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जन्मतिथि पर: महेंद्र सिंह टिकैत और हरे रंग की टोपी

                         बाबा महेन्द्र सिंह टिकैत:

                       किसानों का एक मसीहा

 


   हरे रंग की टोपी पहने हर किसान में जिंदा हैं 

                   महेंद्र सिंह टिकैत 

   संयुक्त किसान मोर्चा के मंचों पर लगे बैनरों पर आन्दोलन के प्रेरणा स्रोतों में एक चेहरा ऐसा रहता है जो देहत्याग के बाद भी आज जिन्दा है। वह चेहरा है बाबा महेन्द्र सिंह टिकैत। इन महापंचायतों में हजारों की संख्या में जुटे किसानों में हरे रंग की टोपी पहने हर किसान में जिंदा हैं टिकैत! आज वे अपने हर संघर्ष के साथी में प्रतिबिम्बित हो गए। सत्तर - अस्सी साल के उनके किसी भी किसान साथी से मिलिए, बात करिए, आपको बाबा महेन्द्र सिंह टिकैत के दर्शन हो जाएंगे। आज ही के दिन यानी 06 अक्टूबर, 1935 को जन्मे किसानों का मसीहा  कहे जाने वाले महेंद्र सिंह टिकैत देश के जनांदोलनों पर अपनी अमिट छाप छोड़ गए हैं। आज के किसान आन्दोलनों में महेन्द्र सिंह टिकैत जैसे वापस लौट आए हैं, उन हजारों चेहरों में, जो उनके सखा हैं, अनुयायी हैं, उनके अपने सगे हैं। 

   जनवरी 1987 में बिजली समस्याओं को लेकर करमूखेड़ी पावर हाउस के घेराव से किसान आन्दोलन में कदम रखा। वैसे तो आठ साल की छोटी सी उम्र में ही बाल्यान खाप के मुखिया की बड़ी जिम्मेदार उनके कंधों पर आ गई।   प्रचलित कहानी है कि राजा हर्षवर्धन ने उनके परिवार के साहस और अडिग स्वभाव से प्रभावित होकर टिकैत नाम दिया था। जिसकी लाज उन्होंने जीवन भर रखी। करमूखेड़ी का आन्दोलन कई महीने चला। 1 मार्च 1987 को किसानों को रोकने के लिए पुलिस ने फायरिंग कर दी जिसमें दो किसान जगपाल सिंह और अकबर शहीद हो गए। इस घटना से टिकैत न तो डरे, न पीछे हटे। उल्टे उनके नेतृत्व में आन्दोलन और तेज हो गया। आखिरकार सोफे पर पाल्ती मार कर खांटी गोरखपुरिया लहजे में अपने अफसरों को निर्देशित करने वाले तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह को सिसौली आकर इस घटना के लिए क्षमायाचना करनी पड़ी थी। उस समय मुख्यमंत्री का न कोई स्वागत सत्कार और न जय जयकार, उल्टे मंच पर ही उन्हें खरी खोटी सुनाई। अब बाबा टिकैत की छवि ऐसे किसान नेता के रूप में बन गई जो सरकारों तक नहीं जाता था, सरकारें खुद चलकर उनके पास जाती थी।

      करमूखेड़ी से चले फिर टिकैत रूके नहीं। भारतीय किसान यूनियन अब सिसौली तक सीमित नहीं रही वह देश के दक्षिणी सिरे तक फैल गई। उनके नेतृत्व को उन किसानों ने भी स्वीकार किया जो उनकी भाषा नहीं समझते थे, न बोली बानी। सिसौली की यह आवाज अब दिल्ली के गलियारों तक गूँजने लगी। 

     25 अक्टूबर, 1988 को टिकैत के नेतृत्व में दिल्ली के मशहूर वोट क्लब पर पांच लाख किसान इकट्ठा हुए। इनकी मांग थी गन्ने का अधिक मूल्य दिया जाए, पानी और बिजली की दरों को कम किया जाए और किसानों का कर्जा माफ किया जाए। दिल्ली कूच का ऐलान भी उन्होंने अपने चिरपरिचित अंदाज में हफ्ता भर पहले किया और लाखों लोग दिल्ली में जुट गए। उनके गांव सिसौली में महीने की हर 17 तारीख को पंचायत हुआ करती थी। उसी में ऐलान किया था कि एक हफ्ते बाद हम सिसौली से दिल्ली तक बुग्गी से बुग्गी जोड़ेंगे। 

 मध्य दिल्ली के इंडिया गेट और विजय चौक के आसपास किसानों का कब्जा इससे पहले कभी नहीं हुआ था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ट्रेक्टरों, ट्रालियों और बैल गाड़ियों के काफिले करीब एक हफ्ते का राशन लेकर दिल्ली में घुसे थे और वहीं अस्थायी टैंन्टों में घर बसा लिए। राजपथ पर चूल्हे खुले आसमान के नीचे जलने लगे थे,  कनाट प्लेस के पार्कों में लगे फब्बारों के नीचे  गांव के किसान नहाते थे। दिल्ली के सभी स्कूल-काॅलेज बंद हो गए थे। दिल्ली किसानों के कब्जे में हो गई थी। 

      उन्होंने गन्ने की कीमत और कर्जामाफी तक ही अपने संघर्ष सीमित नहीं रखा, किसानों के हर मुद्दे पर मोर्चाबंदी की। कृषि क्षेत्र में उदारीकरण की किसान विरोधी नीतियों का विरोध किया, साथ ही साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ देश-दुनिया में गठित तमाम मोर्चों की ताकत बनें। कुछ लोग उन्हें एक जाति या गोत्र के नेता मानने की गलती करते हैं। यह सच है कि आठ साल के अबोध बालक को जिसे समाज और राजनीति का कोई ज्ञान नहीं, उसे एक जाति के गौत्र के मुखिया की जिम्मेदारी सौंप दी। लेकिन इस करिश्माई शख्सियत ने अपने को ही नहीं बल्कि उस गौत्र को , उस गांव को, उस इलाके को, उस क्षेत्र को जाति और धर्म से ऊपर इंसानियत के दुखदर्द से जोड़ दिया, जो आज हरे रंग की टोपी पहने किसान-मजदूर के बजूद की लड़ाई सड़क पर लड़ रहा है। उनके नेतृत्व में हर वर्ग शामिल था। अधिकतर विशाल पंचायतों की अध्यक्षता सरपंच एनुद्दीन करते थे और मंच संचालन का काम गुलाम मौहम्मद जौला। एक वे नेता से बढकर कार्यकर्ता थे, हर किसान के सच्चे सखा थे, वे महिला किसानों द्वारा घर से लाए पूड़ी, पराठे, हलवा, सब्जी,अचार बड़े चाव से खाते थे। मक्का की रोटी, साग, कढ़ी और शक्कर-चावल उनके पसंदीदा भोजन थे। वे भाषण देकर मंच से वापस अपने साथियों के बीच ही बैठते थे, देहाती अंदाज में हँसी-ठिठोली करना, हुक्का गुड़गुड़ाना उनकी किसानी से अटूट संबंध की निशानी थी। हर मौसम की मार झेलकर भी सड़कों को अपने विरोध का आशियाना बनाकर किसान आज भी उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे रहे है।

                        ★★★★★★

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