अस्सी पार पिता
एक:
पिता जब अस्सी साल के हुए
लड़के से बोले-
मैं अब ज़्यादा दिन नहीं रहूँगा...
दो बातें गाँठ बाँध ले-
पहली बात:
घर में लाठी जरूर रखना
जानवर जानवर ही होते हैं,
उन्हें इंसान मत समझना...
व्यर्थ मत मारना लेकिन
वक़्त आ पड़े तो मत छोड़ना!
दूसरी बात:
बंदूक और लाठी में ज़्यादा फर्क़
मत समझना
दोनों से जानवर ही नहीं
इंसान की भी जान जा सकती है
फर्क़ सिर्फ़ इस बात में है...
कौन चला रहा है, कैसे चला रहा है,
किसके लिए चला रहा है?
किराये पर लाठी या बंदूक चलाने वाले
हमेशा कमजोर होते हैं,
उनकी ताक़त पर भरोसा मत करना!
दो:
पिता उस पेड़ जैसे ही हैं!...
पेड़ अस्सी साल पुराना था
उसे लगने लगा था कि
किसी भी तेज अंधड़ में वह
धराशायी हो जाएगा...
टहनियाँ बोलीं
ऐसे भी निराश मत होओ
तुमने हजारों जीवनदान दिए हैं
तुम्हारे बीज हजारों मील तक
फैले हैं, उनमें भी तुम हो...
पेड़ को लगा
सचमुच, मैं और क्या कर सकता था!
लोगों ने आश्चर्य से देखा-
पेड़ के भीतर से
निकल रहे हैं अनगिनत पेड़
हाथ हिलाती निकल रहीं हैं टहनियाँ
फूट रही हैं मुस्कराती कोंपलें
हरे होने लगे हैं पेड़ के पत्ते
जंगल में मंगल होने लगा है!...
तीन:
अस्सी पार कवि ने सोचा
अब शायद
कविता को
कविता की तरह नहीं
वंदना-स्तुति की तरह
लिखा जाना चाहिए...
दुःख को दुःख की तरह नहीं
त्याग-तपस्या की तरह
गाया जाना चाहिए...
कवियों को निर्देश है कि
वे दरबार में न पहुँच पाएँ तो
दरबार की सेवा में अपने गीतों को
पहुँचा दें!...
मध्यकाल इतना बुरा नहीं था कि
साधु-संतों-फकीरों को
उनकी कविताई के लिए
जेल में डाल देता...
यह कौन-सा काल है, बन्धु?
★★★★★★★
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