हे, हे लक्ष्मी के वाहन!
मुझे लगता है जातिवाद दूर करने का एक बढ़िया सूत्र अब तक लोगों को मालूम नहीं है। यह सूत्र मानने और अपनाने से कम से कम सभी जातियाँ एक ही संबोधन से जानी जाएँगी।...प्रायः हर धर्म-जाति के लोग कभी न कभी इसका इस्तेमाल कर खुश होते हैं। खासकर तब जब यह किसी और के लिए इस्तेमाल किया जा रहा हो! फिर भी इस अखिल धरा पर किसी न किसी रूप में कभी न कभी सभी इस लोकप्रिय संबोधन से नवाज़े गए हैं।
सभी प्रकार के जातिवादी लोग (पब्लिक/राजनीति में सभी जाति के लोग खुद को जातिवादी न कहकर बाकी सबको जातिवादी कहते हैं!) अगर अपनी जाति -'उल्लू का पट्ठा' लगाने लगे तो लोगों को देश की 3000 से अधिक जातियों के नाम से जानने की एक ही जाति 'उल्लू का पट्ठा' नाम से जाना जाएगा। इससे जातिवाद के खात्मे में कुछ तो मदद मिलेगी! मतलब 2999 जातियाँ खत्म हो जाएंगी।
वैसे यह 'जाति' शब्द भी 'ज' क्रियाधातु से व्युत्पन्न हुआ है जिससे 'पैदा होना'..'इस तरह पैदा हुआ' आदि का बोध होता है। उदाहरणार्थ आदमी आदमी की ही तरह पैदा होता है, सुअर या उल्लू की तरह नहीं। 'उल्लू का पट्ठा' शब्द से भी उल्लू से पैदा हुआ या उल्लू जैसे आदमी से पैदा हुए इंसान का बोध होता है।
उल्लू वैसे भी लोगों को बहुत प्रिय है। मुझे लगता है सर्वे कराने पर 'गधा', 'कुत्ता' या 'बैल' 'गाय' आदि कहे जाने की अपेक्षा लोग 'उल्लू' कहलाना ज़्यादा पसंद करेंगे!... खुद को हिन्दू मानने वालों के लिए तो यह और भी लाभदायक लगेगा, क्योंकि उल्लू को हिंदुओं की धनदेवी 'लक्ष्मी' का सेवक या सवारी माना गया है।...और लक्ष्मी किसे प्रिय नहीं होंगी?..
तो प्रेम से बोलिए 'जय श्री उल्लू महाराज!', 'उल्लू जाति की जय!', 'उल्लू समाज ज़िंदाबाद!'
★★★★★★★★
Comments
Post a Comment