महात्मा की कहानियाँ :
दो:
महात्मा नहीं परमात्मा!..
(कॉमा अपने आप लगा लीजिए)
【 पिछले अंश में आपने महात्माजी का संक्षिप्त परिचय पाया था। आपने जाना था कि महात्माजी कोई साधारण आदमी नहीं हैं। उनके बारे में तरह-तरह की धारणाएँ हैं~ कि वे पहुँचे हुए आदमी हैं, धूर्त हैं, सीआईए के एजेंट हैं...आदि-आदि। लेकिन तब सब चौकन्ने हो गए जब महात्माजी ने कहा कि "सावधान कर रहा हूँ, बैंक में रखा अपना सारा पैसा निकाल लो! बैंक में रखा पैसा अब सुरक्षित नहीं रह गया है!.." अब आगे..】
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मुझे दो दिन पहले रग्घूचचा की बात ध्यान हो आई। उन्होंने कहा था कि महात्मा पर कभी विश्वास न करना, पूरा रँगा सियार है। चोरों से मिला हुआ है और इसका असली काम ठगी है। महात्मई भेस धारन किए घूमता है लेकिन लोगों को लुटवाता हैं। लुटेरे इसे कमीसन देते हैं!..'
लेकिन मुझे रग्घूचचा की बात पर ही भरोसा नहीं होता। वे भाँग के आदी हैं और कब क्या बक दें, पता नहीं। हाँ, हैं वे बड़े भले आदमी! पूरा गाँव यह मानता है।
महात्माजी अब तक मुझे भांप चुके थे। बोले- "हर बात पर संदेह करना लोगों की आजकल आदत हो गई है। लोग महात्मा तो क्या परमात्मा पर भी भरोसा नहीं करते! घोर कलयुग है, घोर कलयुग!"..
" नहीं...नहीं महात्माजी! लेकिन आप ठीक से बताइए तो!..भला बैंक में रखा पैसा सुरक्षित नहीं है तो कहाँ सुरक्षित है?..."
"सोना खरीद लो सोना! बेटियों के गहने बनवा लो। शादी में तो देने ही होंगे!..."
मैं अब सचमुच महात्माजी पर आशंकित हो गया। कहीं सचमुच मुझे लुटवाने का तो यह प्लान नहीं बना रहा? बैंक में रखे पैसे लुटें न लुटें, घर में रखे गहनों का लुटना तो ज़्यादा मुश्किल नहीं है। कौन सा किला बनवा रखा है मैंने? दो कमरे, एक बैठक और रसोई। रसोई टीन-टप्पर से बस छाई हुई है। छत पर कोई चढ़ जाए तो रसोई के रास्ते आराम से नीचे उतर जाएगा। घरवाली पीछे वाले कमरे में सोती है और रात में तीन-चार बार पीछे का दरवाजा खोलकर रसोई और आँगन में जाती है। बाहर बैठक में मुझे सुनाई भी न देगा। सबसे बुरी बात- उसी के कमरे में बक्से में सारा कीमती सामान रखा रहता है। ....आशंकाओं से मैं सिहर उठा।
महात्माजी मेरे चेहरे का भाव पढ़ चुके थे। वैसे भी मास्टरों को खुद को ज़्यादा छुपाना नहीं आता। मेरी हालत यह थी कि न तो उन पर पूरा विश्वास कर सकता था, न अविश्वास! बैंकों में भी होने वाली ठगी के समाचार तो मैंने पढ़े थे, लूट भी कोई असाधारण या अजूबी बात नहीं होती। फिर!...
महात्माजी की चाय ख़त्म हो चुकी थी और मेरी ठंडी। महात्माजी के संबोधन से मेरी तंद्रा टूटी!
"जो लोग जिस चीज की जितना चिंता करते हैं, वह चीज उनके पीछे उतना ही लग जाती है। कहा गया है, जैसा सोचोगे वैसा ही बन जाओगे!...ज़्यादा मत सोचो!.."
मुझे लगा कि मैं अब निश्चित लुटने वाला हूँ। मन राम-राम करने लगा!..
~~क्रमशः
★★★★★★★
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