क्या हैैं कृषि संबंधित तीनों कानून?
क्या सचमुच ये संवैधानिक नहीं हैं?
तीनों कृषि कानून इसलिए रद्द किये जाने चाहिये क्योंकि भारत के संविधान के भाग 4 अनुच्छेद 48 में कृषि राज्य का विषय है, और राज्य के विषय पर केन्द्र का कानून बनाना गैर संवैधानिक है। देश संविधान से चलना चाहिए, सरकार की मर्जी से नही। तीनों कानूनों को हमें एक दूसरे से जोड़कर देखना होगा। कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार अधिनियम 2020 जिसे हम बोलचाल की भाषा में बंधुवा किसान कानून कहते हहैैं, इसमें पीड़ित पक्षकार न्याय पालिका का दरवाजा नही खटखटा सकता का उल्लेख है। कोरोना महामारी के दौरान हमने यह अच्छे तरीके से महसूस किया कि जब कार्यपालिका और विधायिका ठीक तरीके से काम नही करती तो न्यायपालिका अपना फर्ज समझकर इन्हें कार्य करने का निर्देश देती है। भारत के संविधान के भाग 3 में हमारे मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है। जिसमें कानून के समक्ष सभी व्यक्ति समान हैं, किसी भी व्यक्ति को न्याय से वंचित नही किया जा सकता का उल्लेख किया है। अनुच्छेद 13 में उल्लेख है कि मूल अधिकारों के खिलाफ देश में कोई कानून नही बनाया जा सकता। किसान को न्यायालय जाने से रोकना उसके मूल अधिकारों का उल्लंघन है। अनुच्छेद 13 के अनुसार यह कानून अपने आप में रद्द किये जाने योग्य है।
तीनों कृषि कानून, सत्ता पक्ष के रणनीतिकारों का सबसे बड़ा मानसिक दीवालियापन दर्शाता है। अगर यह तीनों कानून रद्द नहीं किये गये तो भारत के नागरिकों का जीवन रसातल में चला जायेगा। तीनों कानूनों का किसानों पर ही नहीं, बल्कि देश के हर नागरिक पर इसका विपरीत असर पड़़ेगा।
आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020:
आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में बनाया गया, आखिर इस कानून को बनाने की क्या आवश्यकता थी? यह हमें समझना बहुत आवश्यक है। क्योंकि वर्तमान समय में पूरे देश ने प्राण वायु, दवाईयाँ, अस्पताल, वेन्टीलेटर, के अभाव में नागरिकों को तिल-तिल करते मरते देखा। प्राण वायु, दवाईयाँ, अस्पताल, वेन्टीलेटर की कालाबाजारी करने वाले के साथ सरकार खड़ी दिखाई दी। दवाई विक्रेता, अस्पताल के कर्मचारी, अधिकारी, राजनेता तथा पुलिस की सांठ गांठ ने असमय ही अपने जनों को मौत के मुँह में जाते देखा। अन्तिम समय में प्रियजन के दर्शन ना कर पाने की टीस परिजनों को जीवन पर्यन्त रहेगी। प्रोटोकाल के नाम पर अन्तिम संस्कार भी सम्मान जनक तरीके से नही किया गया। लाशें नदियों में बहा दी गई तथा रेत में भी लाशों को दबा दिया गया। इन सब परिस्थितियों को देख कर यह महसूस हुआ कि देश में कानून का राज नहीं बल्कि जंगलराज चल रहा है। आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020 में उल्लेख किया गया है कि अकाल या महामारी में कानून लागू , इस।का भी उल्लंघन देश के आम नागरिकों ने देखा। कोरोना से मरने पर भी मौत संदिग्ध बताई जा रही है। जबकि अगर किसी व्यक्ति की मौत संदिग्ध लगती है तो उसका पोस्टमार्टम कराना आवश्यक होता है, यह हमारा चिकित्सा न्यायशास्त्र कहता है। अगर व्यक्ति की मौत कोरोना से नहीं हुई तो उसे ईलाज के लिए कोविड वार्ड में क्यों रखा गया तथा कोरोना प्रोटोकाल में अन्तिम संस्कार क्यों किया गया ? संदिग्ध मौत होने पर मृत शरीर मृतक के परिवार को क्यों नही सौंपा गया ? ऐसे सारे प्रश्न देश के नागरिकों के दिमाग में चल रहे ह
हैं।
सन् 1955 के पूर्व बंगाल में मानव निर्मित अकाल पैदा किया गया। अनाज तथा जीवन के लिए आवश्यक सभी वस्तुऐं पूर्णतः उपलब्ध थीं पर ये सब सेठों की तिजोरी में बन्द थीं। लोग भूख से तड़प तड़प कर मर रहे थे, तब सरकार ने 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम बनाया। ताकि अनाज तथा जीवन के लिए आवश्यक वस्तुऐं सेठों की तिजोरी में बन्द ना हो। केन्द्र में बैठी भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनयम 2020 लाकर देश को फिर भुखमरी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया तथा धन्ना सेठों के पक्ष में कानून बना डाला। अब धन्ना सेठ जितना चाहे उतना भण्डारण कर लें, देश का कानून उन्हें भण्डारण करने से नहीं रोकेगा। जिनके पास पैसा होगा वही अनाज खरीद कर खा सकेगा वर्ना उसी तरीके से काल के मुँह में समा जायेंगे जैसे आज आॅक्सीजन, दवा, वेंन्टीलेटर के अभाव में काल के मुँह में समा रहे हैं।
कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य ( संवर्धन और सरलीकरण)
अधिनियम, 2020:
इस कानून मेें प्राईवेट मण्डियों को बढ़ावा देने का उल्लेख है। कानून के लागू हो जाने के पश्चात् किसान सरकारी मण्डी के बाहर कहीं भी अपने माल को बेच सकेगा, प्राईवेट मण्डीयाँ भी खुल सकेगी। सरकारी और निजी मण्डी दोनों पर अगल तरह के कानून होंगे। सरकारी मण्डी के बाहर होने वाले व्यापार पर ना तो कोई फीस या टेक्स लगेगा, ना ही रजिस्टेशन या रिकाॅडिंग होगी, ना ही सरकार उसकी निगरानी करेगी।
सरकारी मण्डी में टेक्स लगेगा, जिससे ग्रामीण क्षेत्र की सड़कों का निर्माण होगा, सरकारी मण्डी के प्रति सरकार की जवाबदेही होगी, रजिस्ट्रेशन फीस मिलने पर मण्डी के कर्मचारियों का वेतन मिलेगा। देश में कितना आनाज पैदा हुआ, कितनी खपत हुई इसका लेखा-जोखा भी होगा। अगर कोई व्यापारी मण्डी शुल्क चुकाये बिना कृषि उपज से लदा हुआ व्यापारिक वाहन मिलता है, तो मण्डी द्वारा 5 गुना मण्डी शुल्क लगाने के साथ-साथ जुर्माना एवं निराश्रित शुल्क भी वसूला जा सकेगा। अगर इस एक्ट को लागू कर दिया तो मण्डी में काम करने वाले हम्माल, कर्मचारी बेरोजगार हो जायेंगे, क्योंकि प्राईवेट मण्डियाँ मशीनों का उपयोग करेंगी उन्हें मानव श्रम की आवश्यकता नहीं होगी। कम्पनी अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए किसान के खेत से ही ओने-पोने दाम में ही फसल लूट लेगी।
बिहार में 2006 में सरकारी मण्डियाँ खत्म कर दी गई। आज बिहार के किसान को धान, मक्का, गेंहू का दाम बाकी राज्यों से बहुत कम मिल रहा है। अगर यह एक्ट लागू हुआ तो बड़ी कम्पनियाँ अपनी मनमर्ज़ी से किसान की फसलें ले लेंगी। कंपनियों द्वारा किसानों की लूट होने पर सरकार कम्पनियों के खिलाफ कोई कार्यवाही करने में असमर्थ रहेगी। जब सरकार अनाज की खरीदी नहीं करेगी तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबों को राशन नहीं मिलेगा। देश में कुपोषित महिलाओं और बच्चों की संख्या और ज्यादा बढ़ जायेगी। गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को 275 रूपया नगद देने का सरकार का इरादा गरीबों को भूखे मार डालने का दिखाई देता है। कम्पनियाँ सस्ते दाम पर किसानों से अनाज खरीदी कर मेंहगे दामों पर उसे बेचेगी। अनाज के बदले जो पैसा सरकार गरीब के खातें में डाल रही है, उतने पैसे में उसे अनाज नहीं मिलेगा। कम्पनीयाँ मुनाफा कमाने के लिए कम करती है, जनकल्याण उनका लक्ष्य नही है। कम्पनीयाँ यह जानती है कि अगर वे काॅम्पटीशन करेंगी तो मिट जायेगी। सरकार का यह सोचना की ज्यादा कम्पनीयाँ आयेगी तो किसान को उसके माल की ज्यादा कीमत मिलेगी, सरकार के मस्तिष्क का दीवालियापन दर्शाता है।
कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) कीमत अश्वासन और कृषि सेवा करार अधिनियम 2020:
इस कानून को समझने के पहले हमें चम्पारण आन्दोलन को समझना होगा। नील की खेती का विरोध ही तो कर रहे थे चम्पारण के किसान। इंग्लेण्ड के कपड़ा मिल मालिक (कम्पनी) किसानों को नील के बीज भी दे रही थी और उत्पादित नील भी खरीद रही थी, फिर किसानों ने इसका विरोध क्यों किया ? माननीय प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने चम्पारण आन्दोलन की तारीफ की, यह वही आन्दोलन था जो आज के इस कानून के खिलाफ था। वर्तमान में कोविड महामारी के दौरान स्वास्थ्य बीमा धारक गली गली भटकते फिर रहे हैं, बीमा कम्पनी धारक को ईलाज का पैसा देने को तैयार नही है। बीमा धारक के साथ धोखाधड़ी की जा रही है और सरकार मूक दर्शक बनी बैठी है, जैसे कि धोखाधड़ी करने वाली कम्पनीयों ने सरकार के हाथ तथा मुँह बाँध दिये हो। पाॅलिसी धारक अदालत में जाकर न्याय तो प्राप्त कर लेगा, किन्तु इस कानून के लागू होने के पश्चात् अगर किसान के साथ धोखाधड़ी हुई तो वह न्याय के दरवाजे नहीं खटखटा सकता, क्योंकि उक्त कानून उसे न्यायालय जाने से रोक रहा है। लिखित करार का उल्लेख उक्त कानून करता है, करार कम्पनीयाँ ही तैयार करेगी तो तय है, कि अपने पक्ष में ही करेंगी। देश का भोला भाला अन्नदाता कानून के दावपेंच नही समझ पाता। अन्नदाता के खिलाफ अनुविभागीय अधिकारी के यहाँ से लाखों रूपये का जुर्माने का आदेश होने पर जमीन बेचकर कम्पनीयों को पैसा देने पर मजबूर होगा। अनुविभागीय अधिकारी किस तरीके से और किसके इशारों पर काम करते हैैं यह आपसे और मुझसे छुपा नही है।
तीनों कानून पूँजीपतियों के इशारों पर बनाऐ गये है, इस कारण सरकार तीन कृषि कानून से किसानों को क्या-क्या नुकसान हो होंगे, नही समझ पाई। कृषि कानून का उल्लंघन होने पर किसान न्याय पालिका के दरवाजे तक नही पहुँच पायेगा, उसे न्याय के दरवाजे खटखटाने से रोकने पर न्यायपालिका धीरे धीरे करके समाप्त हो जायेगी इसका ऐहसास ही नही हो पाया। अगर ये तीनों कानून सरकार द्वारा बनाये गये होते तो उसमें संशोधन करने की आवश्यकता ही नही पड़ती। सरकार तीनों कृषि कानून में संशोधन करने की बात तो लेकर तैयार है देश का किसान यह समझ चुका है कि संशोधन करने पर पूरे कानून का ही स्वरूप बदल रहा है, इसे रद्द करके किसान संगठनों के साथ बैठकर सरकार को नए कृषि कानून बनाना चाहिए। तीनों कृषि कानून देश के किसानों पर ही नही बल्कि देश के लोकतंत्र के लिए भी घातक है, तीनों कानून देश को कंपनियों की गुलामी की ओर ले जाते दिखाई दे रहे हैं।
आइये, हम सब मिलकर देश विरोधी कानून निरस्त करने की मांग को लेकर एकजुटता का परिचय दें, ताकि सरकार देश विरोधी कानून निरस्त कर सके।
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Very nice information
ReplyDeleteThank you!... Please follow my Blog and if you're a writer, inform with your Email address!..
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