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जानिए योगियों के नाथ-सम्प्रदाय को

परीक्षा की तैयारी

स्नातक हिंदी प्रथम वर्ष प्रथम सत्र

नाथ सम्प्रदाय गोरखनाथ

            नाथ-सम्प्रदाय: एक परिचय

सिद्धों और योगियों की रचनाएँ 


     
हिन्दी साहित्य का आदिकाल वीरगाथाओं का ही नहीं;  नाथों, सिद्धों, जैनियों की 'बानी' का भी  काल है। इनमें नाथ-सम्प्रदाय का साहित्य हिन्दी की आदिकालीन काव्यधारा में विशेष महत्त्व रखता है। इसका एक प्रमुख कारण परवर्ती हिंदी साहित्य पर उसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव है। वस्तुतः नाथ साहित्य को जाने-समझे बिना हिंदी के विशेषकर संत-साहित्य को जानना-समझना आसान नहीं।


'नाथ' का तात्पर्य:

'हिंदी साहित्य कोश' के अनुसार, " 'नाथ' शब्द का प्रयोग 'रक्षक' या 'शरणदाता' के अर्थ में 'अथर्ववेद' और 'तैत्तिरीय ब्राह्मण' में मिलता है। 'महाभारत' में 'स्वामी' या 'पति' के अर्थ में इसका प्रयोग पाया जाता है। 'बोधि चर्यावतार' में बुद्ध के लिए इस शब्द का व्यवहार हुआ है। ...परवर्ती काल में योगपरक पाशुपत शैव मत का विकास नाथ सम्प्रदाय के रूप में हुआ और 'नाथ' शब्द 'शिव' के अर्थ में प्रचलित हो गया। मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य गोरक्षनाथ या गोरखनाथ इस मत के सबसे बड़े पुरस्कर्ता थे। उनके द्वारा प्रवर्तित कहा जाने वाला बारहपंथी मार्ग नाथ सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।" हजारी प्रसाद द्विवेदी ने राजगुह्य नामक ग्रन्थ का उल्लेख करते हुए उसका निम्न श्लोक उद्धृत किया है:
      ' नाकारोनादि रूपं थकारः स्थाप्यते सदा।
       भुवनत्रयमैवेक: श्री गोरक्ष नमोस्तुते।।'

अर्थात 'ना' से अनादिरूप में तथा 'थ' से तीनों लोकों में सदा स्थापित रहने वाले श्री गोरक्ष को मैं नमस्कार करता हूँ। इस तरह 'नाथ' शब्द का तात्पर्य तीनों लोकों में स्थापित रहने वाले स्वामी है। एक अन्य व्याख्या के अनुसार 'ना' का तात्पर्य नाथ-ब्रह्म और 'थ' का तात्पर्य स्थापित करने वाला अर्थात नाथ वह है जो अज्ञान को दूर कर मोक्ष प्रदान करता है। यहाँ नाथ शब्द की व्याख्या मोक्षप्रदाता के रूप में की गई है। किंतु डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल के अनुसार 'नाथ' शब्द का प्रयोग रचयिता के रूप में भी हुआ है। यथा- 'नाथ कहै तुम आपा राखो' अथवा 'नाथ कहै तुम सुनहु रे अवधू'।


                        चित्र साभार- 'नाथ सम्प्रदाय: साधना, साहित्य, सिद्धांत' -डॉ. वेद प्रकाश जुनेजा


नाथ-सम्प्रदाय का विकास:

     नाथ सम्प्रदाय में प्रचलित कथाओं और अन्यान्य ग्रंथों से प्राप्त स्रोतों से यही पता चलता है कि आदिनाथ के प्रमुख शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ थे। मत्स्येंद्रनाथ के प्रमुख शिष्य गोरक्षनाथ या गोरखनाथ तथा जालंधरनाथ के शिष्य कृष्णपाद , कण्हपा या कानपा थे। नाथ सम्प्रदाय के ये चारों ही लोग प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं। नाथ सम्प्रदाय अपने चार मूल प्रवर्तकों- मत्स्येंद्रनाथ, जालंधरनाथ, गोरखनाथ और कृष्णनाथ (कण्हपा) के नाम से ही अधिक विख्यात है। विभिन्न स्रोतों से यह भी ज्ञात होता है कि ये चारों समकालीन थे।
            दसवीं शताब्दी-ग्यारहवीं के आचार्य अभिनवगुप्त के ग्रन्थ 'तंत्रलोक' से पता चलता है कि उनके समय तक मत्स्येंद्रनाथ या मछंदरनाथ बहुत प्रसिद्ध हो चुके थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने ग्रन्थ 'नाथ सम्प्रदाय' में यह सिद्ध किया है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी में विद्यमान थे। इस आधार पर यही कहा जा सकता है कि नाथ सम्प्रदाय नवीं शताब्दी में पर्याप्त प्रसिद्ध हो चुका था। नाथों के भाषा के विविध रूपों से भी यही सिद्धि होती है।

       नाथ सम्प्रदाय के विकास में यद्यपि इन चार प्रवर्तकों का विशेष योगदान रहा है किंतु नाथ सम्प्रदाय में जिन नौ नाथों का उल्लेख अत्यंत श्रद्धा के साथ किया जाता है, वे हैं: आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, संतोषनाथ, अचलनाथ (अचम्भेनाथ), कंथडीनाथ, चौरंगीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ।
       नाथ सम्प्रदाय बारह धाराओं या पंथों में विभाजित किया गया था। ये एक उपखंड नहीं थे, लेकिन अलग-अलग समूहों का एक समूह मत्स्येंद्रनाथ, गोरक्षनाथ या उनके छात्रों में से एक के वंशज थे। एक मान्यता यह भी है कि 'शिव' ही वास्तविक नाथ हैं। इन्हीं शिव द्वारा नाथ सम्प्रदाय की छह शाखाएँ और गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित अन्य छह शाखाओं को मिलाकर 'बारह-पंथी' सम्प्रदाय बनता है। इनमें शिव द्वारा (1) भुज (कच्छ) में कंठरनाथ (2) पेशावर और रोहतक में पागलनाथ (3) अफगानिस्तान में रावलनाथ (4) पंख अथवा पंकनाथ (5) मारवाड़ में बननाथ तथा (6) गोपाल अथवा रामके नाथ शाखाएँ एवं गोरखनाथ द्वारा (1) हेठनाथ (2) आईपन्थ (3) चाँदनाथ कपिलानी (4) रतढोंड़ा मारवाड़ का बैरागपन्थ (5) जयपुर का पावनाथ तथा (6) धजनाथ महावीर -कुल बारह स्थापित किए गए हैं।


प्रमुख रचनाएँ : 
गोरखनाथ की रचनाएं 

नाथ-सम्प्रदाय की प्रमुख रचनाओं के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। विभिन्न स्रोतों से उनकी रचनाओं का पता चलता है। इनमें नाथों की कई रचनाओं का लेखन परवर्ती काल में भी हुआ। मत्स्येंद्रनाथ के ग्रंथ 'कौलज्ञान-निर्णय' का सम्पादन श्री प्रबोधचंद्र बागची ने किया है। मत्स्येंद्रनाथ का दूसरा प्रसिद्ध ग्रंथ 'अकुलवीर-तंत्र' है। जालन्धर नाथ जिन्हें जालंधरपा और जालन्ध्रीपा भी कहते हैं उनके सात ग्रन्थों का उल्लेख होता है, किन्तु मगही भाषा में लिखित विमुक्त मंजरी गीत' और ' हुंकाररचितविंदु भावनाक्रम' उनके विचारों के आधार पर लिखित हैं। 'शुद्धिवज्र प्रदीप' उनका टिप्पणीरूपी ग्रंथ है। राहुल सांकृत्यायन ने 'चर्यागीति' के आधार पर जालंधरनाथ के अपभ्रंश पदों का संग्रह किया है। मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ की चालीस कृतियों का उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में किया गया है। मिश्रबन्धुओं ने इनके नौ संस्कृत ग्रंथों की चर्चा की है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी बारह पुस्तकों और हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इनकी 28 संस्कृत तथा चालीस हिन्दी ग्रंथों का उल्लेख किया है, किन्तु उन्होंने इन सभी ग्रंथों के गोरखनाथ रचित होने पर संदेह भी व्यक्त किया है। डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने गोरख रचित चालीस कृतियों में से चौदह को प्रामाणिक मानते हैं। इनके नाम हैं- (1) सबदी (2) पद (3) शिक्षा दर्शन (4) प्राण सांकली (5) नखै बोध (6) आत्मबोध (7) अभैयात्रा योग (8) पंद्रह तिथि (9) सप्रक्खर (10) महेंद्र गोरखबोध (11) रोमावली (12) ज्ञान तिलक (13) ज्ञान चौंतीसा (14) पंचमात्रा। जालंधरनाथ के शिष्य कृष्णनाथ , कृष्णपाद, कण्हपा, कान्हूपा या कानफा की 58 कृतियों और 12 संकीर्तन पदों का उल्लेख महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री द्वारा किया गया है। राहुल सांकृत्यायन ने इनके छह दर्शन ग्रंथ और 74 तंत्रग्रन्थ बताए हैं। इनमें शान्तिदेव रचित 'बोधिचर्यावतार' पर आधारित 'बोधिचर्यावतार-दुखबोध पद निर्णय' टीका भी है। इसके अतिरिक्त इनकी कान्हपादगीतिका, महाढुंढनमूल, बसन्त तिलक आदि रचनाएँ भी प्रसिद्ध हैं।

नाथ-सम्प्रदाय की कुछ रचनाओं के उदाहरण:
            
जालंधरपा या जालंधरनाथ:

     -- 'पहले कीया सौ अब भुगतावै ,
                       जो अब करै सो आगे पावै।
      जैसा दीजै तैता लीजै,
                 ताठें तन घर नीँका कीजै।।'

  -- 'यहु संसार कुबक का खेत,
                जब लग जीवै तब लग चेत।'

गोरखनाथ:

        -- ' हसिबा षैलिबा रहिबा रंग,
                        काम क्रोध ना करिबा संग।
        हसिबा  षैलिबा गाइबा गीत,
                     दिढ़ करि राखि आपणा चीत।'
   
      --  'बेदे न सास्त्रे कतेबे न कुराणें
                              पुस्तके न बंच्या जाई।
          ते पद जांनां बिरला जोगी
                               और दुनी सब धंधै लाई।'

हिन्दी साहित्य

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