किसान-बेरोजगार का हठयोग
योग से किसी को न तो वैर है, न किसी को इस पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानना चाहिए। वह बाबा रामदेव हों या गली मोहल्ले में आजकल योग की दुकान खोले अन्य बाबा और उनके चेले-चपाटे! योग जीवन की एक सामान्य शारीरिक क्रिया है, कार्य करने के क्रम में होने या किया जाने वाला व्यायाम है। इसकी किसी मेहनतकश को नहीं, खाए-अघाए लोगों को ही विशेष जरूरत पड़ती है। तो क्या योग का अति प्रचार भी जनता के अन्य जरूरी मसलों से ध्यान हटाने का माध्यम है?...या स्वास्थ्य/लोक कल्याण कार्यक्रमों से पूरी तरह पल्ला झाड़कर वही तथाकथित 'आत्मनिर्भर बनो' योजना?...ताकि लोग व्यवस्था पर सवाल न उठा योग न कर सकने की अपनी नियति पर ही अफ़सोस कर चुप रह जाएं?... शायद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग का ढोल पीटने के पीछे भी उस 'नई विश्व व्यवस्था' का आदेश है जिसमें पूरी दुनिया को एक डंडे से हाँकने की व्यवस्था की जा रही है!..
योगदिवस पूरे धूमधाम से मनाया गया। कितना सरकारी (जनता का) पैसा इसके प्रचार-प्रसार पर लगा, इसका हिसाब शायद ही कभी कोई दे। किसानों-मजदूरों की दशा किस योगी से कम है?.. उनके पेट-पीठ पहले से ही एक है। बेरोजगार तो कहीं न कहीं रोज धरना-योग पर बैठे हैं!
कहते हैं कृष्ण, जिस शब्द से किसान शब्द व्युत्पन्न हुआ है, योगी थे। नहीं होते तो शायद किसानी-कृषि संस्कृति का इस तरह विकास नहीं होता। कुछ निश्चित पता नहीं, पर किसान तो आज हठयोग पर है! दिल्ली की सीमाओं पर ही नहीं, पूरे देश भर में- कृषि, खेती-बाड़ी को बचाने के हठयोग पर। किन्तु सचमुच हठयोगी कौन सिद्ध होता है- किसान या सरकार, देखना बाकी है।
क्या किसानों की बात ज़्यादा जरूरी नहीं है 'योग दिवस' के प्रचार-प्रसार से?...आपको क्या लगता है?..व्हाट्सएप पर वायरल एक मैसेज पढ़ें:
"कुछ टिप्स हैं :-
जिनकी नौकरी छूट गई है, वे किसी बंद कंपनी के सामने ताड़ासन करें।..दुख हल्का होगा...!
जिनके घर में आटा दाल की दिक्कत है...
वे सुबह शाम मंडूकासन करें, भूख नहीं लगेगी...!
और जिन्हें loan की किस्त भरनी है, वो शवासन की मुद्रा में लेटे रहें, अनुलोम विलोम बैंक वाले करेंगे!...."😂
★★★★★★★
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