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सोई हुई जातियाँ पहले जागेंगी



                     https://youtu.be/kzwBYuHjR1Y

                     सोयी हुई जातियां पहले जागेंगी !

                                                 प्रस्तुति: गुरचरन सिंह



मुंशी प्रेमचंद के नाम का जिक्र तो काफी होता है प्रगतिशील लेखक मंच से दलित समस्याओं को उठाने के लिए, लेकिन महाप्राण निराला जैसे 'कान्यकुब्ज ब्राह्मण' ने भी ऐसा कुछ कहा या लिखा होगा, यह तो मेरे लिए भी एक सुखद आश्चर्य से कम नहीं था। यह दूसरी बात है कि लगभग एक सदी बाद भी कुछ अपवादों को छोड़ कर हालात न केवल जस के तस बने हुए हैं बल्कि और भी बिगड़े हैं ! लेकिन सिर्फ बाबा साहेब ही नहीं कुछ और भी संवेदनशील व जिम्मेदार लोग इस दिशा में सोच रहे थे, सक्रिय थे, सबूत है इस बात का कि कोई भी सामाजिक आंदोलन किसी एक खास तबके की बपौती नहीं हो सकता ! पांच अंगुलियां जब आपस में मिलती हैं, मुट्ठी तभी बनती है ! इसलिए #महाप्राण_सूर्यकांत_त्रिपाठी_निराला जैसा कद्दावर भविष्यद्रष्टा कवि जब 1930 में भी जब कुछ ऐसा कह जाता है जिसे कहने में हम आज भी डर जाते हैं संविधान की अनेक गारंटियों के बावजूद तो हैरानी तो होगी ही !  पेश है जनवरी,1930 में मासिक 'सुधा' में प्रकाशित उनका यह लेख :

                          सोई हुई जातियां पहले जागेंगी

''न निवसेत् शूद्रराज्ये'' मनु का यह कहना बहुत बड़ा अर्थ-गौरव रखता है। शूद्रों के राज्य में रहने से ब्राह्मण-मेधा नष्ट हो जाती है, पर ये यवन और गौरांगों के 800 वर्षों के शासन के बाद भी हिंदोस्तान में ब्राह्मण और क्षत्रिय हैं ! जो लोग ऐसा कहते हैं, वे झूठ तो बोलते ही हैं, ब्राह्मण और क्षत्रिय का अर्थ भी नहीं समझते। इस समय भारत में न ब्राह्मण हैं, न क्षत्रिय, न वैश्य; न अपने ढंग की शिक्षा है, न अपने हाथ में राज्य-प्रबंध, न अपना स्वाधीन व्यवसाय। प्रोफेसर अंगरेज, मान्य शिक्षा पश्चिमी, शासन अंगरेजी, शासक अंगरेज; व्यवसायी अपर देशवाले वैश्य, व्यवसाय की बागडोर, मांग, दर का घटाव-बढ़ाव उनके हाथों में। ऐसी परिस्थिति में चाहे काशी के पूर्वकाल के वैश्य 'स' महाशय संस्कृत पढ़ लेने के कारण ब्राह्मण की परिभाषा संस्कृतज्ञ करें, और हर भाषा के पंडित को हर जाति का ब्राह्मण मानें या कलकत्ते के करोड़पति विदेशी मालों के दल्लाल - 'डागा' जी वैश्य-शिरोमणि अपने को समझे लें, या सूबेदार मेजर जट्टासिंह अपने को आदर्श क्षत्रिय साबित करें, हैं तो सब शूद्र ही ! म्लेच्छ-प्रभाव में रहकर कभी कोई पूर्वोक्त त्रिवर्ण में से किसी का अधिकार प्राप्त नहीं कर सकता। एक और बात यह भी है कि कोई भी राष्ट्र तब तक स्वाधीन नहीं हो सकता, जब तक उसके ये तीनों ही वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जग न गये हों- उसकी मेधा पुष्ट, शासन स्वाधीन सुदृढ़ और वाणिज्य स्वायत्त तथा प्रबल न हो। गुलाम के मानी गुलाम, बाहरी और भीतरी परिस्थितियों का दास।

गुलाम जाति का उत्थान भी गुलामी से होता है। जहां ब्राह्मण होंगे, क्षत्रिय, वैश्य होंगे, उसके उत्थान की जरूरत क्या है? वह तो उठा हुआ है ही। उठने की जहां कहीं आवश्यकता हुई है, वहीं मोह या दास्य का अंधकार रहा है। वहीं स्वतंत्रता के आलोक की आवश्यकता हुई है - उठाने के लिए। और, उस प्रभात में उठीं भी वे ही जातियां, जो रात के पहले से सोयी हुई थीं, जिनकी नींद एक चोट खूब लगा चुकी है। अतः सब जिस जागरण की आशा से पूर्वाकाश अरुण हो रहा है, उसमें सबसे पहले तो वे ही जातियां जागेंगी, जो पहले की सोयी हुई - शूद्र, अंत्यज जातियां हैं। इस समय जो उनके जागने के लक्षण हैं, वही आशाप्रद हैं, और जो ब्राह्मण-क्षत्रियों में देख पड़ते हैं, वे जागने के लक्षण नहीं, वह पीनक है - स्वप्न के प्रलाप हैं। विरासत में पहले के गुण अब शूद्र और अंत्यज ही अपनावेंगे। यहां की सभ्यता के ग्रहण करने का क्षेत्र वहीं तैयार है। ब्राह्मण और क्षत्रियों में उस पूर्व-सभ्यता का ध्वंसावशेष ही रह गया है। उनकी आंखों का वह पूर्व-स्वप्न अब शूद्रों तथा अंत्यजों के शरीरों में भारतीयता की मूर्तियों की तरह प्रत्यक्ष होगा।

वर्तमान सामाजिक परिस्थिति पूर्ण मात्रा में उदार न होने पर भी विवाह आदि में जो उल्लंघन कहीं-कहीं देखने को मिलते हैं, वे भविष्य के ही शुभ चिह्न प्रकट कर रहे हैं। संसार की प्रगति से भारत की घनिष्ठता जितनी ही बढ़ेगी, स्वतंत्रता का ब्राह्म रूप जितना ही विकसित होगा, असवर्ण विवाह का प्रचलन भी उतना ही होता जाएगा। देश के कल्याणकामी यदि इन अनेक गौण बातों पर ध्यान दें, एक शिक्षा के विस्तार के लिए प्रबंध करें, इतर जातियों में शिक्षा का प्रसार हो, तो असवर्ण विवाह की प्रथा भी जोरों से चल पड़े। अभी तो अशिक्षित लोग भी पूर्वकाल के ब्राह्मण-कुमारों से अपनी लड़की का विवाह नहीं कर सकते। अपने-अपने फिरके का सबको खयाल है। वर्ण-समीकरण की इस स्थिति का ज्ञान विद्या के द्वारा ही यहां के लोगों को हो सकता है। इसके साथ-ही-साथ नवीन भारत का रूप संगठित होता जाएगा, और यही समाज की सबसे मजबूत शृंखला होगी। यही साम्य पश्चात् वर्ण-वैषम्य से - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के रूपों में पुनः संगठित होगा।

 - 'वर्तमान हिंदू-समाज' से, मासिक 'सुधा'

                                    https://youtu.be/KfekOQm3f24

                           ★★★★★★★

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