पण्डित जसराज:
स्वामी हरिदास और तानसेन की परंपरा के
आधुनिक साधक
अंग्रेज़ों का जमाना था। पूरे देश पर उनका क़ब्ज़ा था। सब जगह उन्हीं की तूती बोलती थी, लेकिन एक जगह ऐसी थी जहां अंग्रेजों की एक न चलती थी। वह जगह थी शास्त्रीय संगीत!...संस्कृत भाषा और साहित्य पर भी यूरोपीय उपनिवेशवादियों के समय में उनके कुछ विद्वानों ने अपनी धाक जमाने की कोशिश की, उसे मनोयोग से सीखा और उसमें निहित ज्ञान-विज्ञान का सदुपयोग किया किन्तु भारतीयों में उसके मिथकों, अंधविश्वासों और पाखण्डों को स्थापित किया। किन्तु शास्त्रीय संगीत पर उनका जोर ज़्यादा न चल सका, खासतौर पर गायकी पर!
पण्डित जसराज उस दौर की उपज थे जो राजनीतिक और सामाजिक तौर पर देश में आंदोलनों और विश्वयुद्ध की विभीषिकाओं का दौर था। उनकी उम्र केवल तीन-चार साल की थी जब उनके पिता पण्डित मोतीराम का निधन ही गया। 28 जनवरी 1930 को जन्मे पण्डित जसराज को यद्यपि अपने पिता के मेवाती संगीत घराने का वरदहस्त प्राप्त था, किन्तु एक पितृहीन बालक को वास्तव में तो अपना भविष्य खुद ही गढ़ना होता है। उन्होंने भी अपना भविष्य खुद गढ़ा। तबला बजाना सीखने से शुरुआत की किंतु 1945 में लाहौर के एक कार्यक्रम में कुमार गंधर्व के साथ की गई संगत और उनसे मिली सीख ने उनका जीवन बदल दिया। वे तबला वादन से गायिकी की ओर मुड़े और उसी के होकर रह गए। तब उनकी उम्र मात्र 14 साल थी।
पण्डित जसराज ने खयाल या ख़्याल गायिकी को अपनाया और उसे नई ऊँचाइयाँ दी। इस तरह उन्होंने स्वामी हरिदास और तानसेन की शैली ध्रुपद के विकसित रूप ख्याल को इस इक्कीसवीं सदी तक महत्ता प्रदान की। उन्होंने अपने मेवाती संगीत घराने को भी आगे बढ़ाया और मूलतः ब्रजभूमि की इस गायन शैली को वैश्विक ऊँचाइयाँ प्रदान की।
वे शास्त्रीय संगीत के ऐसे महागायक थे जिन्होंने दुनिया के सातों महाद्वीपों में अपने संगीत को गाया-पहुँचाया। 8 जनवरी 2012 को 'सी स्पिरिट' नामक क्रूज़ पर अंटार्कटिका के समुद्री तट पर गाया गया उनका ख्याल भारतवर्ष के लिए एक अमिट यादगार है। 90 वर्ष की उम्र तक- अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव तक भारतीय शास्त्रीय संगीत की साधना करते रहे इस अमर साधक ने 17 अगस्त, 2020 को चिरनिद्रा में जाने से पूर्व हमें यह सीख दी है कि ऊँचाइयों तक पहुँचने के लिए तन्मय साधना के अलावा और कोई दूसरा उपाय नहीं!...
अहा रसगुल्ला नगर देख कर इलाहाबाद के रसगुल्ले की याद ताज़ा हो गया।मजा आ गया
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