नज़रिया:
बलात्कार और यौन-हिंसा क्यों बढ़ रही है?..
जी, कोई सरल उत्तर नहीं है इसका!...लेकिन वह उत्तर तो नहीं है जो आम तौर पर दिया जाता है और जिसके लिए रोज फाँसी से लेकर अंग-विच्छेदन तक की आदिमयुगीन सलाह से सोशल मीडिया मनोरंजन करता रहता है!.. यह एक सामान्य बात है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। अगर बलात्कार, यौन-हिंसा, बेरोजगारी, अपराध बढ़ रहे हैं और इनमें कोई तारतम्यता है तो इनके कारणों में तारतम्यता होगी।
एक उदाहरण से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है। हम देखते हैं कि न केवल कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्गों के लोग इसके शिकार होते हैं बल्कि इनके अपराधी भी अधिकांश इन्हीं वर्गों से आते हैं!...क्यों? यही वह पेंच है जहाँ से न केवल इसके कारणों की पड़ताल की जा सकती है बल्कि इसकी रोकथाम के उपाय भी ढूँढे जा सकते हैं। हम देखते हैं कि शिकार अथवा शिकारी उच्च वर्ग के लोग अधिकांशतः इससे बचे होते हैं या इससे बच जाते हैं तो उसका कारण उनमें किसी ब्रह्मचर्य के तेज का होना न होकर अपनी ज़िंदगी के प्रति उनमें जागरुकता और चिंता है। किसी भी ऐसे अपराध में फँसने से होने वाले नफ़े-नुक़सान का उनका अहसास केवल उन्हें इससे दूर रहने का कारण ही नहीं मुहैय्या कराता बल्कि ऐसे अपराधों से बचे रहने के गुर और सावधानियों से भी उन्हें जागरूक करता है। दूसरी तरफ शिकार हो सकने/होने वाले निम्न/मध्य तबके के लोग ऐसी स्थितियों में जीते हैं जहाँ उनके साथ ऐसी अमानवीय घटनाओं के होने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। वही ऐसे वर्गों के अपराधी या शिकारी के सामने भी ऐसी कोई डरने या खो जाने की संभावना कम रहती है। अक्सर गरीब तबके के लोग कहते सुने जाते हैं कि जेल में फ्री की रोटी तो मिलेगी, बिना मेहनत के। यह स्थिति प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'कफ़न' की याद दिलाती है जहाँ बाप-बेटे बहू के कफ़न के पैसे से शराब पी जाते हैं।
समाज का एक बड़ा तबका अपनी विपन्न स्थितियों में ऐसा ही सोचता है जहाँ बुरी-बुरी स्थितियों में भी उसके पास खोने को कुछ खास नहीं, यहाँ तक कि वह अपनी ज़िंदगी को भी ज़्यादा महत्त्व नहीं देता।
एक अन्य स्थिति भी इस अपराध के न रुकने के लिए और ज़्यादा ज़िम्मेदार है। ऐसे होने वाले केस के प्रति लापरवाही का प्रशासनिक नज़रिया, समाज में रूढ़ अंधविश्वास और पितृसत्तात्मक सोच! यह स्थिति प्रायः शिकार व्यक्ति को ही उसका ज़िम्मेदार मानती है और ऐसे ही लोग हर जगह हैं। अपनी यौन कुंठाओं में ये लोग न केवल ऐसे अपराध करते हैं बल्कि इसके लिए शिकार महिलाओं के कपड़ों से लेकर शारीरिक बनावट तक को इसका जिम्मेदार मानते हुए इस अपराध के प्रति अपराधबोध या शर्म तक नहीं महसूस करते! इसके अलावा अधिकांश अपराधियों के बच निकलने की संभावना, न्यायिक प्रक्रियाओं की जटिलता और भी ज़्यादा अपराधियों में इसके प्रति कोई विशेष डर नहीं रहने देती। अक्सर रसूखदार लोग तो इससे बच ही निकलते हैं। आसाराम बापू या कुलदीप सेंगर जैसे एकाध मामलों को छोड़ दें तो रोज होने वाली ऐसी बलात्कार, यौन उत्पीड़न जैसी घटनाओं से अपराधी अधिकांश मामलों में या तो बच निकलते हैं या प्रक्रियाओं का फ़ायदा उठाकर बचे रहते हैं।
दरअसल, ऐसी अमानवीय घृणित-क्रूर वारदातें समाज व्यवस्था के बदलने से ही रुक सकती हैं। स्त्रियों के प्रति पिछड़ी मानसिकता वाले समाज में जो सामन्ती मध्ययुगीन सोच व्याप्त है, जहाँ एक नहीं अनेक स्त्रियों के यौन उत्पीड़न के लिए अन्तःपुर और हरम होते थे, वह सोच अभी भी समाज के मानस पर राज करती है। चंद पैसे अमीर घरानों के लोगों के प्रेम प्रपंच को वास्तविक बताने की कोशिश करने वाले सीरियल और फिल्में भी इसी सोच को आगे बढ़ाती हैं। इस कारण न केवल आर्थिक-सामाजिक शोषण से मुक्ति बल्कि पितृसत्तात्मक सोच पर निर्मम प्रहारों से ही महिलाओं-बच्चियों को यौनशोषण, बलात्कार, हत्या से उन्हें मुक्ति दिला सकती है।
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