Skip to main content

मर्म-कथा



                                           त्रिशंकु

                                                  -नज़्म सुभाष


           शांतिपूर्ण चल रहे आंदोलन ने अंततः  रौद्र रूप धारण कर लिया । बीस लोग मारे गये हैं। ये मारे गये लोग सवर्ण थे या दलित अथवा मात्र मनुष्य.... इसको लेकर पक्ष -विपक्ष में अफवाहों का बाजार गर्म है। जैसा तर्क वैसी फोटो!...कौन असली कौन नकली?...कुछ नहीं सूझता...सबकुछ गड्मड्ड है!
         सैकड़ों दुकानें फूंक दी गयी हैं....जनजीवन अस्त-व्यस्त है।... स्कूल, अस्पताल, रेल,  बस सब कुछ  अराजकता की भेंट चढ़ चुके हैं। टीवी पर भोंपू लगातार यही चीख रहा है।
        सोशल मीडिया भी उबल रहा है ।सबके अपने - अपने पक्ष और तर्क हैं ।

            सवर्ण चीखता है -"आरक्षण संविधान के माथे पर कलंक है!... उसने प्रतिभाओं का गला घोंट दिया।"
            दलित उन्हीं के लहजे में जवाब देता है- " आरक्षण की जरूरत क्यों पड़ी? पहले इस पर बात कर!...सदियों से सवर्णों ने दलितों को दबाये रखा तब कितनी  प्रतिभाओं का गला घोंटा गया..... याद है?  मात्र 70 सालों में ही प्रतिभाओं का घोंटा गला दिखने लगा?... आरक्षण से पहले आंखें किराये पर दे रखी थी क्या??..."

            शब्दों में सदियों से खदबदाती तल्खी है !

          न तो सवर्णों के पास बिना किसी किंतु-परंतु के इस बात का जवाब है कि आरक्षण की जरूरत आखिर क्यों पड़ी?....और आरक्षण के बावजूद नौकरियों में दलितों का प्रतिशत नगण्य क्यों है?
          और न ही दलित इस बात का कोई सटीक जवाब दे पा रहे कि आरक्षण से प्राप्त अधिकारों के फलस्वरुप जो दलित आज सवर्णों के समान सुविधाएं प्राप्त कर  मुख्यधारा में आ चुके हैं वह अपने ही अन्य भाइयों लिए आरक्षण क्यों नहीं छोड़ते?...
               दोनों तरफ के योद्धा  अपने - अपने अकाट्य तर्क के साथ फेसबुक रूपी  समरांगण में डटे हैं। चिंचियाते...चिल्लाते... रिरियाते...भन्नाते!.....दस मिनट ...बीस मिनट .....एक घंटा...दो घंटा!..... धीरे-धीरे तर्क के तरकश खाली हो रहे हैं।

          पहले ने अंतिम ब्रह्मात्र छोड़ा- "अबे साले तेरी मां का @#@##$##....."
       दूसरा -"आ गया  साले अपनी औक़ात में! .......#$$?**@#:...$???"

              आगे के शब्द स्पष्ट नहीं पर उद्देश्य स्पष्ट है। आगे कुतर्क की एक गहरी  नदी है जिसमें दोनों उतर चुके हैं।....
              और मैं साला बैकवर्ड... दिल से खुद को दलित मानता नहीं और सवर्ण हमें दलित से ज्यादा समझते नहीं। लिहाजा मैं त्रिशंकु की तरह अधर में लटका हुआ कभी इसे देखता हूं कभी उसे!..... ★★★

Comments

Popular posts from this blog

जमीन ज़िंदगी है हमारी!..

                अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) में              भूमि-अधिग्रहण                         ~ अशोक प्रकाश, अलीगढ़ शुरुआत: पत्रांक: 7313/भू-अर्जन/2023-24, दिनांक 19/05/2023 के आधार पर कार्यालय अलीगढ़ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष अतुल वत्स के नाम से 'आवासीय/व्यावसायिक टाउनशिप विकसित' किए जाने के लिए एक 'सार्वजनिक सूचना' अलीगढ़ के स्थानीय अखबारों में प्रकाशित हुई। इसमें सम्बंधित भू-धारकों से शासनादेश संख्या- 385/8-3-16-309 विविध/ 15 आवास एवं शहरी नियोजन अनुभाग-3 दिनांक 21-03-2016 के अनुसार 'आपसी सहमति' के आधार पर रुस्तमपुर अखन, अहमदाबाद, जतनपुर चिकावटी, अटलपुर, मुसेपुर करीब जिरोली, जिरोली डोर, ल्हौसरा विसावन आदि 7 गाँवों की सम्बंधित काश्तकारों की निजी भूमि/गाटा संख्याओं की भूमि का क्रय/अर्जन किया जाना 'प्रस्तावित' किया गया।  सब्ज़बाग़: इस सार्वजनिक सूचना के पश्चात प्रभावित ...

ये अमीर, वो गरीब!

          नागपुर जंक्शन!..  यह दृश्य नागपुर जंक्शन के बाहरी क्षेत्र का है! दो व्यक्ति खुले आसमान के नीचे सो रहे हैं। दोनों की स्थिति यहाँ एक जैसी दिख रही है- मनुष्य की आदिम स्थिति! यह स्थान यानी नागपुर आरएसएस- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजधानी या कहिए हेड क्वार्टर है!..यह डॉ भीमराव आंबेडकर की दीक्षाभूमि भी है। अम्बेडकरवादियों की प्रेरणा-भूमि!  दो विचारधाराओं, दो तरह के संघर्षों की प्रयोग-दीक्षा का चर्चित स्थान!..एक विचारधारा पूँजीपतियों का पक्षपोषण करती है तो दूसरी समतामूलक समाज का पक्षपोषण करती है। यहाँ दो व्यक्तियों को एक स्थान पर एक जैसा बन जाने का दृश्य कुछ विचित्र लगता है। दोनों का शरीर बहुत कुछ अलग लगता है। कपड़े-लत्ते अलग, रहन-सहन का ढंग अलग। इन दोनों को आज़ादी के बाद से किसने कितना अलग बनाया, आपके विचारने के लिए है। कैसे एक अमीर बना और कैसे दूसरा गरीब, यह सोचना भी चाहिए आपको। यहाँ यह भी सोचने की बात है कि अमीर वर्ग, एक पूँजीवादी विचारधारा दूसरे गरीबवर्ग, शोषित की मेहनत को अपने मुनाफ़े के लिए इस्तेमाल करती है तो भी अन्ततः उसे क्या हासिल होता है?.....

हुज़ूर, बक्सवाहा जंगल को बचाइए, यह ऑक्सीजन देता है!

                      बक्सवाहा जंगल की कहानी अगर आप देशी-विदेशी कम्पनियों की तरफदारी भी करते हैं और खुद को देशभक्त भी कहते हैं तो आपको एकबार छतरपुर (मध्यप्रदेश) के बक्सवाहा जंगल और आसपास रहने वाले गाँव वालों से जरूर मिलना चाहिए। और हाँ, हो सके तो वहाँ के पशु-पक्षियों को किसी पेड़ की छाँव में बैठकर निहारना चाहिए और खुद से सवाल करना चाहिए कि आप वहाँ दुबारा आना चाहते हैं कि नहीं? और खुद से यह भी सवाल करना चाहिए  कि क्या इस धरती की खूबसूरत धरोहर को नष्ट किए जाते देखते हुए भी खामोश रहने वाले आप सचमुच देशप्रेमी हैं? लेकिन अगर आप जंगलात के बिकने और किसी कम्पनी के कब्ज़ा करने पर मिलने वाले कमीशन की बाट जोह रहे हैं तो यह जंगल आपके लिए नहीं है! हो सकता है कोई साँप निकले और आपको डस जाए। या हो सकता कोई जानवर ही आपकी निगाहों को पढ़ ले और आपको उठाकर नदी में फेंक दे!..न न यहाँ के निवासी ऐसा बिल्कुल न करेंगे। वे तो आपके सामने हाथ जोड़कर मिन्नतें करते मिलेंगे कि हुज़ूर, उनकी ज़िंदगी बख़्श दें। वे भी इसी देश के रहने वाले हैं और उनका इस जंगल के अलावा और...