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शिक्षक क्यों उठाते रहे हैं नेताओं और संगठनों पर सवाल?..

क्या नेता दोषी हैं?                  

             सचमुच शिक्षक हैं तो

   सवाल उठाएंगे, सीखेंगे, सिखाएँगे!


वैसे तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम जनता के पास उसके संगठन और आंदोलन ही दुर्व्यवस्थाओं से लड़ने के मुख्य अस्त्र माने जाते हैं, किन्तु यदि कुछ निहित स्वार्थों के चलते संगठनों के नेता जनता का विश्वास खोने लगें तो वह क्या करे? आजकल यह सवाल नेताओं को छोड़कर अधिकतर जनता के दिमाग को मथने लगा है। आज 
हालत यह है कि 'प्रचण्ड बहुमत' देकर भी जनता ने जिस भी दल को जिताया वह सबसे ज़्यादा जन-विरोधी निकला। राजनीतिक दलों ने तो एक के बाद एक जनता का विश्वास खोया ही है, ट्रेड यूनियनों- कर्मचारियों और शिक्षकों के संगठनों के लिए
 यह और भी चिंता का विषय है। 

माना जाता है कि शिक्षक संगठन पढ़े-लिखे बुद्धजीवियों के संगठन हैं, बड़े संघर्षों के बाद  ये संगठन खड़े हुए हैं। लालच की ख़ातिर 24 घण्टे में चार दल बदलने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं की तरह इन संगठनों के नेता भी हो जाएंगे, ऐसी उम्मीद कोई नहीं करता! लेकिन आजकल संसदीय चुनावों के समय देखा जाता है कि शिक्षक संगठन के कुछ बड़े नेतागण भी पंचायत चुनाव में 'सदस्य' तक बनने के लिए जोड़-तोड़ करते दिखते हैं। एमएलए-एमएलसी की सीट किसी तरह से किसी भी जिताऊ पार्टी से मिल जाए, इसके लिए शीर्षासन से लेकर मण्डूकासन तक सब कुछ करने को ऐसे नेतागण तैयार दिखते हैं। हर पार्टी के झंडा-रंग के कुर्ते इनके यहाँ सिले-सिलाए रखे मिल जाएंगे। पूछिए कि आखिर आप 'माननीय' बनने के लिए इतने व्यग्र क्यों हैं? जवाब वही घिसापिटा- 'ज़्यादा सेवा'! न इन्हें झूठ बोलने में लाज आती है, न इनके सेवकों को इन्हें 'सेवा का मौका' देने में! अगर सचमुच ये जो कहते हैं उसका अर्द्धांश भी करते तो आज यह हालत न होती कि एक-एक कर शिक्षकों से पेंशन सहित सारी सुविधाएं छीन ली जातीं। देखा यह गया कि कोई नेता किसी संगठन को वास्तविक संघर्ष से जोड़ता भी है तो दस शिक्षकों को भटकाने-भरमाने में लग जाते हैं।

यह क्या दर्शाता है? यही कि आज लोकतांत्रिक चेतना का ही नहीं, नैतिक मूल्यों का भी तेजी से ह्रास होता जा रहा है। राजनीति में जन-पक्षधर सोच के अभाव ने हमारे देश के लोगों को सदियों गुलाम बनाए रखा, अगर फिर वैसा ही होने लगे तो समझिए कि हम किसी एक देश-एक कम्पनी के नहीं, न जाने किन देशों और कितनी कम्पनियों के गुलाम बनने जा रहे हैं। 

पिछले डेढ़ सौ सालों में दुनिया में बहुत बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। दुनिया भर के लोगों ने यह प्रदर्शित किया कि गुलामी से बुरी चीज कोई नहीं! इसीलिए चाहे राजे-नवाबों-बादशाहों की गुलामी रही हो, चाहे किन्हीं देशों और कम्पनियों की; आम जनता ने उन्हें उखाड़ फेंका और इसका उसे बहुत फ़ायदा मिला। लेकिन संघर्ष कभी भी एकतरफा नहीं होता। चाहे राजा, नवाब, बादशाह रहे हों चाहें देश और कम्पनियाँ; वे हमेशा अपनी सत्ता की पुनर्स्थापना, अपने उपनिवेश/निवेश के लिए सक्रिय रहे हैं। लगभग सौ साल बाद हम देख रहे हैं कि आज के कम्पनीराज में सारे राजे-नवाब समाहित हो गए। उन्होंने, प्रेमचंद के शब्दों में कहें तो 'मीठी बोली बोलने वाले' शेर का बाना धारण कर लिया। फर्क़ सिर्फ़ इतना हुआ है कि जो जितनी मीठी और झूठी बोली-बानी सीख ले, आज वही शेर। तमाम सारे खरगोश-हिरन खुद-ब-खुद उसकी सेवा में हाज़िर- 'हुज़ूर, लो हमें खाओ और मोक्ष प्रदान करो!' इस मामले कुछ 'जनसेवक' राजाओं-महाराजाओं से भी बाजी मार ले गए हैं। उनके झुकने, बोलने, रंग बदलने का अंदाज़ ही निराला है। इसीलिए उनमें शेरों के साथ सियारों, भेड़ियों, मगरमच्छों यहाँ तक कि उल्लू जैसे पशुओं-पक्षियों की विशेषताएँ भी अंतर्निहित हो गई हैं। फलतः सब कुछ डकार कर भी भुक्खड़, भिखारी या संन्यासी बन झोला धारण करने की काबिलियत भी उनमें देखी जा सकती है।

...तो क्या ऐसा ही नेता-बाना धारण करने की कामना हमारे शिक्षक नेताओं की भी है? क्या इसीलिए शिक्षक हितों का नाम लेकर शिक्षकों को ऐंठने और शिक्षकों को नाकारा बताने के हर सरकारी फरमान का ये इसीलिए 'उस तरह नहीं, इस तरह से' अंदाज़ में समर्थन करते हैं? कोरोना के बहाने हर शिक्षक की जेब काटी गई। लेकिन जब चुनाव सम्बन्धी शासकीय नीतियों से कोरोना बढ़ा और शिक्षक साथियों की कोरोना से असामयिक मृत्यु से दिल दहलने लगा तो हाईकोर्ट के निर्णयानुसार एक करोड़ मुआवज़ा दिलाने का दबाव बनाने की जगह दुबारा शिक्षकों पर ही धन-संग्रह करने का दबाव बनाया जाने लगा कि 'एक दिन का वेतन दो'! वह भी इनके कहे अनुसार। कुछ शिक्षक साथियों और संगठनों ने जब कोरोना का शिकार हुए साथियों के परिजनों के खाते उपलब्ध करा उनमें पैसा डालने की वक़ालत की तो इन नेताओं को अखरने लगा।...क्यों?

ऐसे में शिक्षक संगठनों और नेताओं पर कोई सवाल उठाता है तो इन्हें बुरा लगता है। अगर हर शासकीय नीति की हाँ-में-हाँ ही मिलाना है, जैसा कि आजकल देखा जा रहा है, तो संगठनों और नेताओं की जरूरत ही क्या? यह बड़ा बुरा प्रश्न है। बिना संगठन और उनके नेताओं के और बुरे दिन आएंगे। लेकिन आम शिक्षकों के हित के नाम पर किसी संगठन के नेतागण अगर व्यक्तिगत हित-साधन करेंगे तो सवाल तो उठेगा ही।

हो सकता है नेताओं और संगठनों पर उठते सवालों से ही अच्छे जवाब मिलें, एकजुटता और संघर्ष को बल मिले! सवाल ही हैं जिनके सही और सटीक जवाब दुनिया बदलते हैं! किसान आंदोलन ने इसकी एक मिसाल पेश की है।
                              ★★★★★★★

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