बुरा बनता समाज
कारण क्या हैं?
क्या और भी बुरा बन रहा है समाज? - अक्सर ही यह सवाल आज हर व्यक्ति के मन में उठता है! अधिकांश लोगों का मन इसका एक ही उत्तर भी देता है- 'निश्चय ही!' क्यों? वही मन फिर उत्तर देता है- हमारा भारतीय समाज बदल ही नहीं रहा है बल्कि यह बहुत तेज गति से बदल रहा है।
सन् 1990 के बाद समाज के बदलाव ने तेज गति पकड़ ली। यह दौर था नयी-नयी नीतियों के आगमन का, यह दौर था एलपीजी यानी लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के आगमन का। इस दौर में केन्द्रीय सत्ता पर कांग्रेस का शासन था। इस दौर के प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी. इन्होंने नई अर्थ नीति, नई उद्योग नीति लागू की। इसी प्रक्रिया को अगले प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने परिवर्धित-परिमार्जित करके आगे बढ़ाया। आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं। इसका प्रभाव हमारे जन-जीवन के, हमारे समाज के हर आयाम पर पड़ रहा है। आज हम इसकी परिणति झेल रहे हैं। इसकी मार झेल रहे हैं।
दरअसल हमारे भारतीय समाज और भारतीय राजसत्ता की चारित्रिक विशेषताएं अलग-अलग हैं। हमारा समाज सामंती पिछड़ेपन का शिकार रहा है और आज भी यह पिछड़ापन चतुर्दिक विद्यमान है. यह समाज वर्ग-अन्तर्विरोधी होने के साथ-साथ जाति-अन्तर्विरोधी भी रहा है। परन्तु इसके बावजूद इस पिछड़े समाज में थोड़ा-बहुत सामाजिक समरसता भी देखी जाती रही है। यदि इसमें वर्ग-संघर्ष सहित जाति- संघर्ष चला होता तो यह कभी का खत्म हो गया होता। यहाँ के हिंदुओं की सभी जातियों के बीच पारस्परिक पारिवारिक संबोधन (बाबा-अम्मा, काका-काकी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, दादा-दादी आदि) के गुण पाये जाते हैं। इस एकमात्र विशेषता ने न केवल जाति को, न केवल वर्ण को बल्कि हिन्दू धर्म को भी अब तक अक्षुण्ण बनाए रखा है। चूंकि भारत की जनसंख्या में हिन्दुओं का हिस्सा लगभग 75 प्रतिशत है, इसीलिए यहां सभी जातियों और वर्णों के बीच भाईचारे की हल्की परम्परा भी रही है। और यही परम्परा विकसित होकर सभी धर्मो के साथ इसे जोड़ती रही है।
यही परंपरा इस समाज की समरसता का मूल कारक रही है। परन्तु ऐसा कहने का मतलब यह नहीं है कि यहाँ के सभी धर्म, सभी वर्ण और सभी जातियों के बीच खूनी संघर्ष नहीं रहा है। यहां भीषण लड़ाइयां हुई हैं। अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए सभी शोषित जनों ने इसका सामना किया है और अपने को बचाए रखा है। तभी यहाँ अनेक धर्मों, अनेक वर्णों और अनगिनत जातियों का अस्तित्व बना हुआ है। दूसरी तरफ भारतीय राजसत्ता यानी हमारा शासक वर्ग हमारे भारतीय समाज की चारित्रिक विशेषताओं को आत्मसात करते हुए कुछ विशिष्ट चारित्रिक विशेषताओं भी पाले हुए है। यह व्यवस्था कुछ -कुछ सामन्ती, जिसकी भावनाएं ब्राह्मणवादी हैं यानी सवर्ण हिंदूवादी हैं, तथा जो ऊपर-ऊपर से धर्म-निरपेक्ष परन्तु अन्तर्वस्तु में सर्वधर्म समभाव का आडम्बर ओढ़े रखती है। किन्तु सार रूप में यह हिंदूधर्म-सापेक्ष और सवर्ण हिन्दू सापेक्ष है। इसके अलावा इसके सभी प्रतिनिधि चाहें वे विधानसभा के हों या संसद सभा के सभी हिंदू धर्म सापेक्ष है और वे सभी धर्मों की सामंती शक्तियों को अपना प्रतिनिधि बनाते हैं। साथ ही वे देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के पार्टनर भी हैं।
इस तरह यह समाज व्यवस्था पूरी तरह राजसत्ता की अंग है। ऐसे में इस सामंती चरित्र वाले समाज को पूंजीवादी राह पर अग्रसर करने वाले लोग शासन कर रहे हैं और संपूर्ण देश की इस दौर का युवा पीढ़ी के उत्पादन का अतिरिक्त मूल्य को वे स्वयं हड़प जा रहे हैं। साथ ही इसे अपने मित्रों को उपहार स्वरूप भी भेंट कर रहे हैं। बदले में वह उनसे पार्टी फंड यानी मित्र-दक्षिणा भी प्राप्त कर रहे हैं। इस दौर की युवा पीढ़ी खासकर मध्यवर्ग की युवा पीढ़ी पूंजीवाद के कर्म वाहक बन गए हैं। आज की युवा पीढ़ी का आर्थिक सांस्कृतिक राजनीतिक और यौन संबंध पूर्व की पीढ़ी से इतर है। वह अलग धरातल पर खड़ा है। लिहाजा पूर्व पीढ़ी से उसका अलगाव है। वह अपने किसी भी निर्णय में अपने पूर्व के लोगों के साथ सामंजस्य बैठाने में एक इच्छा नहीं जाहिर करता। परिणामस्वरूप अलगाव भरी सोसाइटी और एक नए किस्म की सोसाइटी का जन्म हो रहा है। जबकि शासक वर्ग का समूचा तंत्र ब्यूरोक्रेट या नई नौकरशाही का चरित्र अपना चुका है, हमारा समाज अपने पिछड़ेपन के चलते न तो वैसा बन पा रहा है, न कुछ प्रगतिशील नया बनाने में सक्षम हो रहा है। यह अंतर्विरोध एक विकृत समाज की रचना कर रहा है। यह विकृत समाज बुरा से बुरा नहीं तो और क्या होगा!
★★★★★★
वाकई में नया जमाना आ गया है मूल्य और व्यक्ति को चेतना खतम होते जा रहे है
ReplyDeleteठीक कह रहे हैं राजेशजी!..पूँजीवाद अपने फ़ायदे के लिए यह जमाना बड़ी तेजी से ला रहा है!...
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