14 मई नीमूचाना हत्याकांड के
शहीद किसानों की याद में
- शशिकांत
नीमूचाना सेठों की वीरान हवेली
★ एक ऐसा किसान आन्दोलन जो इतिहास के पन्नों में खो गया!..
14 मई का राजस्थान का इतिहास खोजें तो गूगल में पहला जबाव होगा - नीमूचाना किसान आन्दोलन! लेकिन आज यह आन्दोलन केवल राजस्थान की प्रतियोगी परीक्षाओं का महज एक महत्वपूर्ण परीक्षोपयोगी प्रश्न बन कर रह गया है। न नीमूचाना गांव में कोई स्मारक, न कोई कार्यक्रम-मेला!..
रोजी-रोटी के सिलसिले में बानसूर ( अलवर की तहसील मुख्यालय) में मैं आठ साल रहा। इसीलिए इस आन्दोलन के बारे में ऐसा लिख रहा हूँ। नीमूचाना इसी तहसील का एक छोटा गांव है। 2012 में राजस्थान के किसान नेताओं के एक प्रतिनिधि मंडल के साथ नीमूचाना जाने का मौका मिला। रेत के टीलों, कीकर-बबूल की जंगलात के बीच बसा यह गांव आज वीरान होने को है। अपने निजी साधनों के अलावा इस गांव तक पहुँचने का कोई साधन नहीं। बानसूर से 14 किमी दूर यह गांव सारी सुविधाओं से आज भी कटा हुआ है। गांव में अब कुछ ही परिवार रह गए हैं। बाकी जाकर शहरों में बस गए। सेठों की वीरान पड़ी हवेलियों पर गोलियों के निशान आज भी जाबांज किसानों के संघर्ष की कहानी बयां करते हैं।
14 मई 1925 को इसी गांव में रामपुर, हाजीपुर, लोयती, ततारपुर समेत कई जागीरदार ठिकानों के हजारों किसान एकत्रित हुए। तभी सूचना पाकर ब्रिटिश सरकार के कंपनी कंमांडर छाजूसिंह ने भारी फौज के साथ गांव को चारों ओर से घेर लिया। चार तोप और कई मशीनगनों से गांव पर हमला बोल दिया। किसानों को घेर कर बर्बरतापूर्वक गोलियों से भूना गया। 150 से अधिक किसान शहीद हो गए। सैकडों किसानों ने अपने अंग गंवा दिए। मरने वालों में महिलाएं और बच्चे भी थे। किसानों को इतनी बेरहमी से मारा गया कि आज भी हत्यारे छाजूराम को 'राजस्थान का डायर ' कहा जाता है। उस समय महात्मा गांधी ने यंग इंडिया में इस घटना को 'दोहरी डायरशाही' कहा।
इन किसानों पर गोलियां इसलिए दागी गई क्योंकि वे अलवर राजा के आदेश को मानने को राजी नहीं थे। राजा ने लगान बढ़ाने का ऐलान कर दिया था। पहले से ही लगान के नाम पर किसानों की आधी फसल लूटी जा रही थी, अब इस आदेश के बाद किसानों का भूखों मरना तय था। आखिरकार किसानों ने भूख से मरने की बजाय लड़ते हुए मरने की ठानी। संगठित विरोध की तैयारी के लिए ही किसानों ने नीमूचाना में 14 मई की सभा रखी थी। किसानों की शहादत से ब्रिटिश सरकार हिल गई। हत्यारे छाजूराम को सजा हुई, राजा जयसिंह के खिलाफ केस दर्ज हुआ। राजा को लगान वृद्धि का आदेश वापस लेना पड़ा।
लेकिन राजसत्ता ने फूट डालो, राज करो की नीति को और तीखा कर दिया। अगले कई वर्षों तक जाति और धर्म के झगड़े प्रायोजित हूए, जनता खेती में हाड़ तोड़ती रही, लेकिन किसान से बढ़कर वे एक जाति और धर्म बन गए। देश आजाद हो गया लेकिन यह क्षेत्र उसी राजघराने के प्रभाव में रहा। आज भी यहाँ जनता जाति और धर्म के नशे में चूर है और सत्ताधारी संघर्ष के हर निशान को मिटाने में जुटे हैं। कदाचित इसीलिए ऐसा ऐतिहासिक किसान आन्दोलन आज इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया है। अभी चल रहे तीनों कृषि बिलों के खिलाफ चल रहे देशव्यापी आन्दोलन के नाम पर वोट बैंक बनाने के मकसद से इस क्षेत्र में स्वघोषित किसान नेताओं ने महापंचायत की। सत्ता ने एक बार फिर किसान नेता राकेश टिकैत पर हमला करके नीमूचाना के किसानों की शहादत का अपमान किया। इस पर स्थानीय स्तर पर कोई प्रतिरोध भी नहीं हुआ! सवाल है क्या जनता इस हमले के प्रति मौन सहमति जता रही थी?.. आखिर कब इस क्षेत्र की गरीब जनता जाति और धर्म के चंगुल से निकलकर किसान बनेंगी और अपने पुरखों के स्वर्णिम इतिहास को पुनर्जीवित करेगी? यही सवाल खड़ा कर रहा शहीद किसानों का यह स्मृति दिवस!
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