कुरुक्षेत्र आज का
मानव सभ्यता के इतिहास में स्वार्थों और महात्त्वाकांक्षाओं ने असंख्य लोगों की बलि ली है। न जाने कितने राजा-महाराजा, नवाब-बादशाह असीमित मानवता के खून से सने हुए हाथ लेकर ही कालावधि में बिला गए। यहाँ तक कि जिन्होंने स्वयं को 'ईश्वर अंश' और 'भगवान' घोषित किया-कराया, वे भी न जाने कितने संहारों के बाद स्वयं भी काल-कवलित हो गए। न जाने कितनी मायाएँ रची गईं, धरती का कोना-कोना न जाने कितनी आहों-कराहों का साक्षी है। इनमें अधिकांशतः आम जनजीवन के लोग ही प्रभावित हुए हैं, राजा-नवाब तो विरल थे- विरल ही अपने कर्मों की सजा पाए हैं।
यह लोभ-लिप्सा आज भी नहीं गई। दो विश्वयुद्धों ने इसका भयावह प्रमाण दिया है।...और आज?...इस इक्कीसवीं सदी में?...वह कौन है जो त्राहि माम त्राहि माम कर कराह रहा है और वह कौन है जो इन कराहों का व्यापार-व्यवसाय कर मुनाफ़ा पीट रहा है? चाहे कोरोना वैक्सीन के नाम पर हो या इस बहाने किए जाने वाले अन्य व्यवसायों के नाम पर, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बढ़ता मुनाफ़ा बहुत से सवाल खड़े करता है। इनका जवाब शायद ही कभी मिले!
'राष्ट्रकवि' रामधारी सिंह दिनकर की कविता की ये पंक्तियां कुछ संकेत कर रही हैं! पूरा पढ़ें -
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कुरुक्षेत्र: आज का---------------------------
- रामधारी सिंह 'दिनकर'
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहू का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्यवहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
और तब सम्मान से जाते गिने
नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
देश की इज्जत बचाने के लिए
या चढ़ा जिसने दिये निज लाल हैं।
ईश जानें, देश का लज्जा विषय
तत्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
हर युद्ध के पहले द्विधा लड़ती उबलते क्रोध से,
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
लड़ना उसे पड़ता मगर।
औ' जीतने के बाद भी,
रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;
वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में
विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।
उस सत्य के आघात से
हैं झनझना उठती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
सहसा हृदय को तोड़कर
कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-
'नर का बहाया रक्त, हे भगवान! मैंने क्या किया
लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।
इस दंश के दुख भूल कर
होता समर-आरूढ फिर;
फिर मारता, मरता,
विजय पाकर बहाता अश्रु है।
यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में
नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,
पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का
वज्रांग पाण्डव भीम का मन हो चुका परिशान्त था।...
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