राजनीतिक दल क्या
राजनीति की मर्यादाएं छोड़ चुके हैं?
भले ही संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चलाया जा रहा किसान आंदोलन संसदीय राजनीति से दूरी बनाए हुए है लेकिन सच यही है कि यह राजनीति की एक नई इबारत लिख रहा है। ज़्यादा सही कहना यह होगा कि किसान आंदोलन राजनीतिक दलों को राजनीति की मर्यादाएँ दिखा और सिखा रहा है। यही काम आज़ादी के पहले के विविध जनांदोलनों ने किया था। तब के राजनीतिज्ञों ने इसे समझा और अहमियत दी थी। आज राजनीति पैसा और ऐश्वर्य का महल खड़ा करने की एक चाल सिद्ध हो रही है। देखा यही जा रहा है कि इसी कोशिश में तमाम राजनीतिक दलों के नेता लगे हुए रहते हैं। आम जनता की ज़िंदगी की बेहतरी की उनकी बातें वास्तव में एक 'जुमला' ही सिद्ध होती हैं। चुनावों के बाद फिर चुनावों में नज़र आने वाले नेता मंदिरों, देवताओं, धर्म-मज़हब-जाति के सहारे इसीलिए रहते हैं क्योंकि असली मुद्दों से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं होता।
हाल में किसान आंदोलन ने जिस तरह किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों के मुद्दों को राजनीति के केंद्र में लाने की कोशिश की है उस पर गौर करने से लगता है कि दरअसल यह काम तो राजनीतिक दलों का था। वे इसमें असफल रहे या वे ऐसा करना ही नहीं चाहते। स्थापित राजनीतिक दलों ने जैसे यह मान लिया है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों से ही देश की तस्वीर बननी और लिखी जानी है। राजनीतिक दल जैसे यह स्वीकार कर चुके हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां जो चाहें करें, उन्हें इसकी पूरी छूट मिलनी चाहिए। आज भाजपा इसे पूरी बेशर्मी और जोशोखरोश से उचित ठहराने की कोशिश कर रही है पर अन्य तथाकथित मुख्यधारा की पार्टियां इससे कितना अलग हैं?
ऐसे में यही लगता है कि किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों के आंदोलन ही राजनीति की नई इबारत लिखेंगे। पहले राजनीतिक दल समझते थे कि वे जो चाहें सो करते रह सकते हैं। लेकिन विशेषकर पंजाब-हरियाणा के किसानों ने पूरे देश के सामने यह मिसाल रखी है कि राजनीतिक दलों की हेकड़ी पर रोक भी लगाई जा सकती है, पुलिस-कचहरी को उसके कानूनी-संवैधानिक दायरे का अहसास भी कराया जा सकता है। मसलन हाल ही में कई उदाहरण ऐसे देखे गए जब किसानों ने राजनीतिक दलों, अधिकारियों की सफलतापूर्वक घेराबंदी कर उन्हें यह अहसास दिला दिया कि मनमर्जी से नहीं, संवैधानिक तौर-तरीकों से लोगों की समस्याएं उन्हें सुननी और हल भी करनी पडेंगी। भाजपा नेताओं ने जब रोहतक में कलोई गांव में भगवान शिव के प्राचीन मंदिर का इस्तेमाल किया तो इसका विरोध करते हुए किसानों ने घेराव किया और कई घंटों तक भाजपा नेताओं को बाहर नहीं जाने दिया। क्या ये सही सवाल नहीं है कि कोई राजनीतिक दल मंदिरों-स्कूलों का इस्तेमाल अपने प्रचार के लिए क्यों करे? उर्वरकों की कालाबाजारी किसी संवैधानिक सरकार के रहते कैसे हो रही है? भ्रष्टाचार बिना राजनीतिक प्रश्रय के कैसे जारी रह सकता है? लाखों लोग सालों जेल में सड़ते कैसे रह सकते हैं जबकि अन्ततः वे निर्दोष करार दिए जाते हैं?
किसानों के ही नहीं, आम जनता से जुड़े सवालों को सतह पर लाकर किसान आंदोलन सचमुच राजनीति को दिशा देने का काम कर रहा है। जनता में यह चेतना विकसित करने की कोशिश कर रहा है कि वह कुत्सित राजनीति और पुलिस-प्रशासन के सामने खुद को असहाय समझ हाथ पर हाथ धरे न बैठी रहे, उठ खड़ी हो, सच्ची राजनीति को समझे और दिशा दे!
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