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Showing posts from June, 2021

आदिवासी विद्रोह की कथा

                    हूल आदिवासी विद्रोह                                 30 जून 1855 आदिवासी जनता भारत के स्वतंत्रता संग्राम की अग्रिम कतारों में रही है। भारत के मुख्य भूभाग में संघर्ष "शुरू होने से पहले ही आदिवासियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में अपना हथियारबंद प्रतिरोध शुरू कर दिया था। ऐसा ही एक संघर्ष ऐतिहासिक हूल विद्रोह था जो संथाल आदिवासियों के नायक, सिद्धू और कानो ने शुरू किया था। सिद्धू कानू चांद और भैरव संथाल परगना के बाघनदी गांव के नारायण माजी के 4 पुत्र थे। कानों का जन्म सन 1820 में हुआ था। संथाल परगना की राज महल पहाड़ियों को दमानी कोह, यानी, उड़ती पहाड़ियों के नाम से भी जाना जाता है। सिद्धू और कानों का बचपन बेहद गरीबी में गुजरा था। शुरू से ही उन्होंने स्थानीय जमींदारों और सूदखोरों को अंग्रेजों के समर्थन से क्षेत्र के संथाली को लूटते वह उनका शोषण करते हुए देखा था। स्थानीय जमींदार इन आदिवासी लोगों को दादान के रुप में रखकर इनसे मुफ्त श्रम कराते थे। वे विभिन्न बहानों के आधार पर इनकी जमीनों को छीन लेते थे। वे इनकी महिलाओं का भी यौन शोषण करते थे। उस सम

हूल दिवस पर एक कविता: तब और अब

एक कविता:                                हुल दिवस, 30 जून उनके पास ज़्यादा कुछ नहीं था दुश्मनों के पास बहुत कुछ था... जब युद्ध शुरू हुआ वे जानते थे कि हार जाएँगे किन्तु इससे क्या होता है?... कोई आपकी माँ की बेइज़्ज़ती करे आपके मुँह का कौर छीन ले बहू-बेटियों को निर्वस्त्र करे तो आप हार-जीत देखेंगे?... नहीं ना! वे भी भिड़ जाते हैं प्राणप्रण से लड़ते हैं   बचाते हैं  अपनी अस्मिता! ठीक यही हुआ था ठीक यही हो रहा है... फर्क़ सिर्फ़ इतना आया है कि उस घर के जो बाशिन्दे थे उनमें कुछ अब दलाल बन गए हैं... उनके लिए माँ-बेटी-बहू की जगह अपनी ज़िंदगी के अलग तर्क हैं दुश्मनों का साथ देने की अलग दलीलें हैं इसीलिए वे कुर्सियों पर हैं! उन्हें नहीं फ़िक्र कि उनकी कुर्सी के पाये दुश्मन की जंजीरों से बंधे हैं बंधी तो हैं उनकी दलीलें भी... किन्तु उन्हें फर्क़ नहीं पड़ता! उनके पुरखों को पड़ता था यही फर्क़ है- तब में, अब में!..                         ~ अशोक प्रकाश                        ★★★★★★★★

IDEA या किसानों की ज़िंदगी का समझौता?

                            क्यों कर रही सरकार              किसानों की ज़िंदगी से खिलवाड़? संयुक्त किसान मोर्चा ने आगाह किया है कि भारत सरकार को अपनी योजनाओं की भारी खामियों को अनदेखी करके, और बगैर पूर्ण परामर्श और उचित लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के कृषि में अपनी आईडिया डिजिटलीकरण (IDEA Digitisation) योजना में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। सरकार को विभिन्न कंपनियों के साथ वर्तमान समझौता ज्ञापनों को वापस लेना चाहिए। भाजपा-आरएसएस सरकार किसान आंदोलन की जायज मांगों को पूरा करने के बजाय साफ तौर से अहंकार के खेल में लिप्त है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि सरकार तीन काले कानूनों को निरस्त नहीं करे और सभी किसानों के लिए एमएसपी की गारंटी के लिए एक कानून न लाए। यह स्पष्ट है कि भाजपा के अपने नेता या तो कानूनों के बारे में चिंतित हैं या किसान आंदोलन के परिणामस्वरूप पार्टी के भविष्य के बारे में चिंतित हैं। हरियाणा के पूर्व मंत्री संपत सिंह ने हरियाणा भाजपा अध्यक्ष ओपी धनखड़ को पत्र लिखकर और पत्र को सार्वजनिक कर भाजपा हरियाणा राज्य कार्यकारिणी समिति में अपने  पद को ठुकरा दिया। इसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से किसान आं

किसानों-बेरोजगारों का धरना-योग बनाम सरकारी-चमत्कारी योग-दिवस!!

Yog माने पेट भरने का जोग!                               किसान-बेरोजगार का हठयोग योग से किसी को न तो वैर है, न किसी को इस पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानना चाहिए। वह बाबा रामदेव हों या गली मोहल्ले में आजकल योग की दुकान खोले अन्य बाबा और उनके चेले-चपाटे! योग जीवन की एक सामान्य शारीरिक क्रिया है, कार्य करने के क्रम में होने या किया जाने वाला व्यायाम है। इसकी किसी मेहनतकश को नहीं, खाए-अघाए लोगों को ही विशेष जरूरत पड़ती है। तो क्या योग का अति प्रचार भी जनता के अन्य जरूरी मसलों से ध्यान हटाने का माध्यम है?...या स्वास्थ्य/लोक कल्याण कार्यक्रमों से पूरी तरह पल्ला झाड़कर वही तथाकथित 'आत्मनिर्भर बनो' योजना?...ताकि लोग व्यवस्था पर सवाल न उठा योग न कर सकने की अपनी नियति पर ही अफ़सोस कर चुप रह जाएं?... शायद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग का ढोल पीटने के पीछे भी उस 'नई विश्व व्यवस्था' का आदेश है जिसमें पूरी दुनिया को एक डंडे से हाँकने की व्यवस्था की जा रही है!..        योगदिवस पूरे धूमधाम से मनाया गया। कितना सरकारी (जनता का) पैसा इसके प्रचार-प्रसार पर लगा, इसका हिसाब शायद ही कभी कोई दे। किसानों

संशोधित बिजली कानून जन-विरोधी क्यों है?..

                        संशोधित बिजली कानून                    लागू करने की निंदा  संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा दिल्ली की सीमाओं पर चलाए जा रहे किसान आंदोलन के 200 पूरे होने पर मोर्चा ने किसानों को मिलने वाली बिजली सब्सिडी के संबंध में भारत सरकार के द्वारा किए गए नीतिगत बदलावों की कड़ी निंदा की है। मोर्चा का कहना है कि यह कदम न केवल किसान विरोधी है, बल्कि आम जन विरोधी भी है। जैसा कि हम जानते है हाल ही मे वित्त मंत्रालय ने उन राज्यों को हताश किया है जो कृषि और किसानों को बिजली सब्सिडी प्रदान करते हैं। मंत्रालय ने कृषि संबंधी कुछ शर्तों के आधार पर राज्य सरकारों को अतिरिक्त ऋण देने का फैसला किया है यह शर्तें कुछ इस प्रकार है: इसमें उन राज्यों को अधिक अंक देने का प्रावधान है, जिनके पास कृषि कनेक्शन के लिए बिजली सब्सिडी नहीं है या कृषि मीटर खपत पर सब्सिडी नहीं है या इससे संबंधित खाता ट्रांसफर प्रणाली नहीं है।  किसान आंदोलन की प्रमुख मांगों में से एक, केंद्र सरकार द्वारा विद्युत संशोधन विधेयक 2020 के कानूनी रास्तों के द्वारा प्रयास करने के संदर्भ में किया गया है जिसमें कृषि में बिजली सब्सिडी

क्या मुख्यतः कम्पनीराज के खिलाफ़ है किसान आंदोलन?

                           किसान आंदोलन का                   कॉरपोरेट विरोध     संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में जैसे तीन किसान विरोधी कानूनों की वापसी के लिए संघर्ष लम्बा खिंचता जा रहा है, उसके स्वरूप में भी बदलाव आता जा रहा है। पिछले कुछ दिनों से मजदूर संगठन भी उसके समर्थन में दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचने लगे हैं। साथ ही इसे कानून वापसी की माँग से अधिक व्यापक बनाये जाने की भी कोशिश हो रही है। किसान आंदोलन इसे कॉरपोरेट या कम्पनीराज विरोधी आंदोलन के रूप में विकसित करने की कोशिश कर रहा है!... ★ कॉर्पोरेटों के खिलाफ धरना जारी रहेगा: यह काले कानूनों के खिलाफ एकजुट लड़ाई का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। लगातार चल रहा किसान आंदोलन भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की ओर जाने वाले मुख्य राजमार्गों पर पिछले आठ महीनों से जमा हुआ है।।  26 नवंबर 2020 को दिल्ली की सीमाओं पर लाखों आंदोलकारियों के पहुंचने से पहले कई राज्यों में महीनों तक कई विरोध प्रदर्शन हुए। इस लिहाज से यह आंदोलन और भी ज्यादा समय से चल रहा है।  हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार अपने जोखिम पर आंदोलनकारियों द्वारा उठाए जा रहे बुनियादी मुद्दो

Disadvantages of Blended mode of Teaching

                          ऑनलाइन शिक्षा e-education                     Blended mode of Teaching  Prof.Arun Kumar, Gen. Secy. of AIFUCTO, an organization of  teachers of Universities and  colleges all-over India, expressed deep concern on so called 'blended mode of education'. In a letter to the Chairman of University Grant Commission- UGC, he uncovered the real motive of this move elaborating, saying that ' There are about 1000 Universities, 40,000 Colleges, around 4 crore students and 15 lack teachers in India. If such a drastic and major decision was to be taken, there should have been wider consultation between  the Government and all the academic stake holders...' AIFUCTO’S RESPONSE TO THE PUBLIC NOTICE D. NO. 1-9/2020 (CPP=II) OF UGC DT. 20.05.2021 ON THE DRAFT CONCEPT NOTE ON BLENDED MODE OF TEACHING AND LEARNING IN EDUCATIONAL INSTITUTIONS. It is extremely disturbing that the UGC has brought out a draft notification on 20.05.2021 on the Blended mode of Teaching

मंदसौर की शहादतों ने कैसे लगाई किसानों के दिल में आग?

मंदसौर की शहादत      मंदसौर की शहादत के मायने   कर्ज में डूबे मध्यप्रदेश के किसान लंबे समय से किसानों की आत्म हत्याओं और  कर्जमाफी के लिए आन्दोलित थे। इस पर  किसानों का मजाक उड़ाते हुए मुख्यमंत्री द्वारा यह कहना कि आत्महत्याओं का कारण कर्ज नहीं, कुछ और है; जले पर नमक छिड़कने जैसा था। नोटबन्दी के कारण किसानों की हालत पहले से ही खराब थी।  चुनाव में भाजपा द्वारा स्वामीनाथन आयोग के आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीद से यह कहकर पीछे हट गई कि यह संभव नहीं है। सरकार की ही प्रचारित-प्रसारित प्रेरणाओं पर विश्वास कर किसानों  द्वारा किए गए प्याज के भारी उत्पादन के बाद किसानों को लागत से भी काफी कम मूल्य पर ( चार रुपये किलो) प्याज बेचने के लिए विवश कर दिया गया। फलतः सड़क पर ही किसानों द्वारा प्याज फेंकने के लिए मजबूर होना पड़ा।  इन्हीं परिस्थितियों में आंदोलनरत किसानों पर 6 जून 2017 को गोलियाँ चलाकर छह किसानों की हत्या कर दी गई। ये ऐसे जख्म हैं जिन्हें मंदसौर, मालवा या मध्यप्रदेश के किसान ही नहीं, पूरे देश के किसान कभी न भूल पाएंगे। समाचारों के अनुसार गुस्साए किसानों ने कुछ स्थानों पर रेल पटरियो

तेजी से बढ़ रहा उत्तरप्रदेश में किसान आंदोलन

किसान आंदोलन के नए आयाम                    और तेज हो रहा किसान आंदोलन                    भाजपा के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और           प्रशासन के कार्यालयों के सामने 3 कृषि अध्यादेशों की                  प्रतियां जलाकर जताया किसानों का रोष संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान पर जहाँ दिल्ली की सीमाओं सहित पूरे देश के अलग-अलग हिस्सों में किसानों ने सांसदों, विधायकों और सरकारी दफ्तरों के सामने किसान क़ानूनों की प्रतियाँ जलाकर विरोध प्रदर्शन किया गया; वहीं उत्तर प्रदेश के कई नए इलाकों में भी किसान आंदोलन विकसित होने के उत्साहबर्द्धक संकेत मिले। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के गाँव सुखरावली में 26 मई के किसानों के काला दिवस मनाने पर किसानों के खिलाफ झूठे पुलिस मामलों को वापस लेने की मांग करते हुए किसान गांव में ही धरने पर बैठ गए। साथ ही सांसद आवास के समक्ष कानूनों की प्रतियां जलाकर सांसद को ज्ञापन देकर काले कानूनो को वापस लेने की मांग की। किसानों ने जिलाधिकारी से भी मिलकर अपना प्रकट किया। भाकियू-टिकैत, बेरोजगार मजदूर किसान यूनियन, अखिल भारतीय किसान सभा, भाकियू-अम्बावता, भाकियू-स्वराज, भाकियू-म

शिक्षक क्यों उठाते रहे हैं नेताओं और संगठनों पर सवाल?..

क्या नेता दोषी हैं?                                 सचमुच शिक्षक हैं तो    सवाल उठाएंगे, सीखेंगे, सिखाएँगे! वैसे तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम जनता के पास उसके संगठन और आंदोलन ही दुर्व्यवस्थाओं से लड़ने के मुख्य अस्त्र माने जाते हैं, किन्तु यदि कुछ निहित स्वार्थों के चलते संगठनों के नेता जनता का विश्वास खोने लगें तो वह क्या करे? आजकल यह सवाल नेताओं को छोड़कर अधिकतर जनता के दिमाग को मथने लगा है। आज  हालत यह है कि 'प्रचण्ड बहुमत' देकर भी जनता ने जिस भी दल को जिताया वह सबसे ज़्यादा जन-विरोधी निकला।  राजनीतिक दलों ने तो एक के बाद एक जनता का विश्वास खोया ही है, ट्रेड यूनियनों- कर्मचारियों और शिक्षकों के संगठनों के लिए  यह और भी चिंता का विषय है।  माना जाता है कि शिक्षक संगठन पढ़े-लिखे बुद्धजीवियों के संगठन हैं, बड़े संघर्षों के बाद  ये संगठन खड़े हुए हैं। लालच की ख़ातिर 24 घण्टे में चार दल बदलने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं की तरह इन संगठनों के नेता भी हो जाएंगे, ऐसी उम्मीद कोई नहीं करता! लेकिन आजकल संसदीय चुनावों के समय देखा जाता है कि  शिक्षक संगठन  के कुछ बड़े नेतागण भी पंचायत चुनाव में

चेतावनी दिवस के मायने

                      किसान संघर्षों के                     नए आयाम   संयुक्त किसान मोर्चा ने 5 जून को सम्पूर्ण क्रांति दिवस के अवसर पर किसानों से आह्वान किया है कि वे देश भर में भाजपा सांसदों, विधायकों के आवासों एवं कार्यालयों के सामने किसान कानूनों की प्रतियाँ जलाकर यह जताएँगे कि किस तरह भाजपा किसान विरोधी है। ज्ञातव्य है कि पिछले वर्ष 5 जून को ही  किसान विरोधी कृषि कानून विधेयक के रुप में घोषित हुआ था। यही तिथि जयप्रकाश आन्दोलन के संपूर्ण क्रांति दिवस की भी है। इस संपूर्ण क्रांति दिवस को चेतावनी दिवस के रूप में भी मनाया जाएगा। चूँकि किसान इस दिन सीधे भाजपा के स्थानीय नेताओं को किसान विरोधी चिह्नित करने का प्रयास करेंगे, भाजपा नेताओं की कार्यशैली के जानकार यह मानते हैं कि वे इसे सहज-सामान्य रूप में संभवतः नहीं लेंगे। ऐसे में भाजपा के विशेष प्रभाव वाले क्षेत्रों में स्थिति असामान्य हो सकती है। दूसरी तरफ हरियाणा के टोहाना में इकट्ठे हुए किसानों की बैठक में फैसला लिया गया कि आने वाली 7 जून को 11 बजे से 1 बजे तक हरियाणा के सभी पुलिस थानों का घेराव किया जाएगा। जजपा विधायक देवेंद्र बबली द्

किसान आंदोलन: परीक्षा का समय

किसान बेवकूफ नहीं!                                       किसान आंदोलन:            परीक्षा का समय                संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किस  आंदोलन इन दिनों दोहरी परीक्षा से गुजर रहा है। एक तरफ बारिश और तूफान के कारण सीमाओं पर भारी नुकसान हुआ है, सिंघू व टिकरी बॉर्डर पर मुख्य मंच सहित किसानों के बड़ी संख्या में टेंट क्षतिग्रस्त हुए हैं। वहीं दूसरी तरफ दिल्ली से सटे हरियाणा में किसानों के बहिष्कार आंदोलन से चिढ़े भाजपा नेता किसानों को हिसा के लिए उकसाकर उनसे भिड़ने की नीति पर चल रहे हैं।   हरियाणा के टोहाना में विधायक देवेंद्र बबली के कार्यक्रम का किसान संगठनों द्वारा विरोध किया गया। किसानों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन को हिंसक रंग देने के उद्देश्य से विधायक ने किसानों के साथ गाली गलौच की व अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया। इसके बाद किसानों ने विरोध जारी रखा तो पुलिस द्वारा लाठीचार्ज करवाया गया। जिसमें हरियाणा के जुझारू किसान ज्ञान सिंह बोडी, सर्वजीत सिद्धु और बूटा सिंह फतेहपुरी को गहरे चोटें भी आई। संयुक्त किसान मोर्चा इस बेरहम कार्रवाई की निंदा करता है। किस

सरकारी नहीं, दिहाड़ी नौकर चाहिए!..

पालतू तीतर          सरकारी नौकर नहीं चाहिए!   जी हुज़ूर, सरकार बहादुर को सिर्फ़ दिहाड़ी नौकर चाहिए! ताकि हुज़ूरे-आला जब तक और जैसे चाहें उसका खून-पसीना पिएं और जब चाहें लात मारकर निकाल दें। बुरा लगता है ऐसा सुन-सोचकर? पर क्या यह सही नहीं है कि सामंतों की तरह पूँजीपति और उनकी कम्पनियाँ ऐसा ही करती हैं? और जब कोई सरकार ऐसा ही चाहे तब उसको क्या कहें? नाम से क्या फर्क़ पड़ता है- दिहाड़ी कहिए या ठेका मजदूर अथवा संविदा कर्मचारी! सोचने पर विश्वास करने का मन नहीं करता!... आख़िर हम संविधान के आधार पर चलने वाले देश के लोग हैं! पर असलियत हमारे हर मुगालते पर मुक्का मारती है। उसी तरह जैसे घूस या भ्रष्टाचार कहीं लिखित नहीं है लेकिन छोटे-बड़े हर ऑफिस में सर्वशक्तिमान की तरह विराजमान है। नेता, मंत्री, अधिकारी और हाँ, कर्मचारी भी किसी भी नियम से 'दो नम्बरी' काम के लिए नहीं हैं पर जिस भी आदमी को काम कराना हो, असलियत पता लग जाएगी। और अब यह सब इतना आम हो गया है कि 'ईमानदार' शब्द ही मजाक लगने लगा है। वैसे ही जैसे किसी को कहा कि वह सीधा है, गऊ है तो इसका मतलब यही माना जाता है कि यह किसी काम का नहीं!.