब यह किसी और के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हो! फिर भी इस अखिल धरा पर किसी न किसी रूप में कभी न कभी सभी इस लोकप्रिय संबोधन से नवाज़े गए हैं।        सभी प्रकार के जातिवादी लोग (पब्लिक/राजनीति में सभी जाति के लोग खुद को जातिवादी न कहकर बाकी सबको जातिवादी कहते हैं!) अगर अपनी जाति -'उल्लू का पट्ठा' लगाने लगे तो लोगों को देश की 3000 से अधिक जातियों के नाम से जानने की एक ही जाति 'उल्लू का पट्ठा' नाम से जाना जाएगा। इससे जातिवाद के खात्मे में कुछ तो मदद मिलेगी! मतलब 2999 जातियाँ खत्म हो जाएंगी।               वैसे यह 'जाति' शब्द भी 'ज' क्रियाधातु से व्युत्पन्न हुआ है जिससे 'पैदा होना'..'इस तरह पैदा हुआ' आदि का बोध होता है। उदाहरणार्थ आदमी आदमी की ही तरह पैदा होता है, सुअर या उल्

इस रात की सुबह कब?..

                      सिर्फ़   नाइंसाफ़ी नहीं,                 शासकों का अपराध है यह! हे युवाओं! हे  बेरोजगारो!.. सब कुछ अपने आप नहीं हो रहा है! किसी ईश्वर की माया से अपने आप नहीं घट रहा है! यह सब सुनियोजित है! तुम्हारी बेरोजगारी भी, निकाली और न भरी जातीं भर्तियाँ भी! परीक्षा के एक-दो दिन पहले मिलते प्रवेशपत्र भी। इधर का परिक्षाकेन्द्र उधर होना और उधर का परिक्षाकेन्द्र इधर होना भी! बसों और ट्रेनों में भुस की तरह घुसकर तुम्हारा जाना भी। ज़्यादा किराया वसूलना भी, मारपीट करना भी। कु छ भी नेचुरल नहीं, स्वाभाविक नहीं। करोड़ों की कमाई और मुनाफ़ा इसके पीछे है! सब शासकों द्वारा सुचिंतित और सोच-विचार कर सुनियोजित तरीके से क्रियान्वित किया गया!.. कब जागोगे?... कब समझोगे?... कब उठोगे?...                       ★★★★★

विद्यार्थी राजनीति बनाम शिक्षक राजनीति

                   जब कुएँ में         भाँग पड़ी हो तो... आप क्या करेंगे जब पूरे कुएँ में भाँग पड़ी हो?... नया कुआँ खोदेंगे? या पूरे कुएँ का पानी निकालेंगे?... https://www.rmpualigarh.com/ और जब तो न तो दूसरा कुआँ खोदने का आपमें साहस बचा हो, ना ही कुएँ का पूरा पानी निकालने का! तब उसी कुएँ में डुबकी लगाएँगे और सोचेंगे यही पानी ठीक है। या इसी पानी को ठीक मान लिया जाए! आज मोटे तौर पर शिक्षक और विद्यार्थी राजनीति का यही हस्र बनता जा रहा है!...यद्यपि विकल्प भी दिख रहे हैं पर वे गिने-चुने विश्वविद्यालयों- महाविद्यालयों में गिने-चुने शिक्षकों और विद्यार्थियों के बीच! यह एक विषम स्थिति है और कोई बनी-बनाई लीक या शास्त्रीय अवधारणा यहॉं काम नहीं आने वाली। तथाकथित नई शिक्षा नीति का बुलडोज़र विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों पर चल रहा है। पाठ्यक्रम से शिक्षा की बुनियादी सोच को ही गायब किया जा रहा है। कम्पनी-राज का सूत्र है-  'पढ़ो-लिखो इसलिए कि  मेरे नौकर बन सको... नौकर बनो इसलिए कि  मुझको मुनाफ़ा दे सको!'...  राजसत्ता पूरी बेशर्मी के साथ इस सूत्र को विद्यार्थियों के दिलो-दिमाग में घुसा रही है। ज़्

किसान आंदोलन भी राजनीति है क्या?

  किसान आंदोलन भी राजनीति का शिकार                      हो रहा है क्या?..      सवाल लाज़िमी है!..सवाल उठ रहा है, सवाल उठेगा भी! जब जीवन के हर पहलू को राजनीति संचालित कर रही है तो किसान आंदोलन राजनीति से अछूता कैसे रह सकता है? तो क्या किसान आंदोलन राजनीति का शिकार होगा? या यूँ कहें क्या किसान आंदोलन भी अन्ततः एक राजनीतिक स्वरूप लेगा? ऐसे सवाल आमजनता के मन में उठना स्वाभाविक है। न तो अपने किसान संगठन के आगे 'अराजनीतिक' लगाने वाले इस सवाल से बच सकते हैं और न ही किसान आंदोलन के सहारे राजनीति करने वाले ही। वे भी इससे नहीं बच सकते जो 'किसान राजनीति' कहकर किसान आंदोलन को संसदीय राजनीति से अलग कहते हैं। तो यह विचार करना जरूरी है कि आख़िर 'राजनीति' है क्या? क्या विधायक-सांसद बनना-बनाना ही राजनीति है या जनता से उगाहे जाते पैसों को वारा-न्यारा करने की नीति है 'राजनीति'?... पंजाब का चुनावी सबक:         वैसे तो किसान आंदोलन से जुड़े कई नेता पहले चुनाव लड़ चुके हैं। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा या एसकेएम ने पंजाब चुनाव से पहले तक संसदीय राजनीति से दूर रहने के ही संकेत द

प्राथमिक शिक्षा: नीतिकारों की नीयत

                            राष्ट्रीय  शिक्षा नीति:                 नीयत में खोट                        - वी.के. शर्मा हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर स्नातकोत्तर शिक्षा तक की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा खासकर उत्तरी भारत की शिक्षा चाहे वाह प्राइमरी पाठशाला हो अथवा स्नातकोत्तर, बदहाल स्थिति में हैं। सरकारी शिक्षण संस्थान हो अथवा पब्लिक या निजी शिक्षण संस्थान, दोनों ही जगहों पर अलग-अलग तरीके से शिक्षा का बंटाधार किया किया जा रहा है। सरकारी प्रारंभिक पाठशाला हो अथवा सरकारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, शिक्षा का स्तर गिर रहा है।  https://www.rmpualigarh.com/fupucta-candidates/           प्राथमिक विद्यालयों ने मिड-डे मील मिलता है, जबकि शिक्षक मात्र एक और किसी-किसी स्कूल में 2 शिक्षक अथवा एक प्रधानाध्यापक और एक शिक्षामित्र तथा एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता या खाना बनाने वाली दाई होते हैं! यानी कुल मिलाकर महज तीन व्यक्तियों का स्टाफ होता है और 30 से 35 छात्र होते हैं। सच तो यह है कि डेढ़ सौ से 300 छात्रों को रजिस्टर्ड कर लिया जाता है और उनके लिए मिड-डे मील तथा पाठ

सच बोलिए: धर्म और मनुष्य में से किसे चुनेंगे आप?-

  बहस:                             मानवता या धर्म!                       आप कहाँ खड़े हैं?                                             - वी के शर्मा       मानवता के लिए साम्प्रदायिकता बहुत बुरी होती है। चाहे वह हिंदू सांप्रदायिकता हो अथवा मुस्लिम सांप्रदायिकता अथवा कोई और! साम्प्रदायिकता मानवता के सामने दुश्मन की तरह आ खड़ी होती है। इतिहास की यह विडम्बना रही है कि जो धर्म अहिंसक रहे हैं वे या तो खत्म कर दिए गए हैं अथवा कमजोर हो गए हैं। इसी संदर्भ में हम बौद्ध धर्म की अहिंसावादी नीति को देख-परख सकते हैं। बौद्ध धर्म अपनी अहिंसावादी नीति के कारण ही कमजोर हो चुका है। वही दुनिया के सभी आतताई और हिंसक धर्म अपने को ना केवल जिंदा रखे हुए हैं बल्कि एक खास क्षेत्र अथवा विश्व के अनेक देशों में अपना पांव भी मजबूती से टिकाए हुए हैं। लिहाजा हिंदू धर्म हो अथवा मुस्लिम धर्म किसी भी मानवतावादी को इनके पीछे खड़ा नहीं होना चाहिए। यदि कोई भी प्रगतिशील या जनवादी व्यक्ति अथवा संगठन किसी कमजोर सांप्रदायिक शक्ति के पीछे लामबंद होता है तो निश्चय ही वह मजबूत सांप्रदायिक शक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मज

क्या सचमुच बुरा बनता जा रहा है समाज?

                   बुरा बनता समाज                                कारण क्या हैं?                                                                                                         - विजय कुमार शर्मा क्या और भी बुरा बन रहा है समाज? - अक्सर ही यह सवाल आज हर व्यक्ति के मन में उठता है! अधिकांश लोगों का मन इसका एक ही उत्तर भी देता है- 'निश्चय ही!' क्यों? वही मन फिर उत्तर देता है- हमारा भारतीय समाज बदल ही नहीं रहा है बल्कि यह बहुत तेज गति से बदल रहा है। सन् 1990 के बाद समाज के बदलाव ने तेज गति पकड़ ली। यह दौर था नयी-नयी नीतियों के आगमन का, यह दौर था एलपीजी यानी लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के आगमन का। इस दौर में केन्द्रीय सत्ता पर कांग्रेस का शासन था। इस दौर के प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी. इन्होंने नई अर्थ नीति, नई उद्योग नीति लागू की। इसी प्रक्रिया को अगले प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई  ने परिवर्धित-परिमार्जित करके आगे बढ़ाया। आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं। इसका प्रभाव हमारे जन-जीवन के, हमारे समाज के हर आयाम पर पड़ रहा है

नरक की कहानियाँ: 3~ महात्मा के कारनामें!

नरक की  कहानियाँ :  दो:                      महात्मा नहीं परमात्मा!. .                     (कॉमा अपने आप लगा लीजिए) 【 पिछले अंश में  आपने महात्माजी का संक्षिप्त परिचय पाया था। आपने जाना था कि महात्माजी कोई साधारण आदमी नहीं हैं। उनके बारे में तरह-तरह की धारणाएँ हैं~ कि वे पहुँचे हुए आदमी हैं, धूर्त हैं, सीआईए के एजेंट हैं...आदि-आदि। लेकिन तब सब चौकन्ने हो गए जब महात्माजी ने कहा कि  "सावधान कर रहा हूँ, बैंक में रखा अपना सारा पैसा निकाल लो! बैंक में रखा पैसा अब सुरक्षित नहीं रह गया है!. ." अब आगे.. 】 ~~~          "क्यों?..क्यों महात्माजी? हम तो बैंक में पैसा सुरक्षित रखने के लिए ही डालते हैं और आप कह रहे हैं कि वहाँ पैसा रखना सुरक्षित नहीं रह गया है!"..                                                                         मुझे दो दिन पहले रग्घूचचा की बात ध्यान हो आई। उन्होंने कहा था कि महात्मा पर कभी विश्वास न करना, पूरा रँगा सियार है। चोरों से मिला हुआ है और इसका असली काम ठगी है। महात्मई भेस धारन किए घूमता है लेकिन लोगों को लुटवाता हैं। लुटेरे इसे कमीसन देते हैं!.

तो महात्माजी से परिचित नहीं हैं आप?

स्वर्ग की कहानियाँ :   एक:                 महात्माजी : परिचय         मतलब, आप भी जान लीजिए! महात्माजी कभी झूठ नहीं बोलते!.... यह अलग बात है कि आम लोग उनकी भाषा नहीं समझते और अर्थ का अनर्थ करते हैं। महात्माजी के प्रवचनों को सुनने और समझने वाले प्रायः तीन प्रकार के लोग हैं। पहले नम्बर पर वे लोग हैं जो उनका मंतव्य समझ नहीं पाते और उनकी सत्यवादिता को मिथ्या-प्रलाप मान लेते हैं। ऐसे लोगों को आप उनका विरोधी या उनसे जलने वाला मान सकते हैं। दूसरी तरह के वे लोग हैं जो उनके मुखारविन्द से निकले वचनों का सही-सही अर्थ जानते हैं और इसे भविष्यवाणी मानकर सावधान हो जाते हैं। ऐसे लोग महात्माजी को कबीरदास के समकक्ष मानते हैं और कहते हैं- 'कबीरदासजी की उल्टी बानी, बरसै कम्बल भीजै पानी।' लेकिन सबसे समझदार तीसरी तरह के लोग हैं जो एक न एक दिन खुद भी महात्माजी जैसा बनने का सपना पालते हैं। उन्हें जन सामान्य भक्त कहता है लेकिन अपने करतबों से ऐसे लोगों ने दिखा दिया है कि वे भक्त नहीं बल्कि महात्माजी के सहभागी हैं। अक्सर ऐसे लोग फ़ायदे में ही रहते देखे जाते हैं। लेकिन इस तीसरे वर्ग में एक उपवर्ग भी ह

क्या आप साँप को दूध पिला रहे हैं?

                           साँप को दूध पिलाना               मुहावरा ही सही है! जी, हाँ! मुहावरे और कहावतें अज्ञानता की भी प्रतीक होती हैं। इसलिए उन्हें आप्त-वाक्य मानकर जो लोग बार-बार अपनी किसी बात को सही ठहराने की कोशिश करते हैं, उन्हें 'सांप को दूध पिलाना' मुहावरे पर ठीक से विचार करना चाहिए। क्योंकि क्या आप जानते हैं कि साँप दूध नहीं पीते और जबर्दस्ती उन्हें दूध पिलाने से उनकी मौत भी हो जाती है? सांप वे रेंगने वाले जीव हैं जो दूध, शाक-सब्जी नहीं खाते, न ही वे कोई शाकाहारी देवी-देवता हैं। साँप मांसाहारी होते हैं और जमीन पर चलने वाले दूसरे जीवों जैसे चूहा, मेढक, छिपकली व अन्य कीड़े-मकोड़ें खाकर जीवन-यापन करते हैं। उन्हीं की खोज में कभी-कभी वे मनुष्यों, नेवलों आदि के संपर्क में आने के कारण आकर अपनी जान भी गँवा बैठते हैं। हमारा देश धर्मप्राण देश माना जाता है। इस कारण जीवन के हर क्षेत्र में यहाँ धर्म की पैठ है। कभी-कभी तो धर्म के नाम पर लोग अधर्म भी कर जाते हैं। इन्हीं में से एक अधर्म हैं साँप को दूध पिलाना और दूसरा अधर्म है साँप को अपना दुश्मन मानकर उसकी जान के पीछे पड़ जाना। दरअसल,

आज का होरी कैसे बचेगा?..

                  आज का किसान                और 'गोदान'            'गोदान' उपन्यास को लिखे लगभग एक सदी बीत रही है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि गोदान उपन्यास में किसानों की दशा पर उठाए गए सवाल आज भी जीवन्त हैं। 1936 में इसके प्रकाशन के बाद से आज तक गंगा-यमुना में न जाने कितना पानी बह चुका है पर अधिकांश किसानों की दशा स्थिर जैसी है। कुछ बदला है तो खेती के नए साधनों का प्रयोग जो आधुनिक तो है पर वह किसानों की अपेक्षा लुटेरी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधीन होने के कारण किसानों के नुकसान और कम्पनियों के मुनाफ़े का माध्यम बना हुआ है। खेती के इन नए साधनों या उपकरणों के अधीन किसान आज भी कर्ज़ में डूबी हुई खेती के सहारे जीवन यापन कर रहा है। हल की जगह ट्रैक्टर आ गए लेकिन किसान की आत्मनिर्भरता खत्म हो गई। वह ऐसी खेती की नई-नई मशीनों और उनके मालिकों का गुलाम हो गया।  आज खेतों में ट्रैक्टर, ट्यूबवेल और थ्रेशर तो चलते दिखते हैं पर इनके नाम ही बता रहे हैं कि ये किसानों के नहीं हैं, विदेशी कम्पनियों के हैं। क्या व्यवस्था का जिम्मा लेने वाले हुक्मरानों की इतनी भी कूबत नहीं रही कि वे देश

OMR या प्रश्नोत्तरी परीक्षा? - कैसे करें जल्दी तैयारी?..

                    परीक्षा सामने है:                    आपका ध्यान किधर है?   नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के क्रियान्वयन की शुरुआत में विद्यार्थियों को परेशान होना स्वाभाविक है! उस पर ओएमआर से परीक्षा होगी या लघु/दीर्घ प्रश्नोत्तर पद्धति से यह दुविधा उन्हें और सता रही है। व्यवस्थाओं के क्रियान्वयन में भी इससे परेशानी आ रही है। लेकिन इससे किसी भी प्रकार के सवाल आने पर उसके लिए तैयार रहना भी विद्यार्थियों के लिए आसान हो रहा है यदि वे परीक्षा के प्रति गम्भीर और सचेत हैं।  इस विषय पर इसके पहले  कम समय में परीक्षा की तैयारी कैसे करें  विषयक लेख में विद्यार्थियों को विस्तार से समझाया गया है कि हिन्दी काव्यधारा के जिन 20 महत्वपूर्ण कवियों को उनके पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया है उनके बारे में मुख्य सूचनाएं और उनकी रचनाशीलता की सामान्य विशेषताओं को विद्यार्थी पहले नोट बनाकर तैयारी कर लें। उसके पश्चात प्रत्येक युग के कम से कम दो कवियों के विस्तृत उत्तर तैयार कर लें। उदाहरणार्थ आदिकाल के गोरखनाथ और विद्यापति, भक्तिकाल के कबीर और तुलसीदास, रीतिकाल के बिहारीलाल और घनानंद, आधुनिक काल या छायावाद के जयश

गोदान का 'मेहता' आज भी जिंदा है!..

  हिन्दी साहित्य                                     प्रेमचन्द और            गोदान का 'मेहता' प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान' किसानी जीवन की जीवन्त और सच्ची गाथा के लिए ही नहीं विश्व-प्रसिद्ध है, बल्कि अपने पात्रों की जीवंतता के लिए भी यह इतना विख्यात हुआ है। प्रेमचन्द के इस उपन्यास में पचास से अधिक पात्रों की उपस्थिति अखरती नहीं, बल्कि बहुत जरूरी लगती है। पात्र चाहे ग्रामीण और किसानी जीवन से सम्बंधित हों या शहरी और धनाढ्य वर्ग से, वे सभी वास्तविक और आज भी हमारे आसपास के जीते-जागते चरित्र लगते हैं। इन्हीं चरित्रों में एक चरित्र मेहता का है जो अगर न होता तो जैसे यह उपन्यास अधूरा होता।   गोदान का मेहता एक ऐसा मध्यवर्गीय चरित्र है जिसमें प्रेमचन्द ने वे सारी विशेषताएँ पिरोई हैं जिन्हें हम आज भी अपने आसपास के इस वर्ग के चरित्रों में देख सकते हैं। मेहता मध्यवर्ग का एक सुविधाभोगी व्यक्ति है किंतु कष्टमय जीवन, गरीबों के जीवन के बारे में एक आदर्शवादी सोच रखता है। उसकी दृष्टि में- " छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही नहीं होता। मैंने धन-कुबेरों को भिक्षुओं के सामने घुटने टेकते

क्या है छायावाद और उसकी कविता?

                छायावाद, प्रमुख कवि           और काव्य-रचनाएँ ★ 'छायावाद' शब्द का पहली बार प्रयोग सन 1920 में मुकुटधर पांडेय द्वारा जबलपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'श्री शारदा' में प्रकाशित उनके लेख 'हिन्दी में छायावाद' में किया गया। ★ रामचन्द्र शुक्ल छायावाद का प्रवर्तक कवि मुकुटधर पांडेय और मैथिलीशरण गुप्त को मानते हैं। ★ आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने  छायावाद का प्रवर्तन सुमित्रानंदन पंत की कृति 'उच्छ्वास' (1920) से माना है। ★ इलाचंद्र जोशी ने जयशंकर प्रसाद को छायावाद का प्रवर्तक माना है। ★ प्रभाकर माचवे व विनय मोहन शर्मा माखनलाल चतुर्वेदी को छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं। ★ रामचन्द्र शुक्ल: " छायावाद का चलन द्विवेदी-काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।.." ★ सुमित्रानंदन पंत ने छायावाद को 'अलंकृत संगीत' कहा है। ★ महादेवी वर्मा छायावाद को 'केवल सूक्ष्मगत सौंदर्य सत्ता का राग' कहा है। ★ डॉ. राम कुमार वर्मा के अनुसार- 'परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगती है और आत्मा की परमात्मा म