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कौन हैं किसान नेता करणीराम-रामदेव?

 पुरखों को जानिए:

                      संघर्ष की प्रेरणा देती 

          शहीदों की एक अमर जोड़ी


          बढ़ते बिजली बिलों के खिलाफ सन 1986 का किसान आन्दोलन हो, भूमि अधिग्रहण के खिलाफ नवलगढ़ का जीवंत किसान आन्दोलन या आज किसान विरोधी तीनों काले कानूनों की वापसी का संघर्ष हो, शेखावाटी (राजस्थान) के किसानों के लिए सदैव एक महान प्रेरणा का स्रोत रही है अमर शहीदों की जोड़ी - करणीराम - रामदेव!

       1952 के चुनाव के बाद आदेश आया कि जागीरदार किसानों से लगान के रूप में फसल के छठें भाग से ज्यादा नहीं ले सकते। जबकि इससे पहले जागीरदार फसल का आधा हिस्सा लगान के रूप में वसूलते थे। बचे हुए आधे हिस्से में से भी बोहरे की तुलाई, धुँआबाज, खूंटा बंधी आदि के नाम पर लूट होती थी। जमीनों का कोई रिकार्ड नहीं था। कौन सी जमीन का कौन काश्तकार रहेगा, यह भी उस जमाने में निश्चित नहीं था। पूरे इलाके में किसानों के घर कच्चे छप्परों के ही थे। जागीरदार का आदेश ही उनके लिए सब कुछ होता था। आदेश की अवहेलना करने पर जमीन और प्राणों तक से हाथ धोना पड़ता था। खिरोड़, देवगांव, हुकुमपुरा, चनाना के हत्याकांड इस बर्बरता के साक्षी थे। इनमें जागीरदारी प्रथा के विरोध में सैकड़ों किसानों ने अपनी जान न्यौछावर की थी। उस समय इन बहादुर किसानों की शहादत को नमन करने क्रांतिकारी राजा महेन्द्र प्रताप भी नवलगढ़ पहुँचे थे। 

        शेखावाटी के जागीरदार विरोधी किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले करणीराम का जन्म 2 फरवरी 1914 को शेखावाटी क्षेत्र के वर्तमान झुँझनू जिले के भोजासर गाँव में हुआ था। करणीराम पुत्र देवाराम को चार वर्ष की अवस्था में ही मातृशोक सहना पड़ा। फलतः करणीराम का लालन-पालन ननिहाल गाँव अजाड़ी में हुआ। कुशाग्रबुद्धि करणीराम ने 1942 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वक़ालत पास करने के बाद न केवल आम जनता के मुकदमों की मुफ़्त में पैरवी करते बल्कि उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा भी देते।

         करणीराम की ही तरह उनके अभिन्न साथी रामदेव भी एक संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी थे। किसान नेता और शिक्षक रामदेव का जन्म सन 1922 में राजस्थान की उदयपुरवाटी तहसील के गाँव गीलां की ढाणी में हुआ था। वे शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए थे किंतु नौकर जैसी शिक्षक की जिंदगी से जल्दी ही मुक्त होकर सरदार हरलाल सिंह के संपर्क में आकर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हुए। वे जबरदस्त और लोकप्रिय संगठकर्ता थे। करणीराम के साथ उन्होंने भी जागीरदारी प्रथा के खिलाफ संघर्षों में भागीदारी की।

     सन 1952 में लगान सम्बन्धी इस नए आदेश के आने पर जागीरदारी प्रथा के खिलाफ किसानों के आन्दोलन को और बल मिला। करणीराम-रामदेव की जोड़ी गांव-गांव किसानों के मसीहा के रूप में पहचानी जाती थी। वे दोनों 1941 से ही लगातार शेखावाटी में गांव-गांव घूमकर जागीरदारी प्रथा के खिलाफ लोगों को संगठित करने के काम में जुटे थे। यह सरकारी आदेश भी उनको मंजूर नहीं था। किसान इस जागीरदारी प्रथा को ही किसान विरोधी मानते थे। इसलिए ऐलान किया गया कि लगान के रूप में फसल का एक भी दाना जागीरदारों को नहीं देना है। गांव-गांव किसान संगठित होने लगे। किसानों और जागीरदारों के बीच विरोध तेज हो गया। अप्रैल 1952 में उदयपुरवाटी में जागीरदारी प्रथा के खिलाफ किसानों की एक बड़ी सभा हुई जिसमें बीस हजार से अधिक किसान शामिल हुए। लगानबंदी के खिलाफ इसी तरह गांव-गांव में बड़ी सभाएं होने लगी थीं। जागीरदारों और उनके गुंडों को गांवों से दौड़ा-दौड़ा कर भगाया जाने लगा था। यहाँ तक कि जागीरदारों की मदद के लिए  राजस्थान सरकार ने चंवरा गांव में सीआरपीएफ की एक छावनी ही स्थापित कर दी थी। 12 मई 1952 की रात को किसानों को खबर लगी कि जागीरदार चंवरा में किसानों की फसल जबरन उठाने की योजना बना रहे हैं। किसानों को पता चला कि गुप्त तरीके से जागीरदारों ने आसपास के गांवों में हथियारबंद लोगों को इकठ्ठा कर रखा है। इसलिए 13 मई की सुबह ही बड़ी संख्या में किसान चंवरा पहुंच गए। करणीराम और रामदेव भी पहुंच गए। आखिरकार जागीरदार किसानों की फसल हाथ नहीं लगा पाए। दोपहर गर्मी होने पर सभी किसान आसपास ढाणियों में आराम करने चले गये। करणीराम -रामदेव भी सेढू गुर्जर की ढाणी में आराम करने चले गये। दोपहर में वे चारपाईयों पर लेटे थे। करीब तीन बजे जागीरदारों के हथियारबंद कातिलों ने इन दोनों किसान नेताओं पर हमला कर दिया। चिंगारी आग में बदल गई। हजारों की संख्या में किसान आन्दोलन में कूद पड़े। बार-बार संघर्षों के परिणामस्वरूप आखिरकार जागीरदारों की जागीरदारी समाप्त हो गई। किसानों को जमीन के पर्चे-खतौनी मिले। किसान जमीन के मालिक बन गए।

   शेखावाटी के किसान करणीराम-रामदेव की संघर्ष-परम्परा से अपना नाता आज तक बनाए रखे हुए हैं। सन 1986 में बिजली बिलों की बढ़ी दरों के खिलाफ आन्दोलन में इस इलाके के किसानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। बालूराम डांगी पुलिस की गोली से शहीद हुए। 2008 में नवलगढ में 18 गांवों के किसानों ने कई वर्षों तक भूमि अधिग्रहण के खिलाफ मोर्चा लिया। और इसी तरह आज भी शेखावाटी के किसान तीनों कृषि बिलों के विरोध में संयुक्त किसान मोर्चा के नेतृत्व में चल रहे संघर्ष के हर ऐलान में भागीदार हैं। क्षेत्र के किसानों का संघर्ष को यूं ही जिन्दा रखना इस अमर जोड़ी की शहादत को सच्ची श्रद्धांजलि है।

                                   

                              ★★★★★★

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