ख़त्म होते रोजगार के अवसर और
किसान आंदोलन की उम्मीदें
आजादी के बाद डॉ. भीमराव अम्बेडकर के प्रयासों और असली आज़ादी के लिए शहीद भगत सिंह जैसे नौजवानों की कुर्बानियों के चलते जो कुछ रोटी-रोजगार के साधन हमें हासिल भी हुए थे, आज एक-एक कर छीन लिए जा रहे हैं। देशी-विदेशी कम्पनियों के मुनाफों की चिंता करने वाली सरकारें निजीकरण के नाम पर न केवल पहले से हासिल नौकरियां और रोजगार खत्म कर रही हैं जिससे आरक्षित वर्गों के आरक्षण अपने आप खत्म हो रहे हैं, बल्कि व्यापक जनता की आजीविका के साधन खेती योग्य जमीनों, पहले से स्थापित सार्वजनिक उद्यमों, सरकारी संस्थानों को भी खत्म कर पूँजीपतियों और विदेशी कंपनियों के हवाले कर रही हैं। बैंक, बीमा, परिवहन, रेलवे, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय सहित तमाम सार्वजनिक उपक्रम पूरी बेशर्मी के साथ प्राइवेट हाथों में सौंपने का ही नतीजा है कि शिक्षित-अशिक्षित सभी प्रकार के नौजवान-मजदूर-किसान बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं।
बेरोजगारी आज समाज के सभी मेहनतकश वर्गों की एक मुख्य और विकराल समस्या है। पढ़े-लिखे लोगों की स्थायी नौकरी के अवसर खत्म किए जा रहे हैं। थोड़े से जिन लोगों को किसी तरह नौकरी मिल भी रही है, उनकी पेंशन आदि की समस्त सुविधाएं छीन ली गई हैं। अधिकांश मजदूर पहले से ही दिहाड़ी मजदूर बना दिए गए हैं। हाल ही में लाए गए चार काले मजदूर-विरोधी कानूनों के चलते मजदूरों का मनमाना शोषण को और छूट मिल गई है। न तो मनरेगा मजदूरों को कहीं और कभी भी साल में 100 दिन भी काम मिलता है, न ही निर्माण तथा किसानी से जुड़े श्रमिकों के लिए मजदूरी की कोई समुचित व्यवस्था है। अकुशल, अर्द्धकुशल और पूर्ण कुशल की परिभाषा मनगढ़ंत है। किसानों को बेईमानी पूर्वक अर्द्धकुशल श्रमिकों की श्रेणी में रखा गया है जबकि किसान से ज़्यादा अपने पेशे का सकुशल व्यक्ति और कोई हो ही नहीं सकता।
किसानों की हालत दिन ब दिन खस्ता होती जा रही है और वे प्रायः पूरी जिंदगी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफे के लिए खेती करने को अभिशप्त बनाए जा रहे। हैं। उनकी खेती और मेहनत का बड़ा हिस्सा जुताई, बुआई, कटाई आदि से जुड़े ट्रैक्टर आदि यंत्रों की खरीद या उन्हें भाड़े पर लिए जाने की कीमत के रूप में वसूल कर लिया जाता है। बाकी खाद, बीज, पानी, कीटनाशक आदि से जुड़े व्यापारियों और कम्पनियों की भेंट चढ़ जाता है। उपज के खरीद की पहले से ही चली आ रही बेईमान व्यवस्था पिछले साल लाए तीन किसान विरोधी कानूनों के चलते अब पूरी तरह कम्पनियों के अधीन कर दी जा रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की उपज शायद ही कभी खरीदी जाती रही हो, अब मंडियों के खात्मे की गारंटी वाले कानून से किसान पूरी तरह कम्पनियों की गिरफ्त में जाने को मजबूर हो रहा है। कम्पनियों को भंडारण में दी गई छूट से न केवल किसानों का बल्कि राशन-व्यवस्था, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सहारे जीवन-यापन करने वाले 80 करोड़ से ज़्यादा गरीबों और खरीद कर खाने वाले मध्यवर्ग के लिए रोटी का जुगाड़ भी मुश्किल हो जाएगा। संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चलाया जा रहा देशव्यापी किसान आंदोलन इन सवालों को बखूबी उठा रहा है, इसे विशेषकर किसानों के बीच ले जा रहा है। यही कारण है कि आंदोलन शुरू होने के साथ ही इसे बदनाम करने की कोशिशें शुरू हो गईं। इसमें नाकाम रहने पर शासकवर्ग अब उसे ख़ारिज करने, बिल्कुल तवज्जो न देने, अनसुना करने की नीति अपना रहा है।
इन हालातों में लगता है कि शिक्षित बेरोजगारों को न केवल अपने सुनिश्चित रोजगार के लिए लड़ना होगा बल्कि किसान आंदोलन के साथ व्यापक बदलाव की मुहिम में उसका साथ देना होगा। क्योंकि देश के कॉरपोरेटीकरण की नीति, वैश्वीकरण की नीति एक नई गुलामी के अलावा और कुछ नहीं है।
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