संयुक्त किसान मोर्चा :
आगे क्या?
(1) पाँच सदस्यीय समिति के बनने में क्या गृहमंत्री की पसंदगी शामिल है?
'कोई कमेटी ऐसी हो जिससे बात की जा सके...', 'बात जिनसे की जाय वह उस तरह की एक कमेटी हो जिसकी बात एसकेएम माने..', 'सरकार की उस आशंका का निराकरण करने के लिए इस कमेटी का गठन किया गया है...' आदि का यही तो मतलब होता है?
(2) क्या इतने बड़े किसान आंदोलन के बाद 'यूपी मिशन' को फेल करने की यह तैयारी है?
(3) क्या अन्य मुद्दों के ऊपर हावी होकर किसान आंदोलन अंततः बीजेपी को 'फीलगुड' कराएगा?
(4) एमएसपी का आखिर क्या मतलब है?...किसे फ़ायदा होगा?
(5) क्या गृहराज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी की बर्खास्तगी और गिरफ्तारी पर एकाएक इतना खामोश कैसे हो गए पाँच सदस्यीय कमेटी के लोग?..
(6) कहा जा रहा है कि जब बात होती है तो दोनों तरफ की कुछ शर्तें मानी जाती हैं, क्या यही निष्कर्ष निकलना था हमारे एक साल की जद्दोजहद और सात सौ से ज्यादा किसानों की शहादतों का? ...वांछित-अवांछित इस तरह के न जाने कितने सवासल खड़े हो रहे हैं! कौन देगा इनका जवाब?
5 तारीख को 'संयुक्त किसान मोर्चा (पूर्वी उत्तर प्रदेश) की तरफ से एक खुला पत्र जारी हुआ। यह पत्र सरकार के नाम नहीं, पांच सदस्यीय कमेटी के नाम था:
एम्.एस.पी. गणना में किसान और उसके परिवार
के श्रम को कुशल श्रम का दर्जा दिया जाये
संयुक्त किसान मोर्चा (पूर्वी उत्तर प्रदेश) की दरख्वास्त
5 दिसंबर 2021
इस ऐतिहासिक किसान आन्दोलन की पहली बड़ी उपलब्धि है सरकार द्वारा तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया जाना. इस दौर में जो व्यापक किसान एकता स्थापित हुई है उसके सहारे अभी किसान को और भी बहुत कुछ हासिल करना है. संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा चयनित पांच किसान नेताओं का समूह 7 दिसंबर 2021 को सरकार से अपनी बची हुई मांगों को लेकर वार्ता करने जा रहा है. इस समूह के विचारार्थ हम इस पत्र के जरिये एम.एस.पी. की गणना के बारे में कुछ कहना चाहते हैं.
एक अतिमहत्वपूर्ण बात यह है कि लागत खर्च के अनुमान में किसान और उसके परिवार के श्रम को साधारण श्रम के रूप में देखा जाता है. हम सब यह जानते हैं कि किसान और उसके परिवार का श्रम साधारण श्रम नहीं होता, बल्कि कुशल श्रम होता है; वह उसके ज्ञान के ऊपर आधारित होता है. इसलिए यह ज़रूरी है की एम.एस.पी. तय करते वक्त किसान और उसके परिवार के श्रम को कुशल श्रम का दर्जा दिया जाय.
वास्तविकता तो यह है की किसान को अपनी किसानी का ज्ञान हासिल करने में सालों के कठिन प्रशिक्षण व परिश्रम से गुजरना पड़ता है. प्रकृति के रूप व सार, भूमि की गुणवत्ता, ज़मीन की उर्वरता, नमी, उसके जीव-जंतु, मौसम के बदलाव, बीजों के प्रकार, फसलों की देखभाल, पानी का प्रबंधन जैसी बहुत सारी बातें वह काम करते हुए सीखता है. यह सब सीखने में लगभग उतने ही साल लग जाते हैं जितने कालेज की पढ़ाई में लगते हैं, असल में उससे ज्यादा ही. हर किसान का खेत और घर विद्यालय भी होता है. लेकिन अंग्रेजों के समय से चली आ रही सोच आज भी जारी है कि किसान के कार्यों को केवल मज़दूरी के काम के रूप में ही देखा जाता है, ज्ञान के कार्य के रूप में नहीं. किसान को बीज, मौसम, अपनी ज़रूरत, बाज़ार और सरकारी नीतियों इत्यादि में बदलाव के चलते नित नए-नए प्रयोगों, शोध और अविष्कारों का सिलसिला चलाना पड़ता है. ये सब वह अपनी खुद की जोखिम पर करता है. यानि प्रयोगों की सफ़लता/असफलता, नफा/नुक़सान उसे खुद उठाना पड़ता है. इन प्रयोगों से वह अपने ज्ञान का उत्तरोत्तर विकास करता है. इसी ज्ञान के आधार पर वह कृषि से सम्बंधित सारे निर्णय लेता है, कृषि का प्रबंधन और उत्पादन करता है. इस सबके बावजूद उसके श्रम को कुशल श्रम न मानना यह बड़ी नाइंसाफी है; इतना ही नहीं, इसमें किसान का, उसके ज्ञान और उसके कार्य का अपमान है.
हम संयुक्त किसान मोर्चा के प्रतिनिधि समूह से यह आग्रह करना चाहते हैं कि किसान के श्रम को एम.एस.पी. की गणना में कुशल श्रम का दर्जा अवश्य दिलवाएं. इससे किसान की आय तो बढ़ेगी ही तथापि उसके ज्ञान को मान्यता दिलवाने से किसान का इस देश को चलाने यानि संगठित और संचालित करने और सबके लिए न्यायोचित नीतियां बनाने का दावा भी पुख्ता होगा. संयुक्त किसान मोर्चा ने बेहद प्रभावी ढंग से किसान संसद चलाकर यह दावा तो पेश कर ही दिया है।
इसी तरह और भी संगठन, और भी व्यक्ति एसकेएम के हालिया हृदय-परिवर्तन पर अब मुखर हो रहे हैं!
इस बीच बैंको के निजीकरण का मुद्दा छा रहा है। किसानों ने अपनी जमीन बैंकों के पास गिरवी रखकर लोन लिए हैं। किसान सबसे पहले यही शंका कर रहे हैं कि बैंकों को निजी हाथों में बेच दिए जाने पर उनकी जमीन मिलना असम्भव हो जाएगा।
व्यापक मध्यवर्ग को प्रभावित करने वाला बैंकों के निजीकरण का मसला दबाने के लिए ही तो किसान आंदोलन को तात्कालिक राहत दी गई है?... विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों की दुहाई देने वाली सरकार क्या 'राष्ट्रवादी' हो सकती है, अब यह सवाल समूचे नागरिक संमाज, पूरे देश के लिए अहम होने जा रहा है। तीनों किसान विरोधी कानून भी इसी दबाव में लाए गए थे, बचे-खुचे सार्वजनिक भागीदारी वाले बैंकों का निजीकरण भी इसी दबाव में करने की कोशिश हो रही है। इनका जवाब सिर्फ़ व्यापक जनांदोलन है, किसान आंदोलन की ही तरह!..लेकिन कोई भी व्यक्ति वह हड़बड़ी नहीं चाहता जैसी हड़बड़ी किसान आंदोलन को उठा लेने की पिछले कुछ दिनों में दिखाई गई।
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