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बेरोजगारी और निजीकरण की भयावहता

  
शिक्षित-बेरोजगार महिलाओं की दुर्दशा:
             
               सामाजिक सुरक्षा या समूह में भी असुरक्षा?
             
                                                           -अशोक प्रकाश

           'सामाजिक सुरक्षा' के सरकारी-गैर सरकारी बहुत से दावे किये जाते हैं। इन्हीं दावों में से एक दावा 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का भी है। अगर आप उत्तर प्रदेश की सीएम हेल्पलाइन-1076 पर जाइए तो पाइएगा कि आपकी हेल्प यानी मदद के लिए वहां बहुत कुछ है। लोग उम्मीद भी लगाते हैं और निश्चित ही लोगों को कुछ न कुछ मदद भी मिलती ही है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह मदद वास्तव में कौन करता है और क्यों करता है?...सामान्यतः यही समझ में आता है कि यह सरकार द्वारा स्थापित एक व्यवस्था है। पर यह अर्द्धसत्य है!
            सीएम हेल्पलाइन-1076 दरअसल स्योरविन नामक एक निजी एजेंसी है जिसके माध्यम से सरकारी योजनाओं की जानकारी और मदद का भरोसा दिलाया जाता है। इस एजेंसी या प्राइवेट कम्पनी ने अपने निजी कर्मचारी रखे हैं। इन्हीं में से कुछ लड़कियां भी काम करने के लिए रखी गई हैं जिन्हें 'कॉल टेकर्स' या पूछताछ कॉल को अटेंड करने, प्राप्त करने वाली कहा जाता है।... 
           इतनी बात से किसी को क्या समस्या?...किन्तु यहीं से समस्या शुरू होती है जो एक नहीं कई पोल खोलती है! दरअसल ये कॉल टेकर्स अगर स्थाई सरकारी नौकरी पर होतीं तो इनकी ज़िम्मेदारियाँ और सुविधाएँ निश्चित होतीं, इनकी और इनके माध्यम से सरकार की भी ज़िम्मेदारियाँ तय होतीं। पर ऐसा नहीं है। भले ही चारों तरफ बेरोजगारी की मार हो और नौजवान शिक्षित-अशिक्षित सभी एक निश्चित रोज़गार की तलाश में दर-दर भटक रहे हों, पर उनकी इस दशा का फायदा उठाने वाली एजेंसियां या कम्पनियाँ उनकी बेबसी कम करने की जगह बढ़ा ही रही हैं। इस मामले में भी यही हुआ!
           कॉल टेकर्स कही जाने वाली इन लड़कियों को पिछले चार महीने से वेतन या कहें मज़दूरी नहीं मिली थी। ये स्वाभाविक रूप से लगातार इसके लिए अनुरोध कर रही थीं। शुक्रवार 9 मार्च को इन्होंने जब कम्पनी के टीम लीडर और अन्य लोगों के सामने फिर अपनी बात रखी तो समाधान की जगह उन्हें प्रताड़नाएं मिलीं। उनका आरोप है कि उनसे बस में न केवल सादे कागज़ों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया जाने लगा बल्कि उनके साथ अभद्रता और बदतमीजी भी कम्पनी के कई पुरुषों ने करनी शुरू कर दी। लड़कियों के चीखने-चिल्लाने और कुछ के बेहोश हो जाने पर मामला पुलिस तक पहुंचा! समाधान अभी होना है!....
          यह हमारी सार्वजनिक-सरकारी व्यवस्थाओं के  निजीकरण का एक भयावह मंज़र है। हम सब जानते हैं यह अकेला और विरल मामला नहीं है। करोड़ों नौजवान इस भयावहता और बेबसी से रोज़-ब-रोज़ दो-चार हो रहे हैं!...क्या किसी के पास इसका हल नहीं है?... एक दिन पहले आठ मार्च अर्थात् 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' गुज़रा है। तमाम नेताओं-अधिकारियों ने जगह-जगह  भाषण दिया होगा!...क्या कोई सवाल निजीकरण की इस असभ्यता पर- इससे होने वाली विशेषकर  शिक्षित महिलाओं की दशा पर उठाया गया?... अगर हाँ तो इसका हल क्या है... किसके पास है?? ◆◆◆

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