किसान आंदोलन भी राजनीति का शिकार
हो रहा है क्या?..सवाल लाज़िमी है!..सवाल उठ रहा है, सवाल उठेगा भी! जब जीवन के हर पहलू को राजनीति संचालित कर रही है तो किसान आंदोलन राजनीति से अछूता कैसे रह सकता है?
तो क्या किसान आंदोलन राजनीति का शिकार होगा? या यूँ कहें क्या किसान आंदोलन भी अन्ततः एक राजनीतिक स्वरूप लेगा? ऐसे सवाल आमजनता के मन में उठना स्वाभाविक है। न तो अपने किसान संगठन के आगे 'अराजनीतिक' लगाने वाले इस सवाल से बच सकते हैं और न ही किसान आंदोलन के सहारे राजनीति करने वाले ही। वे भी इससे नहीं बच सकते जो 'किसान राजनीति' कहकर किसान आंदोलन को संसदीय राजनीति से अलग कहते हैं। तो यह विचार करना जरूरी है कि आख़िर 'राजनीति' है क्या? क्या विधायक-सांसद बनना-बनाना ही राजनीति है या जनता से उगाहे जाते पैसों को वारा-न्यारा करने की नीति है 'राजनीति'?...
तो क्या किसान आंदोलन राजनीति का शिकार होगा? या यूँ कहें क्या किसान आंदोलन भी अन्ततः एक राजनीतिक स्वरूप लेगा? ऐसे सवाल आमजनता के मन में उठना स्वाभाविक है। न तो अपने किसान संगठन के आगे 'अराजनीतिक' लगाने वाले इस सवाल से बच सकते हैं और न ही किसान आंदोलन के सहारे राजनीति करने वाले ही। वे भी इससे नहीं बच सकते जो 'किसान राजनीति' कहकर किसान आंदोलन को संसदीय राजनीति से अलग कहते हैं। तो यह विचार करना जरूरी है कि आख़िर 'राजनीति' है क्या? क्या विधायक-सांसद बनना-बनाना ही राजनीति है या जनता से उगाहे जाते पैसों को वारा-न्यारा करने की नीति है 'राजनीति'?...
पंजाब का चुनावी सबक:
वैसे तो किसान आंदोलन से जुड़े कई नेता पहले चुनाव लड़ चुके हैं। लेकिन संयुक्त किसान मोर्चा या एसकेएम ने पंजाब चुनाव से पहले तक संसदीय राजनीति से दूर रहने के ही संकेत दिए थे। पंजाब चुनाव के समय भी एसकेएम से जुड़े कई बड़े किसान संगठन इस विधानसभा चुनाव से दूर ही रहे। लेकिन इनमें से भी कई किसान संगठन राजनीतिक दलों के किसान फ्रंट हैं और उनके नेता भी अपनी राजनीतिक पार्टियों से चुनाव लड़ते रहे हैं। इनमें वामपंथी दलों के किसान फ्रंट या संगठन भी हैं और गैर-वामपंथी दलों के किसान संगठन भी। ऐसे में संयुक्त किसान मोर्चा के अ-राजनीतिक होने पर सवाल उठना स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही कही जाएगी।
केन्द्र सरकार द्वारा तीन किसान कानून वापस लिया जाना निश्चित ही इतिहास में एसकेएम के नेतृत्व में चलाए गए किसान आंदोलन की एक बड़ी जीत के रूप में दर्ज़ रहेगी। किन्तु इन कानूनों की वापसी के साथ ही पंजाब चुनाव में किसान आंदोलन के कई संगठनों द्वारा संयुक्त समाज मोर्चा और संयुक्त संघर्ष पार्टी बनाकर लड़ा गया चुनाव भी इतिहास में दर्ज़ रहेगा। यह सवाल भविष्य में भी उठता रहेगा कि वोट देने वाली जनता क्या जन-आंदोलन के गैर-राजनीतिक रहने पर ही उसका समर्थन करती है या वोट न देने वाली जनता ही मुख्यतः जन-आंदोलन का समर्थन करती है? पंजाब चुनाव में किसान आंदोलन से जुड़े नेताओं की चुनाव में भागीदारी और उसके परिणामों ने इस विषय पर चिंतन को और आगे बढ़ाया है।
पंजाब चुनाव में संयुक्त समाज मोर्चा और संयुक्त संघर्ष पार्टी ने कुल 94 विधानसभा क्षेत्रों से चुना लड़ा। इनमें से सिर्फ़ एक प्रत्याशी लखवीर सिंह लक्खा सिधाना ही अपनी जमानत बचा सके। ध्यातव्य है कि चुनाव में जमानत बचाना किसी प्रत्याशी की चुनावी प्रतिष्ठा की अभिव्यक्ति मानी जाती है। प्रत्याशी को विधानसभा चुनाव के समय चुनाव अधिकारी के पास 10 हजार रुपए जमा करने होते हैं। इसे ही जमानत कहा जाता है। अगर प्रत्याशी को कुल मतदान का छठवाँ भाग यानी 16.67% मत नहीं मिलता है तो यह जमानत राशि जब्त कर ली जाती है। पंजाब चुनाव में संयुक्त समाज मोर्चा द्वारा मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए गए बलबीर सिंह राजेवाल को महज 4,626 वोट ही मिला और अपने चुनाव क्षेत्र समराला में पाँच प्रत्याशियों ने उनसे अधिक वोट हासिल किए। संयुक्त समाज मोर्चा और गुरनाम सिंह चढूनी के नेतृत्व वाले संयुक्त संघर्ष पार्टी के प्रत्याशियों की ऐसी हार का मुख्य कारण चुनावी 'गणित' में उनका फेल रहना है। आप अर्थात आम आदमी पार्टी ने भी इसमें अपना पूरा योगदान दिया। आप ने एक तो चुनाव के पहले और चुनाव के समय एसकेएम के नेतृत्व में चलाए जा रहे किसान आंदोलन का खुल्ला समर्थन किया, दूसरे चुनाव के ऐनवक़्त भी राजेवाल को चुनाव बाद मुख्य भूमिका देने का वादा कर उन्हें और उनके साथियों को आप से जुड़ जाने की बात कही। संयुक्त समाज मोर्चा द्वारा इसे खारिज़ कर देने पर आप को सहज ही जनता का नैतिक समर्थन मिल गया। संयुक्त समाज मोर्चा पर इसका उल्टा असर पड़ा। यही नहीं किसी तरह चुनाव के समय संयुक्त समाज मोर्चा को चुनाव आयोग में रजिस्ट्रेशन तो मिल गया किन्तु तकनीकी कारणों से उनके हर प्रत्याशी को निर्दलीय के रूप में अलग-अलग चुनाव-चिह्न मिला। इसका भी दुष्प्रभाव इस मोर्चा के चुनाव परिणामों पर दिखाई दिया।
चुनाव के लाभ-लोभ और किसान आंदोलन:
हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने संसदीय चुनावों में जीतने वाले नेताओं के लिए लाभ और लोभ के असीमित अवसर खोल रखे हैं। चुनाव लड़ने वाला नेता यहाँ चक्रवर्ती सम्राट तक बनने की कल्पना कर सकता है। यही कारण है कि बिना पैसे के भी एक साधारण व्यक्ति यहाँ अपने करतबों से जैसे महात्मा बन सकता है वैसे ही प्रधानमंत्री भी। उसके करतब पैसे वाले पूंजीपतियों को अपने आप उसके साथ खड़ा कर देते हैं। विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री आदि बनने पर वह जिस पद और प्रतिष्ठा के शिखर पर होता है, साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए भी वह साध्य-आराध्य बन जाता है। दरअसल ऐसी स्थिति में उसके पास पुण्यात्मा और पापी दोनों कहलाने या विकल्प चुनने का भी अवसर होता है। छोटा-मोटा काम कराने-करने से लेकर वैध-अवैध का अमृत-रस पीने और बरसाने के लिए भी सरस-सरिता उसके निकट निरन्तर प्रवाहित होती रहती है।
ऐसे में 'अस्थिचर्ममय देह' वाले किसान आंदोलन के नेता भी कम से कम साधारण जन जैसा तो सोच सकते ही हैं। न कोई अपराध, न अन्तरात्मा में टीस सी उभरने वाली कोई बात! मजबूरी का बिल्ला ऐसे में बड़ा सुहाना लगता है। भला और कोई क्या करे? चुनाव से ही देश का उद्धार होना है, किसान का उद्धार होना है, मजदूर-मजबूर-बेरोजगार का उद्धार होना है। आपातकाल के बाद के खट्टे-मीठे उदाहरण और अनुभव किसान नेताओं के पास हैं। आकर्षण भी, विकर्षण भी है। लेकिन और चारा क्या है? - अगर किसान आंदोलन के कुछ नेता ऐसा सोचते और सकारात्मकता के साथ इस पर आगे बढ़ते हैं तो कम से कम आपातकाल के बाद का परिणाम तो मिल ही सकता है।
ऐसी ही सोच के आलोड़न-विलोड़न में आज जूझ रहा है किसान आंदोलन और राजनीति का सवाल। किसान-राजनीति का मतलब चुनाव लड़कर, राजसत्ता के सिंहासन पर चढ़कर किसानों का भला करने, उनके हित में नीति-नियम बनाने के अलावा और क्या? आप नीतीश कुमार बनेंगे, लालू यादव, अटल बिहारी वाजपेयी या जयप्रकाश नारायण या कुछ और- यह समय बताएगा। क्या पता समय यही बता दे कि किसान आंदोलन व्यवस्था-परिवर्तन का वाहक बनने के सिवा और कुछ नहीं बन सकता। किसान आंदोलन के कुछ नेता सम्भवतः ऐसा भी सोचते हैं।
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