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क्या जनता नहीं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपराजेय हैं?


          किसान-मजदूर आंदोलन के सामने

                                  उठते सवाल 


देश की आम जनता, विशेषकर किसान आंदोलन के सामने कुछ ज्वलंत सवाल खड़े हैं!...क्या मजदूर किसान आंदोलन से जुड़ेंगे?...अगर जुड़ेंगे तो किसान आंदोलन का स्वरूप क्या होगा? हाल ही में प्रवासी मजदूरों को किसान आंदोलन से जुड़ने का जो आह्वान किया गया था, उसका निहितार्थ क्या है? उसका क्या प्रभाव पड़ा?...क्या हमारे देश में प्रवासी मजदूरों के संघर्ष का कोई इतिहास है? इस नए अर्थात उदारीकरण के दौर में क्या मजदूर परम्परागत मजदूर रह गया है? क्या प्रवासी मजदूरों ने पिछले साल की विभीषिका से कोई सबक लिया है? लिया है तो क्या? - मालिकों के सामने गिड़गिड़ाकर किसी भी तरह, किसी भी शर्त पर काम पाना या कुछ और?...क्या किसान आंदोलन से उन्हें कोई उम्मीद है? ...

ऐसे बहुत से सवाल शासकवर्ग से अलग सोच रखने वाले मजदूरों, किसानों, बेरोज़गारों, बुद्धजीवियों के सामने आज खड़े हैं। कोरोना ने इन सवालों को अगर अप्रत्यक्ष रूप से तीखा किया है तो बहुत से अन्य सवाल भी खड़े किए हैं। मसलन, प्रत्यक्ष दिखने वाला संकट क्या शासकवर्गों अपरंच साम्राज्यवादी शक्तियों का मंदी से उबरने का संकट है?...क्या यह 'नई विश्व व्यवस्था' बनाने की कोई कवायद है? पूँजीवाद का संकट क्या सचमुच गहरा गया है और वह अपना संकट शासित जनता पर डालकर अभी भी जिंदा रहने की कोशिश कर रहा है? अथवा मानव सभ्यता के सामने यह एक अभूतपूर्व संकट है जहाँ पूँजीपतियों ने जनता के पिछले संघर्षों से बहुत कुछ सीखा है और वे अपनी गलतियों को दोहराना नहीं चाहते कि जनता विद्रोह कर सके?..जनता की समझ क्या सचमुच पीछे गई है और उसने आत्मसमर्पण को अपनी नियति मान लिया है?...फिर पूरी दुनिया में उठ खड़े होते विशाल विरोध प्रदर्शन क्या संकेत देते हैं?

और एक प्रक्षेपित सवाल यह कि क्या मजदूर वर्ग अपनी क्रांतिकारी भूमिका खो चुका है, विशेषकर भारत जैसे देशों में?...और क्या किसान आंदोलन मजदूर वर्ग के लिए भी कोई राह दिखाने का काम करेगा?...

किन्तु इन सब सवालों का जवाब एक ही है। जनता के संघर्ष जितना सामने दिखते हैं, उससे ज़्यादा अप्रत्यक्ष होते हैं। वे धीरे-धीरे लेकिन स्थायी परिवर्तन की प्रकृति के होते हैं। घटनाओं की तरह चेतना का विकास दृष्टिगोचर नहीं होता किन्तु वह व्यापक होता है। क्रमशः होता है।  पूरी दुनिया के शासकों और जनता के बीच संघर्ष बढ़ रहे हैं, यह बात बढ़ते विरोध प्रदर्शनों से स्पष्ट होती है। लेकिन इसी के साथ पूरी दुनिया के शासक आपस में मिल-जुलकर उससे निपटने की कोशिश कर रहे हैं, यह भी बात उतनी ही साफ है। एक देश की जनता को लूटकर कोई कम्पनी वहाँ से बोरिया-बिस्तर समेट कर दूसरे देश में अवसर ढूँढ़ रही है, यह भी खूब दिख रहा है। किंतु यह हो इसीलिए रहा है कि जनता के सामने इन कम्पनियों/पूँजीपतियों की पोल खुलती जा रही है और वे अपनी सुरक्षा कहीं और जाने में ही महसूस कर रहे हैं। इसलिए मूढ़ सी दिखती, शासकों के आगे घुटने टेकती सी दिखती जनता वास्तव में ऐसी है नहीं! शासकों से उसके अंतर्विरोध बढ़ रहे हैं, साथ ही साम्राज्यवाद से भी जिसका प्रतिनिधित्व बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ करती हैं। 

        यद्यपि यह बात सही है कि जनता के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग शासकों और कम्पनियों का ही बुद्धजीवी सिद्ध हुआ है और शासकों/कम्पनियों की चाकरी को उसने अपनी नियति मान उसे ही लक्ष्य बना लिया है। यह वर्ग बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और साम्राज्यवाद और उसके पिट्ठू शासकों को अपराजेय बताने में जुटा है। इनमें अध्यापक, पत्रकार, लेखक, कर्मचारी सभी तरह के लोग हैं। लेकिन इन्हीं में दूसरा वर्ग भी है जो गहराते संकट को संजीदगी के साथ महसूस भी कर रहा है। यह दूसरा वर्ग किसान-मजदूर आंदोलनों के साथ खड़ा होने और साम्राज्यवाद और उसके पिट्ठुओं की नंगी सच्चाई सबके सामने लाने की कोशिश कर रहा है।

       लेकिन असली संघर्ष तो मैदान में रहने वाली शक्तियाँ ही करती है, किसान और मजदूर ही करते हैं। इसलिए अगर वे संगठित नहीं होते तो न तो अपने खोए हुए और लगातार छीने जाते अधिकार पा सकते हैं, न साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लड़ाई को ही उसकी मंजिल तक पहुँचा सकते हैं। शासकवर्ग कभी चुप नहीं बैठता। वह न केवल अपना शिकंजा लगातार मजबूत करता रहता है बल्कि अपने राजनीतिक, सामाजिक और सशस्त्र संगठन भी मजबूत करता रहता है। इनका प्रतिरोध और प्रतिकार किए बिना न तो किसान-मजदूर संगठन दीर्घकालिक संघर्ष जारी रख सकता है, न ही इस संघर्ष को मुकम्मिल जीत में परिवर्तित कर सकता है। हालिया किसान आंदोलन ने एक राह दिखाई है, पर संघर्ष लंबा चलाए बिना जीत अधूरी रहेगी।

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