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बाघ चाहिए कि गाँव?...

                              बाघों के बहाने                वीरान होते गाँव                                                      ~राजकुमार सिन्हा     पर्यावरण के पिरामिड की चोटी पर बाघ विराजता है और उस पर मंडराता कोई भी संकट दरअसल पर्यावरण पर संकट माना जाता है। जाहिर है, ऐसे में किसी भी कीमत पर बाघ और उसके लिए जंगल बचाना ‘वैज्ञानिक वानिकी’ की ‘संतानों’ के लिए पुनीत कर्तव्य हो जाता है। इस धतकरम में उन लाखों-लाख आदिवासियों, वन-निवासियों की कोई परवाह नहीं की जाती जो पीढि‍यों से वनों में रचे-बसे हैं !...जिन्हें बाघ की खातिर बेदखल किया जा रहा है। प्रस्तुत है, इसी उठा-पटक को उजागर करता राज कुमार सिन्हा का यह लेख:      मध्यप्रदेश में आजकल राजधानी भोपाल से लगे हुए रातापानी अभयारण्य को 8 वां टाईगर रिजर्व बनाने की तैयारी चल रही है जिसमें 2170 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का प्रस्ताव तैयार किया गया है। इसमें राज्य के सीहोर और औबेदुल्लागंज के वन क्षेत्रों को शामिल किया गया है। इसके अंदर 32 गांवों के दस हजार परिवार निवासरत हैं। दूसरी ओर अलग- अलग ‘टाईगर रिजर्व’ के बीच कॉरीडोर बनाया जाना प्रस्तावित है जिसम