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हिंदी स्नातक पाठ्यक्रम: सेमेस्टर सिस्टम की विडम्बनाएँ

स्नातक हिंदी प्रथम वर्ष प्रथम सत्र

                 हिन्दी साहित्य:

        नए पाठ्यक्रम की विडम्बनाएँ


पूरे देश में नई शिक्षा नीति लागू करने की घोषणा के साथ विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम तय करने में साहित्य सम्बन्धी पाठ्यक्रम तय करना सम्भवतः सबसे दुरूह रहा होगा। कारण, साहित्य का अध्ययन सामाजिक चेतना की माँग पर आधारित होना चाहिए, न कि मात्र नौकरी मिलने/पाने की सम्भावनाओं पर आधारित। साहित्य कोई तकनीकी ज्ञान नहीं है, न उसे ऐसा समझा और विद्यार्थियों को परोसा जाना चाहिए। परन्तु बढ़ती बेरोजगारी से निपटने की आकांक्षा ने साहित्य को भी इसमें घसीट लिया है। इसलिए साहित्य का पाठ्यक्रम भी सामाजिक चेतना का विकास पर आधारित न होकर बाज़ार की माँग के अनुरूप बनाया गया। लगता है पाठ्यक्रम मनीषियों ने जैसे यह मान लिया है कि सामाजिक चेतना विकसित करने का काम राजनीतिक पार्टियों का है।

          उदाहरण स्वरूप उत्तरप्रदेश के हिंदी विषय का स्नातक प्रथम वर्ष का पाठ्यक्रम देखें तो लगता है कि इसमें हिंदी साहित्य की अपेक्षा हिंदी का तकनीकी ज्ञान ही महत्वपूर्ण माना गया है। विडम्बना यह है कि स्नातक स्तर पर ही हिन्दी का पूरा ज्ञान दान कर देने की इच्छा ने यह ध्यान नहीं रखा कि हिंदी साहित्य और हिंदी भाषा को एक ही पाठ्यक्रम में निपटा लेने का परिणाम क्या होगा! व्यावहारिक रूप में देखा गया है कि आम तौर पर विद्यार्थी स्नातक से पहले तक हिंदी भाषा के सिर्फ़ व्याकरणिक ज्ञान तक सीमित होता है। स्नातक स्तर पर ही उसे हिंदी भाषा के विकास के अध्ययन का पाठ्यक्रम उपलब्ध होता रहा है। किंतु नए पाठ्यक्रम में हिंदी भाषा को एक विषय के रूप में न पढ़ाकर कुछ जानकारियों तक सीमित कर दिया गया है। यही स्थिति हिंदी साहित्य की भी है, बल्कि उससे भी ज़्यादा खराब। 

           हिन्दी साहित्य में पूर्व के पाठ्यक्रम में पहले और दूसरे साल दो प्रश्नपत्र होते और तीसरे साल तीन। इन तीन  वर्षों के सात प्रश्नपत्रों में साहित्य की प्रचुर सामग्री होती थी और विद्यार्थियों को साहित्य के रसास्वादन से लेकर साहित्य के इतिहास तक को जानने-समझने का पूरा मौका मिलता था। नए पाठ्यक्रम में यह अवसर अत्यंत सीमित हो गया है। लगता है जैसे यह स्नातक का पाठ्यक्रम न होकर हाईस्कूल-इंटर स्तर के विद्यार्थियों का पाठ्यक्रम है। विद्यार्थियों को हिन्दी काव्यधारा के कवियों को बस जान भर लेना है।

         नई सेमेस्टर-पद्धति में प्रथम वर्ष के केवल प्रथम सत्र में 'हिन्दी काव्य' शीर्षक से आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के बीस कवियों को शामिल कर लिया गया है। सब जानते हैं कि प्रवेश से लेकर परीक्षा और परिणाम तक वास्तविक अध्ययन-अध्यापन के लिए कितना समय मिल पाता है! लेकिन अब लगभग तीन से चार महीने में आंतरिक परीक्षण, असाइनमेंट, परीक्षा, परिणाम के बीच हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के कवियों की गम्भीर पढ़ाई कत्तई सम्भव नहीं। हाँ, खानापूरी जरूर हो जाएगी। 

        स्नातक स्तर के हिन्दी साहित्य के  पूरे पाठ्यक्रम को देखने से यह विडम्बना और भी दुखदाई लगती है। उत्तरप्रदेश के विश्वविद्यालयों-महाविद्यालय के स्नातक हिन्दी के प्रथम वर्ष के प्रथम सत्र में मैथिल-कोकिल विद्यापति, नाथ सम्प्रदाय के महत्वपूर्ण कवि-चिंतक गोरखनाथ, अमीर खुसरो, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, कबीरदास, मलिक मोहम्मद जायसी, केशवदास, बिहारीलाल, घनानन्द, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पन्त, महादेवी वर्मा, अज्ञेय, मुक्तिबोध, नागार्जुन, धर्मवीर भारती, धूमिल आदि बीस कवियों को स्थान दिया गया है। इनमें विद्यापति की 15 पंक्तियों और गोरखनाथ के 4 छन्दों से विद्यार्थियों को इन महान कवियों-चिंतकों की कविता का क्या और कितना बोध हो पाएगा, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इसी तरह सभी कवियों के कुछ उदाहरण-सदृश रचनाएँ ही पाठ्यक्रम में रखी गई हैं। इससे भी ज़्यादा नकारात्मक स्थिति निर्धारित अल्प-काल में इसे पूरा करने की बाध्यता है जिससे विद्यार्थियों को केवल सतही स्तर पर हिन्दी कवियों की रचनाओं का बोधमात्र हो सकता है। अगले दो वर्षों के पाठ्यक्रम को देखने से यह बोध और गहरा होता है कि हिन्दी साहित्य का पाठ्यक्रम केवल सतही जानकारियों तक सीमित कर दिया गया है।

         जो भी है, विद्यार्थियों को पहले साल के केवल प्रथम सत्र के लघु समय में हिन्दी साहित्य के इतिहास की महान और विशाल काव्यधारा की कुछ छुटपुट कविताओं से ही संतोष करना पड़ेगा। जबकि पूर्व के पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को तीन वर्षों के चार प्रश्नपत्रों में हिन्दी काव्य को विस्तार से पढ़ने का अवसर मिलता था। हिन्दी कविता की इस उपेक्षा पर हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ अध्यापक चाहें तो अपना सिर धुन सकते हैं! या विद्यार्थियों की 'नमस्ते' से भी वे संतुष्ट हो सकते हैं!

                             ★★★★★★★

 


 


Comments

  1. जब पाठ्यक्रम निर्मित हो रहा था तब किसी ने इसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। अब इसके व्यर्थ होने की बात की जा रही है। निःसंदेह पाठ्यक्रम बोझिल है और बिना तुक के बनाया गया है।

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