प्रकृति के देवता:
महामृत्युञ्जय मंत्र
वैदिक मंत्र प्रायः प्राकृतिक देवताओं की स्तुतियों के मंत्र हैं। ऋषि जगत से प्राप्त ज्ञानार्जन द्वारा प्राकृतिक तत्त्वों से अपनी रक्षा की कामना करते हैं। इन प्राकृतिक तत्त्वों या देवताओं में वे अलौकिकता यानी दिव्यत्व का भी आभास करते हैं। वे इन भौतिक से आधिभौतिक, अलौकिक अपरंच आध्यात्मिक तत्त्वों को आत्मसात कर उनसे प्रेरणा लेने की कामना करते हैं। ऋषियों की इसी विशेषता के चलते उन्हें 'ऋषयः मन्त्र दृष्टारः' अर्थात् मन्त्रों की केवल रचना करने वाले नहीं, उन्हें देखने वाले, समझने या अनुभव करने वाले कहा गया है।
ऋषियों द्वारा रचे गए ऐसे मन्त्रों में 'महामृत्युंजय' मन्त्र का बड़ा आदर है। इतना कि उनका 'जाप' करने से मृत्युभय से जीत जाने की कामना की गई है। मृत्युभय से इसी मुक्ति की कामना, जो कि एक प्राकृतिक कामना या इच्छा है, इस मंत्र को हिंदुओं का एक प्रमुख मंत्र माना गया है। ऐसा माना जाता है कि इसके जाप से मृत्युभय नहीं सताता, नहीं रह जाता! इसे 'त्रयम्बक मंत्र' (तीसरी आंख अर्थात दिमाग खोलने वाला मंत्र) भी कहा जाता है। इसके रचयिता ऋषि मार्कण्डेय हैं। यद्यपि मूलतः यह ऋग्वेद (RV 7.5.12 ) का मंत्र माना जाता है लेकिन इसकी उपस्थिति यजुर्वेद में भी है। वैदिक काल ज्ञान का आरम्भिक काल माना जाता है। स्वाभाविक रूप से मानव-सभ्यता के विकास का यह प्रारम्भिक काल होने से मृत्यु-भय मनुष्य को सताता रहा होगा।...
मन्त्र इस प्रकार है:
ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम् पुष्टिवर्द्धनं।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।
कहते हैं त्रयम्बक अर्थात आदिदेव शिव की इस मंत्र के द्वारा आराधना से ऋषि मृकण्ड के पुत्र मार्कण्डेय ने मृत्यु पर विजय पाई थी। इसके अनेक प्रकार से अर्थ किए जाते हैं, जा सकते हैं। यहाँ इस मंत्र के मूल अर्थ और उसके भाव को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।...
(एक)
हे देव!..
हम दृश्यमान जगत
लौकिक दुनिया के बारे में भी
नहीं जान पाते
तुम लौकिक ही नहीं अलौकिक
अदृश्य जगत के बारे में
चमत्कृत करने वाली दिव्य-दृष्टि
रखते हो, दिव्य हो, देव हो!...
हमारे दो चक्षु भी ठीक-ठीक,
नहीं देखते-
ठीक से चीजों को नहीं समझ पाते,
तुम मन की तीसरी आँख से भी
देख सकते हो,
त्रयम्बक हो!...
तुम दृश्य नहीं, अदृश्य हो
कभी दृश्य थे, अब नहीं हो
हम सुगन्धित, पुष्टिवर्द्धक
यज्ञ से तुम्हें अर्घ्य देते हैं!...
हे त्रिनेत्र,
दो दृृष्टि, तीसरी मन की दृष्टि से
जगत को समझने वाले!
जैसे ककड़ी को हम तोड़ते हैं तो
जीने के लिए,
मृत्यु के बंधन से छूटने के लिए
दुःखों से मुक्ति के लिए तोड़ते हैं
अमरता से मुक्ति के लिए नहीं...
वैसे ही हम कष्टों से मुक्ति के लिए
मृत्यु के भय के खात्मे के लिए
यज्ञ करते हैं,
हमें मृत्यु के भय से मुक्त करो
मेरी रक्षा करो
हे त्र्यम्बकं !...
(दो)
हे त्र्यम्बक!
अपनी अंतर्दृष्टि से सब समझते हो
हे आदिपूर्वज!
हम आपका यज्ञ करते हैं
आप हमारा जीवन
सुगन्धित, पुष्टिवर्द्धक बनाएँ
जैसे ककड़ी भी
मृत्यु के हाथों बंधे हमारे जीवन को
मुक्त करती है, जीवनदायिनी बनती है
न कि अमृत से वंचित करती है
वैसे ही हे आदिदेव,
हमें मृत्यु से बचाएँ, हमे अमरता दें!
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