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सावधान, किसान फिर धोखा खा सकता है!

                                 सावधान! 

         शासकवर्ग बड़ा चालाक है!

 

किसान आंदोलन ने एक बार और जनता की अपराजेयता की तरफ इशारा किया है। हमारे देश के लोग जितना जल्दी इस इशारे का महत्त्व समझ जाएं, उतना ही हितकर! देश के शासकों को, बड़े शूर-वीर बनने और खुद को भगवान समझने वाले शासकों को भी यह बात समझ लेना चाहिए।'जो हिटलर की चाल चलेगा, वो हिटलर की मौत मरेगा!' - के नारे की सच्चाई को भी उन्हें समझना और उस पर समझदारी दिखाना चाहिए। यह कोई जुमला नहीं। ऐसा इतिहास हमें बताता-सिखाता है। यह राजाओं-महाराजाओं, बादशाहों की गुलामी का दौर नहीं है, इसका भी शासकों के साथ-साथ शासितों को भी अहसास करना चाहिए। जनता अगर सचमुच किसी निज़ाम के खिलाफ उठ खड़ी होगी  तो शासकों की हार तय है। फौजें भले न जीत सकें, जनता देर-सबेर जीतती ही है।      

         वर्तमान किसान आंदोलन का मतलब तीन किसान विरोधी कानूनों की वापसी और किसानों और समर्थक आम जनता की विजय तो है ही, कॉरपोरेट और उसकी पक्षधर सरकारों के लिए सीख भी है। इतिहास जानता है कि कम्पनीराज के नुमाइंदों ने कहने और लिखने से ज़्यादा अपने मुनाफ़े के व्यापार की विभिन्न तरकीबों पर भरोसा किया। बहुराष्ट्रीय कंपनियां विभिन्न तरीकों से न केवल देश की किसानी पर आज कब्जा जमाए हुए हैं बल्कि किसानों के हाथ से खेती-किसानी छीनकर उसे अपने व्यापार और मुनाफ़े तक सीमित कर देने के लिए हर षडयंत्र कर रही हैं। कौन नहीं जानता है कि कानून बनने के पहले से ही अडानी आदि कम्पनियों के बड़े-बड़े साइलो/अन्न-गोदाम बन गए थे। इसी तरह न जाने कितने जन-विरोधी मामले हैं जिन पर किसी कानून की कोई विशेष परवाह दैत्याकार कम्पनियाँ नहीं करतीं!     

           ऐसे में सरकार के नुमाइंदों से हाल में शुरू हुई किसान आंदोलन के कुछ प्रतिनिधियों की वार्ता को सबको बहुत गंभीरता से लेना चाहिए। ऐसे में केंद्र सरकार के पत्र पर दिनाँक 7 दिसंबर, 2021 को पांच सदस्यीय कमेटी द्वारा दिया गया वक्तव्य बहुत आश्वस्त नहीं करता। ऐसा लगता है कि जैसे सरकार के साथ-साथ नेताओं को भी आंदोलन की समाप्ति की घोषणा का इंतज़ार है। देश के संघर्षरत किसान जानते हैं कि चुनावों के मद्देनजर सरकार इस तरह के क्रियाकलाप कर रही है। इसलिए अगर और समझदारी तथा जनता के, किसानों के ऊपर भरोसा करते हुए आगे की कार्रवाई पर विचार नहीं किया गया तो किसानों को पछताना पड़ सकता है। 

            ध्यान रखना चाहिए कि आज सरकार पूरे देश के सारे सार्वजनिक संस्थानों एवं उपक्रमों को निजी हाथों, देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों को सौंपकर चरमराती अर्थव्यवस्था के लिए तात्कालिक राहत पाना चाहती है। उदारीकरण के दौर के बाद से अब तक के इतिहास को देखें तो साफ पता चलता है कि देश को गहरे भंवरजाल में फँसाने का उपाय विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से किया जा चुका है। नई शिक्षा नीति से लेकर किसानों के साथ हो रहे तरह तरह के विश्वासघात इसी के नतीजे हैं। 

         इस समय देश आंदोलनों के दौर से गुज़र रहा है। सरकारें झूठे विज्ञापनों के माध्यम से जुमले परोसकर जनता को जबरन 'फील गुड' या ' अच्छा महसूस कर' का प्रचार भले ही कर रही हैं। इधर केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने 23-24 फरवरी 2022 को 2-दिवसीय देशव्यापी हड़ताल को घोषणा की है। उससे पहले 1फरवरी 2022 को देश भर में निजीकरण के खिलाफ बिजली/विद्युत कर्मचारियों की हड़ताल पर जाने के लिए कमर कस चुके हैं। और उससे भी पहले 16-17 दिसंबर 2021 को निजीकरण के खिलाफ बैंक कर्मचारियों की हड़ताल है। जाहिर है किसान आंदोलन से पहले निपटने के लिए कोशिशें चलेंगी ही।

     ध्यान देने की बात है कि बहुत वर्षों बाद कोई भी संगठित आंदोलन सत्ता को झुकाने में सफल रहा है। जिस तरह से किसानों ने केंद्र सरकार को विवश किया है कि वे उनकी माँगें मानें, उससे यह तो लगा ही है कि चाहे जितनी निरंकुश सत्ता हो अगर कोई सशक्त आंदोलन खड़ा होता है तो सत्ता को हथियार डालने ही पड़ते हैं। इसलिए उससे निपटने के लिए किसी भी हद तक शासकवर्ग जा सकता है।

         देश के जनांदोलनों, विशेषकर किसान आंदोलन को बड़े बदलाव की दिशा तय करने वाला आंदोलन बनाने की मुहिम में लगे लोगों को बहुत सोच-विचारकर अपनी रणनीति बनाना चाहिए। विशेषकर तब जब संयुक्त किसान मोर्चा के कुछ खास जूझारू नेतागण पाँच सदस्यीय कमेटी से बाहर हैं।

                              ★★★★★★★★

      

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