गांधी-शास्त्री जयंती:
अलग थी इस बार
महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती!
इस बार गाँधी जयंती कुछ अलग थी।...
यूँ कहें तो ज़्यादा ठीक होगा कि इस बार गाँधी जयंती उत्सव मनाने वाली, औपचारिकता निभाने वाली न थी!...
लोगों ने इस बार महात्मा गांधी की प्रतिमाओं पर सिर्फ़ फूल और मालाएँ ही नहीं चढ़ाईं, अपने हृदय के आँसुओं से उन्हें धोया भी!
इस बार पता नहीं क्या कुछ अलग था गाँधीजी की प्रतिमाओं में कि लोगों को लगा कि यह महात्मा उपाधिधारी प्रतिमा बोल पड़ती तो कितना अच्छा होता!
शायद अब असहाय से होने लगे हैं लोग!...उन्हें अपने पर भी विश्वास नहीं रहा, न उन धरना-प्रदर्शनों पर...जिन्हें इस बार गाँधी जयंती पर लोगों ने ज़्यादा किए!
इस बार गाँधी जयंती पर कुछ दलों/संगठनों ने मौनव्रत रखने में ही अपनी भलाई समझी!..शायद उनके मन में रहा होगा- किसे सुनाएँ?...कौन सुनेगा??
लेकिन कुछ अन्य संगठनों ने अपनी व्यथा सुनाई!...अपने दर्दे-ग़म का इज़हार किया!..
गाँधी जयंती पर उठीं आवाज़ों में इस बार बच्चियों/महिलाओं पर बलात्कार और हत्याओं के खिलाफ पीड़ा थी, गाँधीजी के प्रिय भजन 'वैष्णव जन तो तैने कहिए जे पीर पराई जाणे रे..' की कातरता थी, मार्मिकता थी।...
इस बार गाँधी-शास्त्री जयंती पर इन महापुरुषों को ही नहीं याद किया गया, कोरोना के चलते या बहाने बढ़ी बेरोजगारी, किसान-मज़दूर विरोधी कानूनों के खिलाफ़ गुस्सा भी था।..
इस बार वित्तविहीन विद्यालयों के शिक्षकों की व्यथा थी कि जीवन निर्वाह के लायक वेतन नहीं मिल सकता तो उन्हें गुज़ारा करने के लिए तो कुछ दे दिया जाय!..
इस बार गाँधी-शास्त्री जयंती सचमुच अलग थी!
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