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सच बोलिए: धर्म और मनुष्य में से किसे चुनेंगे आप?-

 बहस:



                           मानवता या धर्म!

                     आप कहाँ खड़े हैं?                                           - वी के शर्मा

    मानवता के लिए साम्प्रदायिकता बहुत बुरी होती है। चाहे वह हिंदू सांप्रदायिकता हो अथवा मुस्लिम सांप्रदायिकता अथवा कोई और! साम्प्रदायिकता मानवता के सामने दुश्मन की तरह आ खड़ी होती है। इतिहास की यह विडम्बना रही है कि जो धर्म अहिंसक रहे हैं वे या तो खत्म कर दिए गए हैं अथवा कमजोर हो गए हैं। इसी संदर्भ में हम बौद्ध धर्म की अहिंसावादी नीति को देख-परख सकते हैं। बौद्ध धर्म अपनी अहिंसावादी नीति के कारण ही कमजोर हो चुका है। वही दुनिया के सभी आतताई और हिंसक धर्म अपने को ना केवल जिंदा रखे हुए हैं बल्कि एक खास क्षेत्र अथवा विश्व के अनेक देशों में अपना पांव भी मजबूती से टिकाए हुए हैं। लिहाजा हिंदू धर्म हो अथवा मुस्लिम धर्म किसी भी मानवतावादी को इनके पीछे खड़ा नहीं होना चाहिए। यदि कोई भी प्रगतिशील या जनवादी व्यक्ति अथवा संगठन किसी कमजोर सांप्रदायिक शक्ति के पीछे लामबंद होता है तो निश्चय ही वह मजबूत सांप्रदायिक शक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मजबूत ही करता है।           


व्यवहार में देखा गया है कि किसी भी धर्म की साम्प्रदायिक शक्तियाँ प्रगतिशील लोगों को विधर्मी या काफिर जैसे शब्द नवाज़ती हैं। वे मानवतावादियों के प्रति घृणास्पद व्यवहार करती हैं। जो सम्प्रदाय  जितना ही संगठित है तथा जितना ही पूजा-पाठ अथवा प्रार्थना करता है वह सच्चे मानवतावादियों के प्रति उतना ही कटु व्यवहार करता है। सुकरात से लेकर आज के प्रगतिशील विचारकों तक,  चाहे वे कलबुर्गी हों अथवा जस्टिस लोया हों, उनके साथ अति क्रूर व्यवहार किया गया है। 

         कोई सवाल कर सकता है कि किसी कमजोर या अल्पसंख्यक समुदाय को पीटते हुए या अपमानित करते हुए या उस पर हिंसा करते हुए देखा जाना या निरपेक्ष होकर अपनी जगह खड़े होकर देखते रहना क्या मानवतावादिता है? जी नहीं, यदि एक मजबूत सांप्रदायिक शक्ति दूसरी कमजोर सांप्रदायिक शक्ति या दलित-शोषित वर्ग या वर्ण पर अत्याचार करे, विनाश कर दे या उसे तहस-नहस कर दे तो किसी भी जिम्मेदार मानवतादी-जनवादी-प्रगतिशील व्यक्ति अथवा संगठन के लिए ऐसा अमानवीय कार्य देखते जाना या खामोश रहना निन्दनीय है। किन्तु किसी भी सांप्रदायिक शक्ति के पीछे लामबंद होना कतई उचित नहीं है। दरअसल यह एक जटिल, बहुत ही जटिल सवाल है। इसी तरह किसी जातिवादी या दलितवादी आंदोलन के पीछे लामबंद होना भी महज एक सामयिक या कार्यनीतिक प्रश्न है, न कि रणनीतिक। रणनीतिक कार्य तो पूरे विश्व की जनता की मुक्ति का है। भारत जैसे देश में हिंदू-सांप्रदायिकता या पाकिस्तान जैसे देश में मुस्लिम-सांप्रदायिकता के विरुद्ध लामबंद होना महज एक कार्यनीतिक प्रश्न है, न कि रणनीतिक प्रश्न। 

         हिंसा अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता के विरुद्ध हो अथवा दलितवादिता के विरुद्ध, दोनों ही मानवता के विरुद्ध हिंसा हैं। किन्तु तथ्य यह भी है कि धार्मिक हिंसा हो या दलित उन्माद दोनों ही वर्तमान साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के पक्ष में खड़े हैं और इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पक्ष-पोषण करते हैं। इसीलिए किसी भी जनवादी या क्रांतिकारी व्यक्ति अथवा संगठन के लिए अल्पसंख्यक उत्पीड़न, दमन अथवा दलित उत्पीड़न दमन के पक्ष मी खड़ा होना महज एक कार्यनीतिक प्रश्न है, न  कि रणनीतिक। दरअसल कार्यनीतिक प्रश्न सामयिक होते हैं, और रणनीतिक प्रश्न दीर्घकालिक। अतः इनके बीच की अंतर्वस्तु को द्वंद्ववादी तरीके से समझ कर व्यवहार करना चाहिए। यदि कोई भी जनवादी क्रांतिकारी व्यक्ति या संगठन उपरोक्त अल्पसंख्यक सांप्रदायिक या दलितवादिता के पीछे-पीछे चलता है तो वह निश्चय ही एक नई प्रतिक्रियावादी शक्ति को दीर्घकालीन समय के लिए मानवता के विरुद्ध चेतन या अचेतन रूप से खड़ा करता है, और मानवता के विरुद्ध एक नया दुश्मन खड़ा करता है। अल्पसंख्यक प्रतिक्रियावाद हो या दलितवादी उन्माद, दोनों ही वर्तमान शोषणकारी पूंजीवादी साम्राज्यवादी अर्धसामन्ती व्यवस्था को ही पुष्ट करते हैं। किसी भी जनवादी क्रांतिकारी व्यक्ति या संगठन की आज यह जिम्मेदारी बनती है कि वह सचेतन रूप से शोषित-उत्पीड़ित और दमित जनसमूहों के पक्ष में तो खड़ा हो, लेकिन उसकी पूंछ बनकर नहीं, बल्कि उसका घनिष्ठ सहयोगी व सचेतक बनकर। वर्ना वह एक नयी विवादास्पद परिस्थिति में अपने को खड़ा पाएगा। वह एक ऐसी विवादात्मक परिस्थिति में अपने को खड़ा पाएगा जहां वह अकेला रह जाएगा यानी ठगा-सा रह जाएगा। वह खुद को एक लिजलिजे कीचड़ में धंसा हुए पाएगा। उत्पीड़ित दमित अल्पसंख्यक हो या दलित यदि वह मुक्तिकामी आंदोलनकारी के तौर पर अपना परिवर्धन-परिमार्जन नहीं करता तो निश्चय ही वह महज उसी व्यवस्था का एक कृत्रिम अंग बनकर रह जाएगा। वह स्वयं को तो डुबोएगा ही, आपको भी डुबो देगा।

          इसलिए व्यापक मानवतावादियों का कर्तव्य है कि वे सामयिक ही नहीं बल्कि दीर्घकालिक तौर पर उत्पीड़ितों की मुक्ति को ध्यान में रखकर और समस्त मानवता की मुक्ति को केंद्र में रखकर इनके साथ खड़े हों। ऐसा ही सोचकर हर एक जनवादी क्रांतिकारी को इनके पक्ष में डटे रहना चाहिए, न कि सिर्फ़ इनका हमदर्द दवाखाना बन जाना चाहिए। जनवादी और क्रांतिकारी व्यक्तियों या संगठनों को गेंद विपक्षी टीम के डी एरिया में उछाल कर फेंक देना चाहिए ताकि विपक्षी टीम के गोल पोस्ट को भेदा जा सके, वर्ना आप खुद ही गोल खा जाओगे और विपक्षी शत्रुवर्ग जीत जाएगा। तब होगा यह कि आप जिनकी मदद करने निकले थे, उन्हीं को शत्रुवर्ग अपने पक्ष में और आपके विरुद्ध खड़ा कर देगा।
                                     ★★★★★★★

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